Shukra Dhatu

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अध्याय-८ शुक्र धातु (Shukra Dhaatu)

‘शुक्र’ शब्द की व्युत्पत्ति (Vyutpatti of Shukra Word)
क्लीवि अर्थात् नपुंसक लिंग से ‘‘शुचि क्लेदे’’ अर्थात् क्लेदार्थक ‘‘शुचि’’ धातु से नपुसंक लिंग में औणादिक ‘‘रन्’’ प्रत्यय करके ‘‘शुक्र’’ शब्द सिद्ध होता है, जिसका तात्पर्य क्लेदोमय शरीर तत्व का बोधन करना है।
शब्दकोष के अनुसार तो शुक्र शब्द एक ग्रह विशेष के लिये भी प्रयुक्त होता है, किन्तु शरीरक्रिया में मुख्य रूप से शुक्र शब्द शुक्रधातु () एवं पुरूष बीजसमुह द्रव () के लिये प्रयोग लाया जाता है।

‘शुक्र’ शब्द के पर्याय ()
शुक्र के पर्याय अधोलिखित हैं-
1. पुंस्त्वम् 2. पौरुषत्वम् 3. रेतम्
4. रेत: 5. रेतनम ् 6. बीजम्
7. वीर्यम् 8. पौरुषम् 9. इन्द्रियम
10. अन्नविकार: 11. मज्जारस: 12. रोहणम्
13. बलम् 14. किट्टवर्जितम् 15. आन्नदप्रभवम
16. मज्जासमुद्भवम् 17. धातुराजकम् 18. बल्यम्
19. शुचौरता 20. शुचीयर्य 21. पुरुषत्म्
22. मज्जाजाते 23. तेज: 24. मज्जासार:
25. अंडम् 26. जीवनम् 27. सार:
28 हिरण्यम् 29. शुक्लम् 30. रेतेन
31. चरमधातु

