Oja

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ओज

ओज शरीर का व्याधिक्ष्मत्व बल है। व्याधिक्षमत्व बल को प्रदान करने वाले ‘ओज’ संज्ञा वाले ये तत्व रक्त के साथ समस्त शरीर में परिसंचरित होते रहते हैं।

ओज’ शब्द की व्युत्पत्ति (Etymological derivation of  word ‘Oja’)

‘उब्ज’ धातु -‘असुन’ प्रत्यय = आर्जव अर्थात् बल और इसे ही ‘ओज’ कहा गया है।

 

ओज’ शब्द के पर्यायवाची (Synonyms of Oja)-

कांति, दीप्ति, बल, प्रकाश, अवष्टम्भ, शक्ति, तेज, सामथ्र्य, चमक, जोश

 

ओज की उत्पत्ति (Origin of Oja) –

प्रथमं जायते ह्योज: शरीरस्मिन शरीरिणाम्। (च0 सू0 17/74)

शरीर धारियों में सबसे पहिले ओज की उत्पत्ति होती हैं।

भ्रमरै: फलपुष्पेभ्यां यथा संहियते मधु। तद्वदोज: शरीरेभ्यो गुणै: संभ्रियते नृणाम्।  (च. सू. 17/76)

जिस प्रकार भौरे फल एवं पुष्पों से मधु एकत्रित करते है। उसी तरह शरीर में धात्वाग्नि अपने गुण कर्मो द्वारा धातुओं से ओज को एकत्रित करती है।

रसादीनां शुक्रान्तानां धातुनां यत् परं तेजस्तत् खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यते, स्वशास्त्रसिद्धान्तात्। (सु.सू. 15/20)

इस से शुक्र पर्यन्त सातों धातुओं के उत्कृष्ट सारभूत अंश को ओज कहते हैं और इसी ओज को बल भी कहते है।

ओजस्तु तेजो धातुनां शुक्रान्तानां परं स्मृतम्।      (अ.हृ.सू. 11/27)

रस से शुक्र पर्यन्त सातों धातुओं का परम शुद्ध तेज ओज होता है।

सर्वधातुनां स्नेहमोज: क्षीरे घृतमिव तदेव बलमिति। (भ्रा.प्र.)

जिस प्रकार दूध का स्नेह घृत है उसी प्रकार समस्त धातुओं का स्नेह ओज है।

 

ओज का स्थान तथा वर्ण (Location and color of Ojas)

हृदि तिष्ठति यत्शुद्धं रक्तमीषत्सपीतकम्।

ओज: शरीरे संख्यातं, तन्नाशान्नाविनश्यति। (च0सू0  17/73)

कुछ लालिमा तथा पीलापन लिए हुए जो श्वेत पदार्थ हृदय में रहता है उसे ओज कहते है। इस ओज के नाश से शरीर का भी विनाश हो जाता है।

तत् परस्योजस: स्थानं तत्र चैतन्य संग्रह:।

हृदयं महदर्थश्च तस्मादुक्तं चिकित्सकै:।।

तेन मूलेन महता महामूला मता दश।

ओजोवहा शरीरेऽस्मिन् विधम्यन्ते समन्तत:।।  (च.सू. 30/6, 7)

हृदय उत्कृष्ट ओज का भी स्थान है। वही हृदय चेतना का संग्रह स्थान भी है। ओज का स्थान होने के कारण, चिकित्सक हृदय को महत् और चेतना का आश्रय स्थान होने के कारण ‘अर्थ’ कहते है।

इसी कारण हृदय से प्रारम्भ होने वाली दस धमनियां महामूला (महत् है मूल जनिका) कहलाती है। ये धमनियां ओजोवहा है। इनके द्वारा शरीर में चारों ओर हृदय से ओज का धमन किया जाता रहता है अर्थात् रक्त द्वारा समस्त शरीर में संचरित होता रहता है।

सर्पिवर्णं मधुरसं लाजगन्धि प्रजायते।।  (च.सू. 17/74)

ओज घृत के वर्ण का, मधुर रसयुक्त तथा लाजा के समान गन्धवाला होता है।

 

ओज के गुण (Properties of Ojas)

गुरू शीतं मृदु श्लक्ष्णं बहलं मधुरं स्थिरम्।

प्रसन्नं पिच्छिलं स्निग्धमोजो दशगुणं स्मृतम्।।    (च.चि. 24/30)

ओज दस गुणों से युक्त होता है-

गुरू 2. शीत 3. मृदु  4. श्लक्ष्णं 5. बहल  6. मधुर 7. स्थिर 8. प्रसन्न 9. पिच्छिल 10. स्निग्ध

