अध्याय 11 अग्नि (Agni)

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11.1 अग्नि शब्द की व्युत्पत्ति

  1. संस्कृत हिन्दी शब्द कोष में ‘‘अंगति ऊर्ध्वं गच्छति’’ अगि नि न लोपश्च । अग्नि शब्द की व्युत्पत्ति बतलाई गई है ।
  2. शब्दकल्पद्रुम के अनुसार अग्नि शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘अगिगतौ’’ धातु से होती है । यद्वा ‘‘अंगति ऊर्ध्वं गच्छति इति अग्नि’’ अर्थात् जिसका सदैव ऊर्ध्वगमन स्वभाव हो उसे अग्नि कहते हैं । (शब्दकल्पद्रुम पृ. 8)
  3. ‘‘अंगति ऊर्ध्वं गच्छति इति अग्निः’’ अगि, नि, न लोपः त्र अग्नि (वाचस्पत्यम् पृ. 48)। इसमें भी अग्नि को ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला बतलाया है।
  4. अमरकोष में ‘‘अगि गतौ’’ धातु से अग्नि की व्युत्पत्ति बताई है । अंगति – अगिगतौ (भ्वा. प. से) अंगेर्नलोपश्च (उ. 4/50) इति- निर्नलोपश्च । (अमरकोष पृ. 25/53 श्लोक)
  5. हलायुध कोष पृष्ट 107 पर – अग्नि – पुं. ‘‘अंगयन्ति अग्य्र जन्म प्रापयन्ति इति व्युत्पत्या हविः प्रक्षेपाधिकरणेषु ………………षड़ाग्निषु।

यद्वा अंगति ऊर्ध्वं गच्छति इति । ’’अगिगतौ, अंगेर्नलोपश्चेति नि नलोपश्च’’ तेजः पदार्थ विशेषः ।

उपर्युक्त व्युत्पत्तियों के आधार पर अग्नि के ऊर्ध्वगमनशील स्वभाव एवं सर्वव्यापकता का बोध होता है ।

11.2 अग्नि शब्द की निरुक्ति एवं परिभाषा

अग्नि संस्कृत भाषा का शब्द है यह ‘‘व्यापक’’ अर्थ रखने वाले ‘अगि’ व्याप्तौ’ धातु से (अंगति व्याप्नोति इति अग्नि) या ‘अंग’ धातु से बना हुआ माना जाता है । इस दृष्टि से अग्नि का अर्थ हुआ- सर्व व्याप्त रहने वाला पदार्थ या प्रगतिशीत वस्तु ।

‘‘अंगति ऊर्ध्वं गच्छति इति अग्निः’’ अर्थात् जो व्याप्त रहते हुए भी ऊर्ध्वगामी स्वभाव वाली होती है उसे अग्नि कहा जाता है ।

11.2.1 क्रिया शारीर में अग्नि परिभाषा

अग्नि, देहाग्नि या कायाग्नि का पूर्ण और स्पष्ट रूप ‘‘पित्तोष्मा’’ शब्द से प्रकट होता है। ‘पित्तोष्मा’ अर्थात् पित्त द्रव्य और ऊष्मा का समवेत रूप । देह जगत में इसी पित्तोष्मा को अग्नि कहा गया है ।

पित्तोष्मा या अग्नि का अर्थ होता है – सजीव देह में रासायनिक क्रियाओं के लिए उत्तरदायी आग्नेय प्रकृति के प्राणिज द्रव्य और इनकी क्रिया के लिए अपेक्षित ताप। ये जीवरसायन द्रव्य या प्राणिज अग्नि द्रव्य प्रायः सूक्ष्म हैं और पित्त के अन्तर्गत हैं –

‘अग्निरेव शरीरे पित्तान्तर्गतः शुभाशुभानि करोति ।’’    (च.सू. 12/11)

‘पित्तान्तर्गत’ इति वचनेन शरीरे ज्वालादियुतवन्हिनिषेधेन पित्तोष्मरूपस्य वन्हेः सद्भावं दर्शयति । (च.सू. 12/11 की टीका में चक्रपाणिदत्त)

11.3 अग्नि शब्द के पर्याय (Synonyms of Agni)