शुक्र धातु की उत्पत्ति (Synonyms of Shukra Word)
‘‘अस्थ्नो मज्जा तत: शुक्रं प्रजायते।।’’ (च.चि. 15/15)
मज्जा में उपस्थित शुक्र सधर्मी अंश पर शुक्राग्नि की क्रिया से प्राप्त प्रसादांश से शुक्र धातु की उत्पत्ति होती है।
‘‘तस्मान्मज्जस्तु य: स्नहे: शुक्रं संजायते तत:।
वाय्वाकाशादिभिर्भावै: सौषिर्यं जायतेऽस्थिशु।।
‘‘तेन स्त्रवति तच्छुक्रं नवात्कुम्भादिवोदकम् ।
स्रोतोभि: स्यन्दते देहात् समन्ताच्छुक्रवाहिभि:।।
हर्षेणोदीरितं वेगात् सङ्कल्पाच्च मनोभवात् ।
विलीनं घृतवद्व्यायामोष्मणा स्थानविच्युतम् ।।
बस्तौ सम्भृत्य निर्याति स्थलान्निम्नादिवोदकम्। (च.चि. 15/31-35)
वृष्यादिद्रव्याणां धातुपरम्पराक्रमेण शुक्रजननादिकार्यं निषेधयन्नाह- वृष्यादीनामित्यादि। आदिशब्देन बल्यभेदनादीनि ग्राहयति। वृष्यादीनां क्षीरादिद्रव्याणां प्रभावो बलं शीघ्रं पुष्णाति, ततस्ते क्षीरादय: प्रभाववर्धितबला: शीघ्रमेवान्नकार्यं शुक्रजननादि कुर्वन्ति, न यथोक्तधातुक्रमेणेत्यर्थ:। किंवा वृष्यादीनां क्षीरादिद्रव्याणां य: प्रभाव: स आशु बलं पुष्णाति स्वजन्यानां शुक्रादीनामित्यर्थ:य हिशब्दोऽवधारणेय एवं वृष्यादीनां प्रभावाच्छुक्राधुत्पत्ति: शीघ्रं भवति। अथोत्सर्गत: कियता कालेन धातुपरिवृत्तिर्भवतीत्याह- षड्भिरित्यादि। षड्भिरहोरात्रै रसस्य शुक्ररूपतया परिवर्तनं भवतीति केचिदिच्छन्ति। तत्रोत्पन्नो रसो रक्तमेकेनाहोरात्रेण याति, एवं रसोत्पत्तिदिनं परित्यज्य षडहेन शुक्रता भवतिय यदा तु रसोत्पत्तिदिनमपि प्रक्षिप्यते तदा षड्भिर्दिनैरतिक्रान्तै: सप्तमे शुक्रभावतया परिवर्तनं भवतीति ज्ञेयम्। उक्तं हि पराशरे- ‘आहारोऽद्यतन: श्वो हि रसत्वं गच्छति नृणाम्। शोणितत्वं तृतीयेऽह्नि, चतुर्थे मांसतामपि। मेदस्त्वं पञ्चमे, षष्ठे त्वस्थित्वं, सप्तमे त्वियात्। मज्जतां, शुक्रतां याति नियमादष्टमे नृणाम्’ इति। एवदप्युपयोगदिनं सम्पूर्णं परित्यज्यैव व्याख्यातव्यमित्याहु:। किञ्च रसधातो: रक्तधातुरूपतया च परिणमनं यत्तदपि षष्ठदिननिर्वत्र्यमेवेति। यदुक्तं सुश्रुते- ‘स खल्वाप्यो रस एकैकस्मिन् धातौ त्रीणि त्रीणि कलासह स्राण्यवतिष्ठति दश च कला:, एवं मासेन रस: शुक्रीभवति’ (सु.सू.अ.14) इति। तेनैतत्पक्षद्वयमपि केचिदित्यादिना दर्शयति। स्वमतमाह- सन्तत्येत्यादि। भोज्ये उपयुक्ते सति धातूनां रसादीनां चक्रवत् परिवृत्तिर्भवति अविश्रान्ता समुत्पत्तिर्धातूनां भवति। चक्रदृष्टान्तेन तु परिवृत्तिकालानियमं दर्शयतिय यथा चक्रं पानीयोद्धारणार्थं नियुक्तं बाह्यमानं बाहुबलप्रकर्षात् कदाचिदाश्वेव परिवर्तते, कदाचिद् बाहुबलमान्द्याच्चिरेणय एवं धातवोऽपि अग्न्यादिसौष्ठवाच्छीघ्रमेव परिवर्तन्ते, अग्न्यादिवैगुण्ये चिरेण परिवर्तन्ते इतिय एवं सुश्रुतेनापि ‘शब्दार्चिर्जलसन्तानवदणुना विशेषेणानुधावत्येव शरीरं केवलम्’ (सु.सू.अ.14) इत्यत्र दृष्टान्तत्रयेण रसपरिणामोऽपि अग्न्यादिभेदेन प्रकृष्टाप्रकृष्टकालज उक्त एव। तत्र हि जलसन्तानदृष्टान्तेन चिरेण मासपर्यन्तेन शुक्रतापत्ती रसस्योक्ता, शब्दसन्तानदृष्टान्तेन तु नातिशीघ्रं नातिचिराच्च शुक्रोत्पत्तिरुक्ता, अर्चि:सन्तानदृष्टान्तेन त्वतिशीघ्रं शुक्रोत्पत्तिरुक्ता। तथाऽन्यत्राप्युक्तं- ‘केचिदाहुरहोरात्रात्, षड्रात्रादपरे, परे। मासेन याति शुक्रत्वमन्नं पाकक्रमादिति’। तदेतत् सकलं चक्रदृष्टान्तेन गृहीतं ज्ञेयम्।। (च.चि. 15/31-35 पर चक्रपाणि)
अर्थात् मज्जा के स्नेह से शुक्र की उत्पत्ति होती है।
सौषिर्यं रन्ध्रबहुलतां (च. सू. 26/11 पर चक्रपाणि)
वायु तथा आकाश के द्वारा अस्थियाँ छिद्रमय हो जाती है। इन छिद्रों द्वारा ही शुक्र की स्त्रुति होती है जिस प्रकार मिट्टी के नूतन घट के छिद्रों से जलस्त्रुति होती है।
आचार्य चरक ने धातुओं का उत्पति क्रम भी बताया है।
रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेद्रस्ततोऽस्थि च।
अस्थ्नो मज्जा तत: शुक्रं शुक्राद गर्भ प्रजायते।। (च.चि. 15/16)
इसी को स्पष्ट करते हुए कहा है कि ‘‘मज्जाजात धातु:’’ में धातु निर्माणक्रमान्तर्गत मज्जा धातु के परिपाकान्तर में मज्जा धातु का प्रसाद भाग ही ‘‘शुक्र’’ रूप है।
‘‘मज्ज: शुक्रं तु जायते।’’ (सु. सू. 14/11)
तत्राहारस्य सम्यक्परिणतस्य क्रमान्मज्जाजमनुप्राप्तस्य सार: शुक्रसंज्ञां लभते
(अ.स.शा. 1/5)
शुक्रार्तवं किमुच्यते कथं च तद् गर्भजन्माद्युपकरोति उपघातश्च तस्य कथं भवतीत्याह- तत्राहारस्येत्यादि। आहारस्य चतुर्विधस्य सम्यक् यथावत् परिणतस्य जठराग्नि धात्वग्निपरिपाकपरम्परावशाच्चक्रमान्मज्जानं मज्जस्वभावं प्राप्तस्य य: सार: स: शुक्रसंज्ञां लभते (अ.स.शा. 1/5 पर इन्दु)