चरक संहिता में ओज के दस गुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि ओज के इन दस गुणों से विपरित दस गुण मद्य में होते है। मद्य के सेवन से शरीर में मद्य के गुणों का बाहुल्य हो जाता है तथा ओज के गुणों का नाश हो जाता है।

सुश्रुतसंहिता में ओज के गुणों का वर्णन इस प्रकार है –

ओज: सोमात्मकं स्निग्धं शुक्लं शीतं स्थिरं सरम्।

विविक्तं मृदु मृत्स्नं च प्राणायतनमुत्तमम्।।

देह: सावयवस्तेन व्याप्तो भवति देहिनाम्।

तदभावाच्च शीर्यन्ते शरीराणि शरीरिणाम्।। (सु.सू. 15/26-27)

ओज गुणों में

सौम्य 2. स्निग्ध 3. श्वेत        4. शीत

शरीरस्र्थर्य-कारक 6. प्रसरणशील 7. विविक्त      8.  पिच्छिल

कोमल 10. प्राणों का श्रेष्ठ आधार है।

 

ओज और बल (Relation between Oja and strength)-

आचार्य सुश्रुत ने ओज को बल कहा है।

रसादीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत् परं तेजस्तत् खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यते (सु.सू.15/23)

रस से शुक्र पर्यन्त सप्त धातुओं के बाद जो उत्कृष्ट तेज है वही ‘‘बल’’ है। बल ही ओज है।

बल शरीर में व्याधि के कुप्रभाव को कम करने वाला भाव है।

बलं ह्यलं निग्रहायदोषाणाम्      (च.चि.3/166)

बल ही दोषों के निग्रह में समर्थ होता है। अर्थात् ओज शारीर विकारों को रोकने या नष्ट करने में समर्थ है। शरीर में बल के द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्यो का ओज ही कारण है। चिकित्सा शास्त्र में शारीर बल को देखकर ही ओज की कल्पना की जाती है क्योंकि ओज से बल की उत्पत्ति होती है।

 

ओज के कार्य (Function of Oja)-

ओज से तृप्त होकर ही तो समस्त जीव जीवित रहते है। इसके बिना प्राणियों का जीवन नहीं रहा सकता। यह गर्भ रस से उत्पन्न होता है अत: गर्भ आदि का सार है।

शरीर में संचरित होने से पूर्व यह हृदय में प्रवेश करता है तथा यह हृदय में आश्रित हो जीवन को धारण करता है। इसके नष्ट होने से जीवन नष्ट हो जाता है, अत: इसी में प्राण प्रतिष्ठित रहते है अर्थात् इसी से देह स्थिर रहती है तथा देह में आश्रित सम्पूर्ण भाव उत्पन्न होते है।

येनौजसा वर्तयन्ति प्रीणिता: सर्वदेहिन:।

यदृते सर्वभूतानां जीवितं नावतिष्ठते ।।

यत् सारमादौ गर्भस्य यत्तद्गर्भरसाद्रस:।

संवर्तमानं हृदयं समाविशति यत् पुरा ।।

यस्य नाशात्तु नाशोऽस्ति धारि यद्धृदयाश्रितम् ।

यच्छरीररसस्नेह: प्राणा यत्र प्रतिष्ठिता:।। (च.सू. 30/11)

सम्प्रति धमनीनामुक्तं महाफलत्वं व्युत्पादयन्नाह-येनौजसेत्यादि। येनौजसेति सामान्येन द्विविधमप्योजो ग्राह्यम्। वर्तयन्ति जीवन्ति, वर्तयन्तीति चौरादिको णिच्। प्रीणिता इति तर्पिता:। यत् सारमादौ गर्भस्येति शुक्रशोणितसंयोगे जीवाधिष्ठितमात्रे यत् सारभूतं, तत्रापि तिष्ठति। यत्तद्गर्भरसाद्रस इति गर्भरसाच्छुक्रशोणितसंयोगपरिणामेन कललरूपात्, रस इति सारभूतम्। संवर्तमानं हृदयं समाविशति यत् पुरेति यदा हृदयं निष्पद्यमानं, तदैव व्यक्तलक्षणं सद्धृदयमधितिष्ठति यदित्यर्थ:। एतेन, गर्भावस्थात्रयेऽपि तदोजस्तिष्ठतीत्युच्यतेय परं गर्भादौ शुक्रशोणितसाररूपतया, कललावस्थायां तु रससाररूपतया, अवयवनिष्पत्तौ तु स्वलक्षणयुक्तमेव भवत्योज इत्योजस: सर्वावस्थाव्यापकत्वेन महत्त्वमुच्यते। यस्य नाशात्तु नाशोऽस्तीति धात्वन्तराक्षयेऽपि सत्योज:क्षये मरणमित्यर्थ:। धारीति जीवधारकसंयोगिभ्य: प्रधानत्वात्। शरीररसस्नेह इति शरीरसारसारंय रसशब्द: स्नेहशब्दश्च सारवचन:, तेन शरीररसानां धातूनामपि सार इत्यर्थ:। एतच्च प्रकारान्तरेणाभ्यर्हितानेककर्मकथनमोजसोऽभ्यर्हितत्वख्यात्यर्थम्। तत्फला ओज:फला ओजोवहा इति यावत्। एतेन, यथोक्तगुणशालित्वेनौजो महत्य एतद्वहनेन फलन्तीवेति महाफला धमन्य उक्ता:। द्वितीयां निरुक्तिमाह- बहुधा वा ता: फलन्तीति, ‘ता हृदयाश्रिता दश धमन्यो बहुधा अनेकप्रकारं फलन्तीति’ निष्पद्यन्तेय एतेन, मूले हृदये दशरूपा: सत्यो महासङ्ख्या: शरीरे प्रतानभेदाद्भवन्तीत्युक्तम्।(च.सू. 30/11 पर चक्रपाणी)

