मूत्रकृच्छ्र Mutrakrcchra ( DYSURIA ) 

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मुत्रवहस्रोतस – 

चरक के अनुसार बस्ती और वङ्क्षण मुत्रवहस्रोतस के मूल हैं और इसके दूषित होने के परिणामस्वरूप अत्यधिक मूत्र प्रवत्ति या मूत्र मे कमी या आवृत्ति में वृद्धि या मूत्र प्रवत्ति के समय मे दर्द या पीडा आदि होते है –

मूत्रवहानां स्रोतसां बस्तिर्मूलं वङ्क्षणौ च, प्रदुष्टानां तु खल्वेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति; तद्यथा- अतिसृष्टमतिबद्धं प्रकुपितमल्पाल्पमभीक्ष्णं वा बहलं सशूलं मूत्रयन्तं दृष्ट्वा मूत्रवहान्यस्य स्रोतांसि प्रदुष्टानीति विद्यात् .

मूत्रकृच्छ्र को समझने से पहले मुत्रोत्सर्जन  की प्रक्रिया को समझना उचित होगा.

मूत्रोत्सर्जन ( Micturition ) :-

मूत्र को मूत्राशय से बाहर निकालना मूत्रोत्सर्जन कहलाता है। अनुकम्पी तंत्रिकाऐ मूत्रनालिका ( Ureter ) में क्रमाकुंचन की गति प्रेरित करती है। इस अवस्था में मूत्राशय मूत्र से भर जाता है। इस क्रिया को Storage reflex कहते है।

परानुकम्पनी तंत्रिकाऐ मूत्राश्य की Detrusor पेशी में संकुचन की प्रेरित करती है और Urethral sphincter शिथिल हो जाता है इस अवस्था में मूत्र मूत्राश्य और मूत्रमार्ग से बाहर आता है। इस प्रक्रिया को voiding reflex कहते है ।

इस प्रक्रिया मे किसी भी स्तर पर बाधा उत्पन्न होने से मूत्रकृच्छ्र उत्पन्न हो सकता है.

Mutrakrcchra is a disease of urinary tract in which a person experiences difficulty in micturition.
इस व्याधि का परिचय हमे शास्त्रो  में निम्न रूप मे मिलता है
जैसे मधुकोश में इस रोग ही व्युत्पत्ति में लिखा है-
” मूत्रस्य कृच्छ्रेण महता दुखेन प्रवृत्तिः । ” ( मधुकोश )
अर्थात् जिस रोग में मूत्र की अत्यन्त कष्ट के साथ प्रवृत्ति होती है उसे मूत्रकृच्छ्र अर्थात (dysuria) कहते हैं ।
मूत्रकृच्छ्र लक्षण के रूप में भी अनेक रोगों में मिलता है ।
किंतु आचार्य चरक ने स्वतंत्र रोग के रूप में मूत्रकृच्छू एव मूत्राचात का वर्णन त्रिमर्मीय चिकित्सा अध्याय में किया है ।
 मूत्रकृच्छ में कृच्छता के साथ मूत्र विबन्धता ( Obstruction ) भी होती है तथा मूत्राघात में केवल मूत्रविबन्धता होती है । यह लक्षण दोनो में अंतर या dif. diagnosis करने में उपयोगी है।
आचार्य वागभट्ट ने मूत्रकृच्छ् व मूत्राघात का वर्णन एक साथ ही किया है ।
 ” यत्र रोगे कृच्छ्रेण मूत्रयते , तत् मूत्रकृच्छ्रम् । “
अर्थात् मूत्र का अत्यंत पीडा के साथ प्रवृत्त होना मूत्रकृच्छु है ।
” मूत्रे कृच्छ्रमत्र , इति मूत्रकृच्छम् । “
व्यायामतीक्ष्णौषधरूक्षमद्यप्रसङ्गनित्यद्रुतपृष्ठयानात् ।
आनूपमत्स्याध्यशनादजीर्णात् स्युर्मूत्रकृच्छ्राणि नृणामिहाष्टौ ।।
पृथङ्मलाः स्वैः कुपिता निदानैः सर्वेऽथवा कोपमुपेत्य बस्तौ । 
मूत्रस्य मार्गं परिपीडयन्ति यदा तदा मूत्रयतीह कृच्छ्रात् । ।
तीव्रा रुजो वङ्क्षणबस्तिमेढ्रे स्वल्पं मुहुर्मूत्रयतीह वातात् । 
पीतं सरक्तं सरुजं सदाहं कृच्छ्रान्मुहुर्मूत्रयतीह पित्तात् ।।
बस्तेः सलिङ्गस्य गुरुत्वशोथौ मूत्रं सपिच्छं कफमूत्रकृच्छ्रे ।
सर्वाणि रूपाणि तु सन्निपाताद्भवन्ति तत् कृच्छ्रतमं हि कृच्छ्रम्  (चरक संहिता , चिकित्सा स्थान – अध्याय 26/32-35)
  मूत्रकृच्छू के सामान्य निदान निम्न प्रकार हैं जिन्हे रोगी मे देखा जा सकता है
1 . क्षमता से अधिक व्यायाम तो नही कर रहा है।
 2. अजीर्ण  तो नही हो रहा है।
3 . रूक्ष मद्य का सेवन तो नही कर रहा है। या अन्य रुक्ष पदार्थो का सेवन तो नही कर रहा
4 . शीघ्र गति वाले घोड़े या यान अर्थात बाइक या कार आदि की सवारी
5. तीक्ष्णौषध का सेवन या पैरासिटामोल या डाइक्लोफेनिक या अन्य तीक्ष्ण औषधि का प्रयोग तो नही कर रहा है
6. रोगी कही अध्यशन तो नही कर रहा है
7.  मांस सेवन या दुष्पाच्य प्रोटीन का अधिक सेवन तो नही कर रहा है
8. अभिघातज traumatic
 निदान परीवर्जन प्रथम चिकित्सा है इन सभी निदानो को त्याग देना चाहीये .
 प्रमुख संदर्भ ग्रंथ
1 . चरक संहिता , चिकित्सा स्थान – अध्याय 26
2 .सुश्रुत संहिता , उत्तर तंत्र – अध्याय 59
3 . अष्टांग हृदय , निदान स्थान – अध्याय 59
4 . अष्टांग हृदय , चिकित्सा स्थान – अध्याय 11
5 . माधव निदान – अध्याय 30
6 . भावप्रकाश – निदान स्थान अध्याय 35

This Post Has One Comment

  1. Dibakar Ray

    Good Article sir,keep it up,very useful for everyone .🙏🙏🙏

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