शुक्र धातु का शरीर में स्थान () :
शरीर की अन्य धातुओं की उत्पत्ति के साथ ही शुक्रधातु की उत्पत्ति भी होती है। यद्यपि बाल्यावस्था में भी शुक्रधातु समस्त शरीर में रहती है किन्तु उसका कार्य ही दृष्टिगोचर नहीं होता है।
‘‘यथा मुकुल पुष्पस्य सुगन्धो नोपलभ्यते।
लभ्यते तद्विकाशात्तु तथा शुक्रं हि देहिनाम्।।’’ (च.चि. 2/38)
जैसे पुष्प की कली से सुगन्ध नहीं आती है परन्तु जब वह कली खिल जाती है तो सुगन्ध आने लगती हैं इसी प्रकार शरीर में शुक्र की स्थिति है। बाल्यावस्था में भी शुक्रधातु अव्यक्त रूप में रहता हैं और युवावस्था प्राप्त होने पर उसकी क्रियायें प्रकट होती है।
स्पर्श ज्ञान रहित स्थल नखाग्र, केश, मल, मूत्र आदि में रक्तसंचार नहीं होता है। अत: इनमे शुक्रधातु का भी अभाव रहता है।
‘‘सप्तमी शुक्रधरा नाम: या सर्वप्राणिनां सर्वशरीरव्यापिनी।।’
सातवीं शुक्रधरा नामक कला होती है जो समस्त प्राणियों के समस्त शरीर में व्याप्त रहती है।
तत्तु क्षीर इव सर्पिरिक्षुरस इव गुड: शरीरे शुक्रधरां कलामाश्रित्यास्रुतं सर्वाङ्गव्यापितया स्थितम्। विशेषतश्च मज्जमुष्कस्तनेषु।। (अ.स.शा. 1/6)
तच्च शुक्रं ; व्यापकमपि मज्जप्रभृतिषु विशेषत: स्थितं शरीरे या शुक्रधरा नाम कला वक्ष्यमाणलक्षणा तामाश्रित्यास्रुतं सत् सर्वाङ्गव्यापित्वेन स्थितं भवति। दृष्टान्तो यथा- क्षीरे सर्पिर्घृतम्। यथा चेक्षुरसे गुड:। व्याप्यस्थितमपि तदवस्थायां न दृश्यते। क्रियासंस्कारादिवशाच्च पश्चादभिव्यज्यते। तथैव शरीरे शुक्रमिति दृष्टान्त:। क्षीरादौ च सर्पिरादेरस्तित्वमनुमानलब्धं यदिह समुत्पद्यते। तन्न चेत्द्य कथं सिकताभ्यो लोकस्तैलं न गृöीयात्। अथवा कार्यकारणमात्रो वा दृष्टान्त:(अ.स.शा. 1/6 पर इन्दु)

शुक्र-स्वरूप ( Shukra Dhatu) :
शरीर में शुक्र की उपस्थिति दो रूपों में होती है-
1. धातुरूप में शुक्र
2. गर्भोत्पादक शुक्र रूप में
1. धातुरूप में शुक्र – धातुरूप शुक्र रक्त के साथ मिलकर सम्पूर्ण शरीर में परिभ्रमण करता है किन्तु आघातादि से रक्तस्त्राव होने पर अथवा शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने पर भी वह रक्त में दृष्टिगोचर नहीं होता है।
2. गर्भोत्पादक शुक्र रूप में – यह दृश्यमान शुक्र होता है जो सर्वशरीर व्यापी होते हुए भी स्थान विशेष- ‘‘शुक्रवह स्त्रोतम्’’ पर पहुँचकर तथा शुक्रधरा कला के सहयोग से प्रकट रूप में आता है। तभी तो इसके स्वरूप के बारे में बताया जा सकता है।
स्निग्ध, घन (बहल), पिच्छिल, मधुर, अविदाहि, स्फटिकाभ श्वेत (शुक्ल), अविस्त्र, गुरू, बहु, मधुगन्धि, तैलवर्णी, मधुवर्णी, घृतवर्णी, द्रव शुक्र का स्वरूप होता है।

विशुद्ध गर्भोत्पादक शुक्र के लक्षण () :
‘‘स्निग्धं घनं पिच्छिलं च मधुरं चाविदाहि च।
रेत: शुद्धं विज्ञानीयाच्छवेतं स्फटिकसन्निभम्।।’’ (च.चि. 30/144)
अर्थात् विशुद्ध शुक्र स्निग्ध, घन, पिच्छिल, मधुर अविदाही तथा स्फटिक के समान श्वेत होता है।
बहलं मधुरं स्निग्धमविस्त्रं गुरू पिच्छिलम्।
शुक्लं बहु च यच्छुक्रं फलवत्तदसंशयम्।। (च.चि. 2-4/49)
अर्थात् जो शुक्र बहल (घना), मधुर, स्निग्ध, अविस्त्र, गुरू पिच्छिल, श्वेत वर्ण युक्त तथा मात्रा में अधिक होता है, वही गर्भोत्पादक शुक्र होता है।
स्फटिकाभं द्रवं स्निग्धं मधुरं मधुगन्धि च।
शुक्रमिच्छन्ति केचितु तैलक्षौद्रनिभं तथा।। (सु.शा. 2/11)
आचार्य सुश्रुत ने कहा है कि वह स्फटिक सदृश श्वेत, स्निग्ध, मधुर, मधुगन्धी होता है।
गर्भोत्पादक शुक्र के सम्बन्ध में वाग्भट्टाचार्य कहते हैं कि वह श्वेत, गुरू, स्निग्ध, मधुर, बहल, मात्रा में अधिक तथा घृत या मधु या तैल वर्ण वाला होता है।
शुक्रं शुक्लं गुरू स्निग्धं मधुरं बहलं बहु।
घृतमाक्षिकतैलाभं सद्गर्भाया।। (अ.हृ.शा. 1/18)

शुक्र के गुणों का ‘‘भौतिक संगठन’’ इस प्रकार हैं-
1. तेजस गुण – शुक्लवर्ण, स्फटिकाभ, तैलवर्ण, घृतवर्ण, मधुवर्ण
2. जलीय गुण – मधुर रस, स्निग्ध, पिच्छिल, द्रव, अविस्त्र
3. पार्थिव गुण – मधुगन्धि, गुरू, घन
4. वायव्य – अविदाहि, बहुल
यद्यपि आकाश महाभूत का शब्द गुण शुक्र में नहीं मिलता है, तथापि आकाश सर्वत्र व्यापि होने से शुक्र का ‘‘पंचभौतिकत्व’’ सिद्ध हो जाता है।