ओज शरीर का स्नेह है, जिसमें प्राण प्रतिष्ठित होते है और मुख्य रूप से हृदय में स्थित होते हुए भी सारे शरीर का बन्धन करता है।

ओजस्तु तेजो धातूनां शुक्रान्तानां परं स्मृतम्।

हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबन्धनम्।।

स्निग्धं सोमात्मकं शुद्धमीषल्लोहितपीतकम्।

यन्नाशे नियतं नाशो यस्मिंस्तिष्ठति तिष्ठति।।

निष्पद्यन्ते यतो भावा विविधा देहसंश्रया:। (अ.हृ.सू. 11/37,38)

अथौजोविज्ञानम्, तस्यापि मलत्वात्। वक्ष्यति हि (हृ.शा.अ.3/63)‘कफ: पित्तं मला: खेषु प्रस्वेदो नखरोम च। स्नेहोऽक्षित्वग्विशामोजो धातूनां क्रमशो मला:।।’ इति। यत्तुक्तं सङ्ग्रहे (शा.अ.6)- ‘शुक्रस्य सार ओज:। अत्यन्तशुद्धतया चास्मिन् मलत्वाभाव:। अन्ये पुनरत एव तस्य नेच्छन्ति पाकम्।’ इति। तन्नरशरीरचरशुक्रविषयम्। यत्तु सम्भोगादङ्गनागर्भाशयगतमार्तवेनैकत्र लोलीभूतं जीवाधिष्ठितं शुक्रं, तस्य पाकाद्रसादिवन्मलसारौ स्त:। तत्र मल ओज:, सारो गर्भ:। वक्ष्यति हि (हृ. शा. अ. 3/63)-ष्रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदस्ततोऽस्थि च। अस्थ्नो मज्जा तत: शुक्रं शुक्राद्गर्भ: प्रजायते।।’ इति। मलत्वं च गर्भापेक्षया, रसाद्यपेक्षया तु साआत्वमेवेति। अत एवाह चरक: (सू. अ. 3/9) सङ्ग्रहे च सू.19)-‘यत्सारमादौ गर्भस्य यच्च गर्भरसाद्रस:। संवर्तमानं हृदयं समाविशति यत्पुरा।। यच्छरीररसस्नेह: प्राणा यत्र प्रतिष्ठिता:।’ इति। न चैवमोजोनेकत्वं वाच्यम् । यदेव हि शुक्रमलरूपमोज:, तदेव गर्भहृदयमनुप्रविष्टमष्टबिन्दुप्रमाणमार्तवानुविद्धत्वादीषद्रक्तपीतं जीवानुविद्धं जीवशोणितमुच्यते। उक्तं च तन्त्रान्तरे-‘प्राणाश्रयस्यौजसोऽष्टौ बिन्दवो हृदयाश्रिता:।’ इति। तथा चरकोऽपि (सू.अ.17/74)- ‘हृदि तिष्ठति यच्छुद्धं रक्तमीषत्सपीतकम्। ओज: शरीरे व्याख्यातं तन्नाशान्म्रियते नर:।।’ इति। तदेवाहाररसेन समानगुणत्वादाप्यायितमर्धाञ्जलिपरिमाणं सर्वदेहव्यापि रसात्मकमुच्यते। यद्वक्ष्यति (हृ.शा.अ. 3/18)-‘दशमूलशिरा हृत्स्थास्ता: सर्वं सर्वतो वपु:। रसात्मकं वहन्त्योजस्तन्निबद्धं हि चेष्टितम्।’ इति। खारणादिरप्याह ‘रसधातो: परं धाम पच्यमानात्प्रसीदति। सौम्यस्वभावं रक्ताग्रे यत्तदोज: प्रकीर्तितम्।।’ इति। तदेव सर्वान् धातूननुप्रविष्टं तेषां प्रभावातिशयमादधानं तत्तेज उच्यते। यदाह सुश्रुत: (सू.अ. 15/23)- ‘रसादीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत्परंतेज: तदोजस्तद्बलमित्युच्यते।’ इति। तदेव पुन: पाकाच्चामीकरमिवापेतोपाधिमलमत्यन्तं शुक्रसार उच्यते। तस्माच्छुक्रमलरूपं मूलभूतमेवाज इति स्थितम्। यत्तूक्तं चरकेणा (सू. अ. 17/115) -‘प्राकृतस्तु बलं श्लेष्मा विकृतो मल उच्यते। स चैवोज: स्मृत: काये’ इति। तदोजो हेतुत्वात् श्लेष्मण ओजस्त्वम्, आयुर्घृतमितिवत्। एतेनैतदुपपन्नम्। ‘धातूनां तेजसि रसे तथा जीवितशोणिते। श्लेष्मणि प्राकृते वैद्यैरोज:शब्द: प्रकीर्तित:।।’ इति। ओजसो मलत्वेऽपि पृथक्वथनं प्राधान्यख्यापनार्थम्। प्राधान्ये हेतुमाह-ओजस्त्विति। ओज: पुन: परं-प्रधानं स्मृतम्। तद्धि शुक्रान्तानां धातूनां परं तेज:। शुक्रान्तानां ग्रहणं सर्वधातुप्राप्त्यर्थम्। तथा, हृदयस्थम्। न केवलं तत्स्थं व्याप्यपि। देहस्थितिनिबन्धन,- देहस्य स्थितयो-नानावस्था:, तासां निबन्धनं-कारणम्। कारणत्वमेव विवृणोति-यन्नाश इति। (अ.हृ.सू. 11/37,38 पर आयुर्वेदरसायनम्)