शरीर में शुक्र का परिमाण () :
शुक्रप्रमाणं – अर्धांजलि प्रमाणम्।। (च.शा. 7/16)
शुक्र द्रव धातु है, अत: उसका परिमाण अंजलिमेय होना चाहिए। शरीर में शुक्र का परिमाण आधी अंजलि होता है।

शुक्र के कर्म () :
…. शुक्राद्गर्भ: प्रजायते।। (च.चि. 15/15, अ.ह्न.शा. 3/62)
शुक्रं धैर्यं चयवनं प्रीति देहबलं हर्षं बीजार्थं च करोति।। (सु.सू. 15/6)
धैर्यं शौर्यं शूरत्वम्, अत एव क्लीबा अधीरा:; च्यवनं शीघ्रत्वेनावस्रंसनं, प्रीतिं स्नेहं प्रमदासुय देहबलमुत्साहोपचयलक्षणं; हर्षं पुनरुत्कण्ठाजननं प्रमदास्वेवय बीजार्थं चेति बीजप्रयोजनं, यथा- ऋतुक्षेत्रादिसम्पत्तौ बीजमङ्कुरजननं स्यात्, एवं शुक्रमपि गर्भजनकमित्यर्थ:। (सु.सू. 15/6 पर डल्हण)
हर्षबल गर्भोत्पादनै: शुक्रम्।। (अ.स.सू.19/3)
गर्भोत्पादश्च धातूनां श्रेष्ठं कर्म क्रमात्स्मृतम्। (अ.ह.सू.11/4)
शुक्रस्य गर्भोत्पत्ति:, श्रेष्ठं कर्मेति योज्यम्। (अ.ह.सू.11/4 पर सर्वाङ्गसुन्दरी टीका)
शुक्रदगर्भ: प्रसादजं श्रेष्ठं कर्मं गर्भोत्पाद: मध्यमं हर्षो बलं च।।
(1) शुक्र का मुख्य कर्म ‘‘गर्भोत्पत्ति’’ अथवा ‘‘बीजार्थ’’ है। शुक्र की गर्भोत्पादक क्षम होना चाहिए। गर्भोत्पत्ति उसका प्रधान कर्म है। शुक्र के प्रसाद अंश से गर्भ की उत्पत्ति होती है। इसी ‘प्रसादांश’ को ही बीज, या जीवाधार रूपद्रव्य या आधुनिक परीभाषा में शुक्र कीट (स्श्चद्गह्म्द्वड्डह्लश5शड्ड) कहा जाता है। अत: कहा गया है- ‘‘शुक्राद्गर्भ: प्रजायते‘‘।
(2) शुक्र का दूसरा कर्म- हर्ष ‘‘ध्वजप्रहर्ष’’ है। यह देह तथा मन उभयक्षेत्र से सम्बन्धित कर्म है। गर्भोत्पत्ति के लिए स्राव अथवा क्षरण आवश्यक है और क्षरण होने के पूर्व प्रहर्ष अवश्य होना चाहिए। अत: यह प्रथम कर्म का सहायक कर्म है।
(3) देहबल- शुक्रोत्पत्ति का प्रभाव देह पर भी उपचय अथवा वृद्धि और शक्ति कर्म सामथ्र्य के रूप में पड़ता है। अत: एकाएक शारीरिक अंगों में आयाम विस्तार उत्सेध में विकास उपचय तथा बलवृद्धि साहस में प्रवृति, बल के प्रदर्शन की प्रवृति होती है। 40 साल तक बल अपनी पूर्ण सीमा तक वृद्धि को प्राप्त होता है, जिसे ‘‘समत्वागतवीर्य’’ कहा गया है।
(4) धैर्य- धैर्य यद्यपि मनोगुण है, अत: मनाभावों का विकास युवावस्था में पोरूष के अनुरूप होना सूचित करता है। शुक्रधातु के कारण विपत्तियों में शांत रहकर प्रतिकार करने की शक्ति आती है।
(5) प्रीति ()- शुक्र का पांचवा कर्म है, यह भी मनोभाव के क्षेत्र में आता है। शुक्र का प्रथम कर्म गर्भोत्पादन में यह पूरक कर्म है। अत: प्रीति भी शुक्रोत्पत्ति का कारण है।
(6) च्यवनम- शुक्र का यह भी स्वाभाविक कर्म है। च्यवन का अर्थ स्वस्थान से चलित होना, हटना अथवा क्षरण-पतन, गिरना होता है। कामजन्य हर्ष के बाद संचित शुक्र का च्यवन भी स्वाभाविक है। यह अनैच्छिक क्रिया है।
इसके अतिरिक्त शुक्र पौरूष सूचक अन्य गुण- स्त्रियों का रंजन आदि देह और मन के गुण भी उत्पन्न करता है।

शुक्र का महत्व ()
शुक्र गर्भोत्पत्ति की शक्ति रखता है। स्त्रीप्रियता (पुरूष प्रियता भी), पौरूष शक्ति और श्मश्रु उत्पन्न करता है।।
शुक्र के अभावे मे नरषण्ड कहलाते है।।
शुक्र की अल्पता से चार प्रकार के क्लेब्य उत्पन्न होते है
क्लीवया: चतुर्विध: सरेतस:।
परन्तु शुक्र की महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि यह नवीन शरीर निर्माण (गर्भोत्पत्ति) की शक्ति रखता है।
शुक्र को सातों धातुओं में अन्तिम तथा श्रेष्ठ साररूप धातु है। अत: इसको शुद्ध सुवर्ण के समान- मल रहित माना गया है। इसका एक कारण हैं कि प्रकृति अपनी रचना से इस सृष्टि को बनाये रखना चाहती है। इस नाशवान् जगत में ऐसा उसी समय सम्भव है, जबकि नाश के साथ ही साथ उत्पत्ति क्रम भी चलता रहे। अत: अन्य जीवधारियों एवं पादपों के समान, मनुष्य भी इस उद्देश्य की पूर्ति में रत रहता है और शुक्र इसमें सहायक होता है।
मनुष्य सन्तानोत्पति की इच्छा एवं दक्षता प्रकृति से ही प्राप्त कर लेता है तथा इस उद्देश्य की पूर्ति शुक्र धातु से होती है। इस अन्तिम उद्देश्य के पश्चात् अन्य कोई सांसारिक कार्य शेष नहीं रह जाता है इसलिए शुक्र को अन्तिम धातु तथा सर्वश्रेष्ठ धातु कहा गया है, जिसमें न तो कोई मल हैं और न कोई उपधातु ।
सन्तानोत्पत्ति का स्त्रियों में डिम्ब तथा पुरूषों में शुक्राणु साधन है। शुक्राणुओं को डिम्ब तक पहुचना पड़ता है, इसके लिए काफी मार्ग तय करना होता है, अत: उन्हें एक तरल माध्यम की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति वीर्य (स्द्गद्वद्गठ्ठ) के तरलांश से हो जाती है।
डिम्ब तथा शुक्राणुओं की उत्पति में जनन प्रेरक हॉर्मोन स्त्रियों एवं पुरूषों दोनों में होते है। अत: ये शुक्र धातु के रूप में स्त्री तथा पुरूष दोनेां में उपस्थित रहकर, न केवल डिम्ब एवं शुक्राणुओं की उत्पत्ति में कारण होते हैं वरन् समस्त शरीर में यौवनारम्भ के लक्षण भी उत्पन्न करते है। इसलिए शुक्र को समस्त शरीर में व्याप्त अन्तिम धातु कहा गया है।

शुक्रसार पुरूष के लक्षण () :
सौम्या: सौम्यप्रेक्षिण: क्षीरपूर्णलोचना इव प्रहर्षबहुला: स्निग्धवृत्तसारसमसंहतशिखरदशना: प्रसन्न स्निग्ध वर्णस्वरा भ्राजिष्णवो महास्फिचश्च शुक्रसारा:।
ते स्त्रीप्रियोपभोगा बलवन्त: सुखैश्वर्यारोग्यवित्तसम्मानापत्यभाजश्च भवन्ति।। (च0वि0 8/109)
शुक्रसार व्यक्ति सौम्भ्य तथा सौम्यदृष्टि (कोमल दृष्टि) वाले होते हैं, नेत्र दूध से भरे हुए (शुभ्र) होते हैं। सदा प्रसन मन वाले अथवा बहुत काम वेग वाले होते हैं।
दांत स्निग्ध, गोल, दृढ़, परस्पर एक-दूसरे से मिले हुए तथा उन्नत होते हैं।
वर्ण और स्वर निर्मल तथा स्निग्ध होता है। ऐसे व्यक्ति कान्तिमान् एवं भारी नितम्बो वाले होते हैं।
शुक्रसार पुरुष स्त्रियों के प्रिय तथा स्त्रियां पुरुषों की प्रिय, सुख ऐश्वर्यवान आरोग्य, धन, सम्मान तथा सन्तानवान् होते हैं।
स्निग्धसंहत श्वेतास्थिदन्तनखबहलकामप्रजं शुक्रेण।। (सु0सू0 35/18)
शुक्रसार व्यक्ति स्निग्ध, संहत (धन) शरीर वाले, श्वेत अस्थि, दन्त और नख वाले तथा प्रबल कामशक्तियुक्त होते हैं।

शुक्रक्षय तथा शुक्रवृद्धि के लक्षण ()
शुक्रक्षय के लक्षण () :
दौर्बल्यं मुखशोषश्च पाण्डुत्वं सदनं श्रम:।
क्लैव्यं शुक्राविसर्गश्च क्षीणशुक्रस्य लक्षणम्।। (च.सू. 17/68)
शुक्रं चिरात् प्रसिंच्येत् शुक्रं शोणितमेव वा।
तोदोऽत्यर्थं वृषणयोर्मेढ्रं धूमायतीव च।। (अ.ह.सू. 11/20)
शुक्रक्षये मेढ्रवृषणवेदनाऽशक्तिर्मैथुने चिराद्वा प्रसेक: प्रसेके चाल्परक्त शुक्रदर्शनम्। (सु.सू. 15/9)
शुक्रक्षय इत्यादि। चिराद्वा प्रसेक इति कथञ्चित् प्रवृत्तावपि चिरकालेन क्षरणम्; अल्परक्तशुक्रदर्शनं शुक्रं क्षीणं मज्जमिश्रमल्परक्तत्वमृच्छतिय अन्ये तु ‘अल्पशुक्ररक्तदर्शनमिति धातुक्षयात् कुपितो वायु: शोणितमल्पशुक्रमिश्रं नि:स्रावयति’ इति; मेढ्रवृषणवेदनेति शुक्रस्य सर्वशरीरव्यापिनोऽपि विशेषाधारत्वान्मेढ्रवृषणनिर्देश:।। (सु. सू. 15/9 पर डल्हण)
शरीर में शुक्र की क्षीणता होने पर वृषणों एवं शिश्न में वेदना होने लगती है। शुक्र का देर से स्खलन होना, शुक्र के साथ रक्त तक आ जाना, मैथुन में दुर्बलता होना, मुख का शुष्क होना, क्लीवता एवं अरक्तता आदि क्षीण शुक्र के लक्षण है।