ओज तथा बल यद्यपि एक नहीं है क्योंकि ओज से बल की उत्पत्ति होती है। अत: ओज कारण है, बल कार्य है, तथापि कार्य और कारण में अभेद से ओज ही बल कहलाता है।

तत्र बलेन स्थिरोपचितमांसता सर्वचेष्टास्वप्रतिघात: स्वरवर्ण प्रसादो

बाह्यनामाभ्यन्तराणां च करणानामात्मकार्य प्रतिपत्तिर्भवति। (सु.सू. 15/20)

बलस्य प्राकृतं कर्म निर्देष्टुमाह-तत्र बलेनेत्यादि। स्थिरोपचितमांसतेति एतत्सर्वधातुसारोपचयलक्षणेन बलेनय सर्वचेष्टास्विति कायवाङ्मनोव्यापारेषु, अप्रतिघातोऽप्रतिहतशक्तित्वम्, एतद्भारहरणादिशक्तिलक्षणेन बलेनय स्वरवर्णप्रसाद इति प्रसादो नैर्मल्यम्य एतदुभयात्मकेन बलेन। बाह्यानामित्यादि। बाह्यानां करणानां कर्मेन्द्रियाणाम्, आभ्यन्तराणां बुद्धीन्द्रियाणाम्। आत्मकार्यप्रतिपत्ति: स्वकीयकार्यावबोधो भवतिय ‘प्रतिपत्तिरत्रानुष्ठानम्’ इत्यन्ये। तत्र बाह्यानां वाक्पाणिपादपायूपस्थानामात्मकार्याणि वचनादानगमनविसर्गानन्दनानि, आभ्यन्तराणां करणानां श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वानासिकानामात्मकार्याणि शब्दस्पर्शरूपरसगन्धग्रहणानि; एतदप्युभयात्मकेन बलेन। केचिदन्यथा व्याख्यानयन्ति- ‘बाह्यानां श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वानासिकावाक्पाणिपादपायूपस्थानाम् आभ्यन्तराणां मनोबुद्धिप्रभृतीनां, बलकारणभूतमोज:’ इति ।। (सु.सू. 15/20 पर डल्हण)

दोषो का निग्रह (Immunity)

बल से मांस की स्थिरता तथा पुष्टि होती है।

सब प्रकार की चेष्टाओं के लिए शक्ति प्राप्त होती है।

स्वर तथा वर्ण में प्रसन्नता आती है तथा

बल से ही बाह्य इन्द्रियां (कर्मेन्द्रियां) तथा आभ्यन्तर (ज्ञानेन्द्रियां) अपने-अपने कार्य में प्रवृत होती है।