शुक्रवृद्धि के लक्षण () :
शुक्रं शुक्राश्मरीमतिप्रादुर्भावं च। (सु.सू. 15/14)
अतिस्त्रीकामतां वृद्घं शुक्राश्मरीमपि।। (अ.ह. 11/12)
शुक्र की अतिवृद्वि पर स्त्री संग की अधिक इच्छा, शुक्र का अधिक मात्रा में स्खलन तथा शुक्राश्मरी की सम्भावना बढ़ जाती है।
शुक्रवह स्त्रोतस् () :
शुक्र का निर्माण, वहन तथा शुक्रच्युति करने वाली शरीरस्थ व्यवस्था को शुक्रवह स्त्रोतस् कहते है।
आचार्य चरक के स्त्रोतोविमानाध्याय में शुक्रवह स्त्रोतस के मूल वृषण एवं शेफ (मेढ्र) को बताया है। यथा:-
‘‘शुक्रवहानां स्त्रोंतसां वृष्णों मूलं शेफ श्च।‘‘ (च.वि. 5/8)
इस सन्दर्भ में सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि चरक ने जिस शुक्रवह स्त्रोतस् के मूलों का वर्णन किया है, वे उत्पादक शुक्र से सम्बन्धी शुक्रवह स्त्रोतस मे मूल है, जैसा कि आधुनिक वैज्ञानिक प्रजनन संस्थान का वर्णन करते हुए मानते है।
अगर शुक्रधातु से सम्बन्धित शुक्रवह स्त्रोतस् के मूलों का वर्ण माने तो यह आपत्ति होगी कि स्त्रियों में शुक्रवह स्त्रोतस के मूल क्या होंगे? क्योंकि उपरोक्त दोनों अवयव (वृषण ग्रन्थियां एवं शेफ) स्त्रियों में नहीं होते। परन्तु आचार्यो के निर्देशानुसार शुक्रधातु स्त्री-पुरूष दोनो के शरीर में विद्यमान है। अत: चरक के अनुसार स्त्रियों में शुक्रवह स्त्रोतस् का मूल क्या होगे, यह एक विचारणीय प्रश्न है। दुसरी बात यह है कि जहां-जहां भी स्त्रोतस् गणना की गई है, कही पर भी यह निर्देश नहीं दिया गया है कि स्त्रियों में शुक्रवह स्त्रोतस् नहीं होता। यह जरूर बताया गया है कि स्त्रियों में एक स्त्रोतस् विशेष होता है -आर्तववह स्त्रोतस्। अस्तु इस सन्दर्भ में यह मानना उचित होगा कि चरकोक्त शुक्रवह स्त्रोतों मूल पुरूषों के शुक्र (गर्भोत्पादक शुक्र) से सम्बन्धित शुक्रवह स्त्रोतस् है। इस मतानुसार स्त्रियों में वो शुक्रवह स्त्रोतस् नहीं होता, जिसके मूल वृषण ग्रन्थियां एवं शेफ है।
आचार्य सुश्रुत ने शरीर स्थानाध्याय में स्त्रोतस् का वर्णन करते हुए बताया है:-
‘‘शुक्रवहे द्वे, तयोर्मूलं स्तनौ वृषणौ च।’’
अर्थात् शुक्रवह स्त्रोतस् दो हैं तथा उनका मूल स्तन एवं वृषण ग्रन्थियाँ है।
इस सन्दर्भ पर विचार करते में स्तनों को शुक्रवह स्त्रोतस के मूल मानने के सन्दर्भ में कई विद्वानों के मत भिन्न-भिन्न है। अत: इस क्रम में कई व्याख्या करते हुए डॉ. धानेकर ने अपने व्यक्तव्य में कहा है कि – ‘‘शुक्रवहे द्वे’’ शुक्रवह दो नलियों से डक्टस् डेफेरेन्स () का ग्रहण करना चाहिए और उनसे जो अनेक स्त्रोतस् आगे वृषण की ओर होते हैं, उनमें डक्टस् इफेरेन्सिया () तथा रेट टेस्टीस () का ग्रहण करना चाहिए। वृषण ग्रन्थियों में उत्पन्न हुआ शुक्र इनके द्वारा बाहर आता है।
पुरूषों में वृषण तथा स्त्रियों में स्तन को शुक्रवह स्त्रोतस् में ग्रहण करने का तात्पर्य निम्नांकित तथ्यों से कुछ स्पष्ट हो सकता है:-
1.शुक्रोत्पति तथा स्तन्योत्पति दोनों ही मानसिक भावों पर निर्भर है।
2.शुक्र तथा स्तन्य सर्वशरीरव्यापी होते हुए भी निश्चित स्थान से च्युत होते है।
3.शुक्र के द्वारा नवजीवन की उत्पत्ति तथा स्तन्य द्वारा नवजीवन का पोषण किया जाता है।
4.शुक्र तथा स्तन्य दोनों ही स्वरूप एवं गुणों में लगभग साम्य रखते हैं।
पुरूष में पौरूषत्व का सम्बल वृषण ही होते हैं। वृषण बल, वर्ण, कान्ति तथा उत्साह के प्रदाता हैं।
चुकि शुक्रधातु धैर्य, च्युति, प्रीति, शरीर में बल, हर्ष तथा सन्तानोत्पति के योग्य बीज (डिम्ब एवं शुक्राणुओं) की उत्पत्ति करता है। अत: शुक्रधातु के कार्यो को देख कर यह माना जा सकता है कि प्रजनन तंत्र के मूलभूत तत्व, उत्पादक एवं नियन्त्रक तत्व के रूप में कार्य करने वाला द्रव्य ही शुक्र धातु है। जो (शुक्र धातु) दुग्ध में घृत तथा इक्षु में रस के समान प्राणियों के सम्पूर्ण देह में व्याप्त रहता है।