स्थिरोपचितमांसता

सर्वचेष्टास्वप्रतिघात

 

ओज का व्याधिक्षमत्व कर्म-

बल ही दोषों के निग्रह (नष्ट करने) में समर्थ होता है अर्थात् ओज शरीर के विकारों को रोकने तथा नष्ट करने में समर्थ है। यह ओज का प्रधान कार्य है। इसके द्वारा शरीर की अपक्षय (Erosion), व्यपजनन (Degeneration) तथा उपसर्गों (infections) से रक्षा होती है।

               अक्षेत्रे बीजमुत्सुष्टमन्तरेव विनश्यति। (मनुस्मृति)

ओज का मुख्य कर्म (कार्य) शरीर में व्याधिक्षमत्व अर्थात् रोग के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास करना है।

चरकानुसार हमारे शरीर में रोग के समय उपस्थित जीवाणुओं तथा विषाणुओ का मुख्य भोजन ओज है।

बलं ह्यलं दोषहरं (निग्रहाय दोषाणाम्)     (च.चि. 3/161)

बल ही दोषों के निग्रह (नष्ट करने) में समर्थ होता है अर्थात् ओज शरीर के विकारों को रोकने तथा नष्ट करने में समर्थ है। यह ओज का प्रधान कार्य है। इसके द्वारा शरीर की अपक्षय (Erosion), व्यपजनन (Degeneration) तथा उपसर्गों (infections)  से रक्षा होती है।

–              रजनीचर (जीवाणु) ओज के अतिरिक्त वे शरीर को नहीं खाते हैं। उपरोक्त कथन के अनुसार शरीर को हानि पहॅचाने वाले जीवाणु आदि ओज को नष्ट करने की चेष्टा करते है। ओज तथा इन राक्षसों (हानिकारक जीवाणुओं) में संघर्ष होता है। यदि जीवाणु प्रबल हैं, तो शरीर में ओज का नाश होकर शरीर की व्याधिक्षमत्व शक्ति (Immunity) नष्ट हो जाती है। और शरीर में व्याधि प्रबल हो शरीर को नष्ट कर देती है।

यह वर्णन आधुनिक विज्ञान सम्मत है। शरीर में प्रतिजन (antigen) रजनीचर तथा प्रतिकाय (Antibody) ओज में संघर्ष होता है। ओज (antibodies-प्रतिकाय) के इस कार्यरूपी बल का नाम ‘‘व्याधिक्षमत्व’’ है। ओज शरीर को व्याधिक्षमत्व शक्ति प्रदान करता है। बल सभी व्यक्तियों में एक समान नहीं होता है। अत: व्याधिक्षमत्व शक्ति भी एक समान नहीं होती है।

‘‘न च सर्वाणि शरीराणि व्याधिक्षमत्वे समर्थानिभवन्तिा।     (च.सू. 25/5)

सब व्यक्ति व्याधिक्षमत्व में एक समान नहीं होते है।

‘‘त्रिविधं बलमिति सहजं कालाजं युक्ति कृतं च।’’(च.सू. 11/36)

तीन प्रकार के बल माने गये है-

(1) सहज बल, (2) कालज बल तथा (3) युक्तिकृत बल।

 

सहज बल (Inborn or natural)

ये स्वाभाविक शारीरिक और मानसिक बल होता है। धातुओं की वृद्धि से यह बल बढ़ता है। ये आनुवंशिक (Genetically) होता है।

ये जन्म से ही उत्पन्न होता है। जैसे शरीर से बलवान और मन से दुर्बल पुरूष से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह शरीर से बलवान और मन से दुर्बल होती है। शरीर से दुर्बल, पर सत्वसार अर्थात मन से सबल पुरूष से उत्पन्न होने वाली सन्तान शरीर से निर्बल और मन से सबल होती है। शरीर और सत्व के अनुसार यह बल स्वाभाविक होता है। यह सभी पुरूषां में समान नही होता है।

कालज बल (Seasonal resistance)

काल तथा वय आदि के प्रभाव से शरीर को जो बल प्राप्त होता है वह कालज बल है।

यह वय, ऋतु तथा काल के अनुसार होता है। यह भी सभी व्यक्तियों में एक जैसा नहीं होता है।

आदानकाल (शिशिर, बसन्त, ग्रीष्म) में क्रमश: प्राणियों का बल श्रेष्ठ, मध्यम, अल्प होता है। विसर्गकाल (वर्षा, शरद, हेमन्त ऋतु) में क्रमश: प्राणियों का बल अल्प, मध्यम, श्रेष्ठ होता है।

मनुष्यों की आयु भी उसे प्रभावित करती है। युवावस्था में जो सभी के शरीर में जो बल की अधिकता होती है वह कालज बल ही है।