शुक्रवह स्रोतस् की दृष्टि का कारण-
अकालयोनिगमनान्निग्रहादतिमैथुनात्।
शुक्रवाहिनी दुष्यन्ति शस्त्रक्षाराग्निभिस्तथा।।(च.वि. 5/24)
असमय मैथुन करने से अथवा अयोनि या निषिद्ध योनि आदि से मैथुन करने से शुक्र के वेग को रोकने से, अत्यधिक मैथुन करने से, शल्य कर्म, क्षार कर्म अथवा अग्नि कर्म से शुक्रवाही स्रोतस दुष्ट हो जाता हैं।

शुक्र के आठ दोष
चरक संहिता में शुक्र के आठ दोष स्वरूपानुसार बताए गए है
फैनिलं तुन रूक्षं च विवर्णं पूति पिच्छिलम्।
अन्यधातुपसंसृष्टमवसादि तथाष्टमम्।। (च.चि. 30/140)
सुश्रुत ने शुक्रदोषों की गणना इस प्रकार की है-
वातपित्तश्लेष्मशोणितकुणपग्रन्थिपूतिपूयक्षीण मूत्रपुरीषरेतस: प्रजोत्पादने न समर्था भवन्ति। (सु. शा. 2/2)

शुक्रधरा कला () :
बाह्य शरीर का आवरण त्वचा है तो अन्त: शरीर आशयों, धातुओं आदि का आवरण कला () होती है। इससे यह कला अन्त: शरीर का रक्षण करती है। शुक्रधरा कला सबसे अन्तिम कला है।
सप्तमी शुक्रधरा नाम या सर्व प्राणिनां सर्वशरीरव्यापीनी। (सु.शा. 4/19)
अर्थात प्राणियों के सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त सातवीं कला का नाम शुक्रधरा है। इसलिए शुक्र की सर्वशरीरव्यापी होता है। जो कि विशिष्ट क्रियाओं द्वारा मैथुनादि द्वारा च्युत होता है।
शुक्र को धारण करने वाली यह शुक्रधरा कला सर्वशरीर व्यापी करने के कारण ही सर्वशरीर गत भावों को उत्पन्न करती है।
यह सर्वशरीरगत शुक्र अदृश्य रूप में होकर भी इसके कर्म दृश्य रूप में होते हैं, किन्तु जब यह क्रिया विशेष द्वारा स्थान विशेष पर (शुक्रवह स्त्रोतस के मूल पर) होता है, तो प्रकट रूप में आ जाता है। यही कारण है कि स्त्रियों में शुक्रवह स्त्रोतस के मूल- वृषण तथा शेफ नहीं होने के कारण स्त्रियों में शुक्र अदृश्य रूप से ही बना होता है।

शुक्र प्रवृत्ति हेतु
हर्षोदीरितं तु सङ्घट्टनेन हृदयावेशात् पिण्डीभूतमङ्गादङ्गात् प्रवर्तते। (अ.स.शा. 1/ 7)
तच्च शुक्रं सर्वाङ्गव्यापि स अङ्गनासंयोगे हर्षेणोदीरितं प्रेरितमङ्गादङ्गाद्बहि: प्रवर्तते (अ.स.शा. 1/7 पर इन्दु)

आधुनिक ग्रन्थों में शुक्रधातु सादृश्य द्रव्य
शरीर में शुक्रधातु जैसा द्रव्य क्या है? इस बारे मे चिन्तन करने पर विचार आता है कि शुक्रधातु की कोन सी विशेषताये जो उस द्रव्य में होनी चाहीये जिसे शुक्रधातु माना जाये। सर्वप्रथम उन विशेषताऔ का निर्धारण करना आवश्यक है।
१. जो स्त्री पुरूष दोनो मे हो
२. जो बीज रूप में जीवन प्रारम्भ से ही हो
३. जो योवन अवस्था में अपने कार्यों से प्रदर्शित हो
४. जिसके विकास में मज्जा धातु का योगदान हो
५. स्त्रियों में शुक्र धातु के कार्यक्षेत्र में स्तन तथा डिम्बग्रन्थि होते हैं।
६. पुरूषों में शुक्र धातु के कार्यक्षेत्र मे वृषण एवं शेफ होते हैं।

अन्त: स्त्रावों का उत्पादन ()
टेस्टेस्टेरॉन ()
टेस्टेस्टेरॉन () का स्त्राव वृषण की लिडिंग की कोशिकाये () द्वारा होता है। वृषण कई पुरूष हार्मोनों का स्त्राव करता है, जिनमें टेस्टेस्टेरॉन, डीहाइड्रो टेस्टेस्टेरॉन (), एन्डोस्टेडिओन डीहाइड्रो टेस्टेस्टेरॉन () भी शामिल है, तथा सभी को सम्मिलित रूप से एन्ड्रोजन () कहते हैं। अधिकांशत: टेस्टेस्टेरॉन लक्ष्य अंग () पर पहुंच कर अधिक सक्रिय डीहाइड्रोटेस्टेस्टेरॉन में बदल जाता है।
लिडिंग की कोशिकाओ () का ट्यूमर () होने पर या एक्स विकिरण () चिकित्सा या अधिक तापमान से प्रभावित होकर जब वृषण की जर्मिनल एपिथिलियम () नष्ट हो जाती है, तो भी लिडिंग की कोशिकाये टेस्टेस्टेरॉन का उत्पादन करती रहती है।

फोलिकल स्टीमूलेटींग हॉर्मोन () –
पिट्टयूरी ग्रन्थि के अग्र भाग अर्थात एडीनो हाइपोफाइसिस द्वारा सा्रवित होने वाला फोलिकल स्टीमूलेटींग हॉर्मोन () पुरूषो में टेस्टेस्टेरॉन के साथ मिल कर शुक्राणु निर्माण की गति को तेज करता है।
स्त्रीयों में प्रिमोडियल फालीकल्स से ग्राफियन फालीकल्स का विकास करवाता है। ग्राफियन फालीकल्स की थिका सेल्स को सक्रिय कर इस्ट्रोजन का स्रावण करवाता है। एन्डोजन को इस्ट्रोजन में परिवर्तित करवाता है।

एडरिनल सेक्स हार्मोन ()
एडरिनल कोर्टेक्स से स्रावित होने वाले सेक्स हार्मोन स्त्री एवं पुरूष दोनो में रहते है। एडरिनल कोर्टेक्स से मुख्यत: एन्डोजन का स्राव होता है।
कुछ मात्रा में इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टोन का भी स्राव एडरिनल कोर्टेक्स से होता है।

धातुओं के प्राकृत कर्म और क्षय-वृद्धि के मुख्य लक्षण
सभी धातुओं के प्राकृत कर्मों और उनके क्षयवृद्धि के मुख्य लक्षणों को तुलनात्मक रूप से निम्न तालिका में देखा जा सकता है।

तालिका- 7 धातुओं के प्राकृत कर्म और क्षयवृद्धि के मुख्य लक्षण
क्र. स. धातु प्राकृत कर्म क्षयजन्य लक्षण वृद्धिजन्य लक्षण
1. रस शरीर तुष्टि, प्रीणन, रक्तपुष्टि हृत्पीड़ा, कम्प, शून्यता, तृष्णा, शब्द असहिष्णुता हृदयोत्क्लेद, प्रसेक (सु. सू.15)
श्लेष्मवृद्धि के लक्षण (वाग्भट्ट)
2. रक्त वर्णप्रसादन, मांस पुष्टि, जीवनदान, त्वक् पारुष्य, अम्लशीत प्रार्थना, सिराशैथिल्य, रक्तांगता, रक्ताक्षिता, सिरापूर्णत्व (सु. सू.15)
कुष्ठ विसर्प प्लीहा विद्रदी, वातरक्त, रक्तपित्त, गुल्म, उपकुश, कामला, व्यंग, अग्निनाश, संमोह, रक्त त्वक नेत्रता (अ.ह.सू 11/10)
3. मांस शरीर पुष्टि, मेद पुष्टि स्फिक्, गण्ड, ओष्ठ, उपस्थ उरू, वक्ष, कक्षा, पिण्डिका, उदर, एवं ग्रीवा में शुष्कता, रूक्षता, तोद, शरीर पीड़ा, धमनीशिथिलता, स्फिक्, गण्ड, ओष्ठ, उपस्थ, बाहु, जंघा में मांस वृद्धि, गुरु गात्रता।(सु. सू.15)
गण्डार्बुद ग्रन्थि, उदर वृद्धिता: कण्ठादिषु अधिमांसं च। (अ.ह.सू 11/10)
4. मेद स्नेहन, दृढ़ता, अस्थिपुष्टि प्लीहा वृद्धि, सन्धि-शून्यता, रूक्षता, मेदुरमांस प्रार्थना, स्निग्धांगता, उदरपाश्र्ववृद्धि, कास, श्वास,दौर्गन्ध्य
5. अस्थि देह धारण, मज्जा पुष्टि, अस्थि शूल, दन्तनखभंग, रूक्षता, अध्यस्थि, अधिदन्त
6. मज्जा प्रीति, स्नेह, बल, अस्थि पूरण, शुक्रपुष्टि, अल्पशुक्रता, पर्वभेद, अस्थितोद, अस्थि शून्यता सर्वांग गौरव, नेत्र गौरव (सु. सू.15)
अरूषी पिडिकाओं की उत्पत्ति (अ.ह.सू 11/11)
7. शुक्र धैर्य, च्यवन, प्रीति, देहबल, हर्ष, गर्भोत्पादन, मेढ्र व वृषण वेदना, मैथुन में अशक्ति, चिरात् प्रसेक, अल्प प्रसेक, सरक्त प्रसेक, शुक्राश्मरी, अतिप्रादुर्भाव (सु. सू.15) अतिस्त्रीकामतां (अ.ह.सू 11/12)

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