युक्तिकृत बल (Aquired immunity)

वह बल जिसे शरीर में घृत-दुग्ध आदि पौष्टिक आहार, व्यायाम तथा वाजीकरण एवं रसायन औषधों का सेवन करके बढ़ाया जाता है।

आहार विहार तथा चेष्टाओं क्षरा उपार्जित बल युक्तिकृत बल है। यह भी सब व्यक्तियों में एक समान नहीं होता है।

आहार- घृत, तेल, दूध, मांसरस, फल ये पदार्थ बल को बढ़ाते है।

चेष्टा- प्राणायाम, आसन, व्यायाम और शुद्धवायु सेवन

योग- रसायन, वाजीकरण योग जो कि व्याधिक्षमत्व को बढाते है।

अन्य- ब्रह्मचर्य, निद्रा, विश्राम आदि

 

ओज की शरीर मे मात्रा या परिमाण –

अर्धांजलि: श्लेष्मणश्चौजस:।।  (च.शा. 7/16)

शरीर से श्लैष्मिक ओज का परिमाण अर्ध अंजलि होता है।

यह परिणाम श्लैष्मिक (अपर) ओज का है। चरक संहिता में हृदय में आश्रित ओजकी संज्ञा ‘‘पर ओज’’ दी है।

तत्परस्यौजस: (च.सू. 30/6)

चरक संहिता के टीकाकार चक्रपाणिदत्त ने तन्त्रान्तर मत उल्लेख करते हुए कहा है कि हृदय में प्रधान ओज रहता है। इसे ‘पर’ ओज कहते है। इसका शरीर में परिमाण केवल आठ बूंद है तथा धमनियों में संचरित होने वाला अप्रधान ओज ‘अपर ओज’ है। इसका परिमाण अर्धांजलि है। ‘पर ओज’ के नष्ट होने से जीवन नष्ट हो जाता है क्यों कि वह जीवन का आधार है। ‘अपर’ ओज के क्षीण होने से ओज क्षय के लक्षण शरीर में प्रकट हो जाते है।

सुश्रुत संहिता के सूत्र (सु.सू.१५/२०)‘रसादीनां सिद्धान्तात्’ पर टीका करते हुए डल्हण ने कहा है कि –

तन्त्रान्तरे तु ओज: शब्देन रसोऽप्युच्यते, जीवशोणितमप्योज:

शब्देनामनन्ति केचित्, उष्माणमप्योज: शब्दादपरे वदन्ति।

डल्हण के अनुसार अन्य तन्त्रों में कुछ विद्वान रस को ओज कहते हैं, कुछ अन्य विद्वान जीवशोणित (रक्त) को ओज कहते है। तथा कुछ विद्वान उष्मा को ओज कहते है।

प्राकृतस्तु बल: श्लेष्मा विकृतो मल उच्यते।

स चैवोज: स्मृत: काये स च पाप्मोपदिश्यते।।  (च.सू. 17/115)

प्राकृत (सम) कफ बल कहलाता है तथा विकृत हुआ कफ मल कहलाता है। प्राकृत कफ  ही शरीर में ओज है तथा विकृत कफ  को रोग कहते है।

तस्मिन् काले पचत्याग्निर्यदन्नं कोष्ठमाश्रितम्।

मलीभवति तत्प्राय: कल्पते किंचिदोजसे।।   (च.चि. 8/40)

राजयक्ष्मा के प्रसंग में कहा गया है कि उस समय (जिस समय राजयक्ष्मा उत्पन्न हो जाता है) खाया पिया, अन्नपान जो कोष्ठ में रहता है और जिसको कोष्ठाग्नि पचाती है, प्राय: मल बन जाता है तथा बहुत थोड़ा भाग ही ओज इस (धातु) में परिणत होता है।

इस कथन में ओज को अन्नरस के प्रसादांश के लिए प्रयुक्त किया है क्योंकि अन्नरस से ही समस्त धातुओं के साथ-साथ ओज की उत्पत्ति होती है।

ओजक्षय के कारण 

हृदय, महामूला (ओजवहा) तथा ओज की रक्षा चाहने वाले मनुष्य के मन को दु:ख पहुॅचाने वाले कारणों का विशेष रूप से त्याग करना चाहिए क्योंकि मन को कष्ट पहुॅचाने वाले कारण ओज का क्षय करते है।

वातश्लेश्मक्षये पित्तं देहौज: स्रंसयच्चरेत्।

ग्लानिमिन्द्रिय दौर्बल्यं तृष्णां मूच्र्छां क्रिया क्षयम्।।(च.सू. 17/60)

वात और कफ की क्षीणावस्था से पित्त वृद्धि को प्राप्त होकर शरीर में संचार होता हुआ देह से ओज का क्षरण करता है तथा इस प्रकार ग्लानि, इन्द्रियों की दुर्बलता, तृष्णा, मूच्र्छा तथा क्रियाक्षय (चेष्टा नाश) का कारण होता है। अर्थात् पित्तवर्धक आहार-विहार के अतिसेवन से ओज की उत्पत्ति पर विपरित प्रभाव पड़ता है और इसका क्षय हो जाता है।

‘‘ओज: क्षीयेत कोपक्षुद्ध्यानशोक श्रमादिभि:।’’ (अ.ह.सू. 11/39)

अभिघातात्क्षयात्कोपाच्छोकाद् ध्यानाच्छमात क्षुध:।

ओज: संक्षीयते ह्येभ्यो धातुग्रहणनि: सृतम्।। (सू.सु.15/24)

अभिघात, धातुक्षय, क्रोध, शोक, चिन्ता, सीमा से अधिक परिश्रम तथा अनशन से ओज का क्षय होता है। हृदय से प्रेरित हुआ ओज धातुवाही स्त्रोंतों द्वारा शरीर से क्षरित हो जाता है तथा मनुष्यों को अपने स्वाभाविक कर्मो से वंचित करता है।

 

ओज क्षय के लक्षण-

ओज के क्षीण होने से मनुष्य

शरीर से दुर्बल एवं कृश हो जाता है

अकारण ही डरता है

इन्द्रियों से अपने स्वाभाविक कर्म करने में कठिनाई होती है

निरन्तर चिन्तायुक्त रहता है

शरीर की कान्ति घट जाती है

मन दुर्बल हो जाता है, सोचने विचारने की क्रियायें ठीक प्रकार से नहीं होती है अर्थात् मन: शक्ति (Will Power) कम हो जाती है

शरीर रूक्ष तथा कृश तथा

क्षामस्वर वाला हो जाता है।

‘‘बिभेति दुर्बलोऽभीक्ष्णं ध्यायति व्यधितेन्द्रिय:।

दुश्छायो दुर्मना रूक्ष: क्षामश्चैवोजस: क्षये।। (चरक सू. 17/72)

क्षय प्राप्त ओज के 3 भेद अर्थात Stages

विस्त्रंसन 2. व्यापत् 3. क्षय

 

ओज विस्त्रंसन के लक्षण

विश्लेशसादौ गात्रांणा दोषविस्त्रंसन श्रम:।

उनप्राचुर्यं क्रियाणां च बलविस्त्रंसलक्षणम्।। (सु.सू.15/26)

ओज विस्त्रंसन में

सन्धियों में ढीलापन

अंगों में थकान

दोनों वातआदि दोषों का अपने-अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाना

शारीरिक, मानसिक तथा वाचिक क्रियाओं का ठीक प्रकार से न होना

थोड़े परिश्रम से ही थक जाना आदि लक्षण होते है।

 

ओज व्यापत् के लक्षण

गुरूत्वं स्तब्धताऽङ्गेशु ग्लानिर्वर्णस्य भेदनम्।

तन्द्रा निद्रा वातशोफो बल व्यापदि लक्षणम्।। (सु.सू. 15/27)

ओजोव्यापद् के लक्षण –

शरीर के अंग में गुरूता (भारीपन)

स्तब्धता

वातिक शोफ

वर्ण का अन्यथा भाव हो जाना

ग्लानि

तन्द्रा

निद्रा का अति आना

 

3 क्षय के लक्षण

मूच्र्छा मांसक्षयो मोह: प्रलापोऽ ज्ञानमेव च।

पूर्वाक्तानि च लिंगानि मरणं च बलक्षये।। (सु.सू.15/28)

ओजोक्षय के लक्षण –

मूच्र्छा

मांस आदि धातुओं का क्षय

मोह

प्रलाप

अज्ञान (क्रियाओं का ज्ञान न होना)

विस्त्रंस तथा व्यापद् के लक्षणों का भी होना तथा

मृत्यु

ओजक्षय अथवा बलक्षय की उपरोक्त तीन अवस्थायें होती है। प्रारम्भ में विस्त्रंस के लक्षण शरीर में प्रकट होते है यदि उस समय उपचार नहीं किया तो व्यापद् के लक्षण तथा इसमें भी  ध्यान नहीं दिया गया तो क्षय के लक्षण प्रकट हो जाते है तथा रोग साध्य से असाध्य की ओर बढ़ जाता है।

 

क्षीण ओज की चिकित्सा –

‘‘तत्र विस्त्रंसे व्यापन्ने च क्रियाविशेषैरविरूद्धैर्बलमाप्याययेत, इतरं तु मूढसंज्ञम् वर्जयेत्। (सु.सू. 15/19)

विस्त्रंस तथा व्यापद् की अवस्था में ओजोनुकूल विशेष क्रियाओं द्वारा बल को बढ़ाना चाहिए तथा क्षयावस्था के मूढसंज्ञलक्षण वाले व्यक्ति को असाध्य समझकर छोड़ देना चाहिए।

‘‘दोषधातुमलक्षीणो बलक्षीणोऽपि वा नर:।

स्वयोनिवर्धनं यत्तदन्नपानं प्रकांक्षति।।

यद्यदाहारजातं तु क्षीण: प्रार्थयते नर:।

तस्य तस्य स लाभे तु तं तं क्षयमापोहति।। (सु.सू. 15/30, 31)

‘दोषक्षीण धातुक्षीण मलक्षीण तथा बल (ओज) क्षीण व्यक्ति स्वयोनि वर्धन (उनको बढ़ाने वाले) अन्नपान की इच्छा किया करता है।

ऐसा व्यक्ति जिस आहारादि की इच्छा करता है, उसके सेवन से लाभ होता है तथा क्षय का नाश हो जाता है।

हृदय के लिए हितकर, ओजवर्धक तथा स्त्रोतों (ओजोवहो) को प्रसन्न करने वाले आहार-विहार का सेवन तथा शांति और ज्ञान का उपयोग करना चाहिए।

हृद्यं यत् स्याद्यदौजस्यं स्त्रोंतसां यत् प्रसादनम्।

तत्तत् सेव्यं प्रयत्नेन प्रशमो ज्ञानमेव च।। (च.सू.30/13)

 

ओज का पोषण-

ओज का पोषण अन्य धातुओं के समान अन्नरस से होता है। आहार के प्रसादांश रस के शुक्र पर्यन्त स्रातों धातुयें तथा ओज पुष्ट होता है अर्थात् ओज का पोषण एवं क्षयपूर्ति धातुओं के समान, अन्न रस से होती है।

 

ओज का पोषण ओज का अन्य धातुओं के समान अन्नरस से होता है।

पुयन्ति त्वाहाररसान् रसरूधिर मांसमेदोस्थिमज्जशुक्रौजांसि।। (च.सू. 28/3)

आहार के प्रसादांश रस से शुक्र पर्यन्त सातों धातुएँ तथा ओज पुष्ट होता है अर्थात् ओज का पोषण एवं क्षयपूर्ति धातुओं के समान, अन्न रस से होती है।

 

ओज/बल वृद्धि कारक द्रव्य-

वनस्पति उद्गम से-

शुक धान्य वर्ग- यव

शालि धान्य वर्ग- गोधूम (गेहूं)

शमी धान्य वर्ग- माश, तिल

फलों से -उपोदिका, खजूर, अंगुर, दुध, इक्षुरस

जांगम उद्गम से-

दूध, घृत, प्रसह वर्ग का मांस,

जीवनीयौशधक्षीररसाद्यास्तत्र भेाजम्।

ओजोविवृद्वौ देहस्य तुष्टिपुष्टिबलोदय:।। (अ.ह.सू. 11/41)

ओज की क्षीणता में जीवनीयगण औषधों में सिद्ध किये दूध, घृत का सेवन करना चाहिए।

ओज को क्षीण नहीं करना चाहिए वरन् वृद्धि के लिए सदैव प्रयत्नवान रहना चाहिए।

तालिका संख्या-8: विभिन्न आचार्यो द्वारा किये गये ओज के वर्णन  की तुलना

आचार्य रूप गंध स्पर्श रस कार्य स्वरूप  
चरक रक्त, ईशत पीत, सर्पी वर्ण लाजागंधी शीत, मृदु श्लक्षण, स्निग्ध गुरू, प्रसन्न मधुर सर्वधातुसार, प्राणाश्रय, जीवनुबंध्य, मनोबल का हेतु।
सुश्रुत शुक्ल, पीताभ स्निग्ध, शीत, गुरू, स्थिर, सर, मृत्स्न, मृदु मधुर धातु स्नेह भूत, आत्माकार्यकर,  प्राणायतन, शरीरबल
वाग्भट्ट ईशतलोहिता पीतकम् स्निग्ध, सोमात्माकम् धातुसार, शुक्रमल, धातु तेज, जीवशील श्लेष्मा, देहस्थिति, निबन्धन, सर्वव्यापी हृदयस्थ।
अष्टांग संग्रह शुक्रसार
डल्हण श्वेत वर्ण, तैल वर्ण, क्षोद्र वर्ण उष्मा, जीवशोणित

 

 

 

This Post Has 6 Comments

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