वैश्वानर, सर्वपाक, तनूनपात, अमीवचातन,   दमूनस, शुचि, विश्वम्भर

11.4 अग्नि का स्थान (Location of Agni)

11.5 अग्नि के प्रकार (Classification of Agni)

11.5.1 अधिष्ठानानुसार अग्नि भेद (Type of Agni according location)

(1) जठराग्नि (Jatharagni) जठराग्नि को उसकी कार्मुकता एवं स्वरूपात्मक दृष्टि से – जठराग्नि, औदर्याग्नि, कोष्ठाग्नि कायाग्नि, दोहाग्नि, अन्तरग्नि, पाचकाग्नि एवं अग्नि तथा पाचक पित्तादि नामों से विभिन्न स्थलों पर संबोधित किया है।
प्राणियों के जठर में विद्यमान जठराग्नि पर चिकित्सा क्षेत्र में विशेष विचार हुआ है क्योंकि यह अग्नि देह की अन्य अग्नियों में प्रमुख है।
‘‘लोक साम्मितोऽयं पुरूष:’’ के अनुसार जिस प्रकार विश्व ब्रह्माण्ड में ‘अग्नि’ व्याप्त है, उसी प्रकार देह पिण्ड में भी है, जिसका केन्द्र ‘जठर (उदर)’ है।
पाचकाग्नि या जठराग्नि आहार का, आहार रस का और आहार रस से पृथक् किये गये मलों का पचन करती है। पचाते समय यह आहार से किट्ट रूप दोषों को, अन्न रस को, क्लेद को और अन्न मल को पृथक-पृथक करती है। पाचकाग्नि द्वारा आहार का संघात भेद होकर अर्थात् पर्थिव, आप्य, आदि अंश पृथक् होकर और पचकर, पचन की प्रक्रिया पूरी होती है, इसके परिणाम स्वरूप ‘‘आहार रस’’ बनता है, पाचकाग्नि और समान वात के सहकार में इस रस का उप शोषण किया जाता है और यह रस पच्यमानाशय से भीतर देह में पहुंचता है।

आहार ——————> अन्न रस + क्लेद + अन्न मल
पाचन सामथ्र्य के अनुसार बल-भेद से जठराग्नि के चार भेद किये हैं यथा – समाग्नि, विषमाग्नि, मन्दाग्नि, तीक्ष्णाग्नि; जिनका परिचय इसी अध्याय में ‘‘बल भेद से अग्निभेद’’ के अन्तर्गत किया जायेगा।

(2) भूताग्नि (Bhootagni) :
भूताग्नियां पंचमहाभूतों से निर्मित इस जगत के भौतिक पदार्थों में सन्निविष्ट हैं। चिकित्सा से सम्बद्ध औषध द्रव्य, आहार द्रव्य और शरीर अवयव, इन सबके भौतिक होने के कारण इनमें स्वभावत: भतूाग्नियों का सन्निवेश है। शरीर क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में, शारीर भाव और इनका निर्माण करने वाले आहार पदार्थ इन दो का विशेष महत्व है, क्योंकि आचार्य चरक ने कहा है कि शरीर आहार द्रव्यों का ही परिवर्तित रूप है।
‘‘आहार संभवं वस्तु’’ (च.सू. 28/59)
आहारद्रव्यगत अग्नियां ही भौतिक अग्नियां हैं। ये आहार के साथ-साथ ही हमारे उदर में जाती हैं। इन अग्नियों का ही यह प्रभाव है कि शरीर के पार्थिव, आप्य आदि अंश, प्रतिक्षण संघटित, विघटित होते हुए नित्य नवीन रूप लिए रहते हैं और यथापूर्व दिखाई पड़ते हैं। भूताग्नियां यद्यपि खाद्य पेय आदि द्रव्यों में स्थित हैं, परन्तु इनकी क्रियायें हमारे देह के भीतर इन द्रव्यों के पहुंचने के उपरान्त विशेष-विशेष समय पर होती है। भूताग्नियां पांच होती हैं –
भौमाग्नि, आप्याग्नि, आग्नेयाग्नि, वायव्याग्नि, आकाशग्नि ।
‘‘भौमाप्याग्नेयवायव्या: पंचोष्माण: सनाभसा: ।
पंचाहारगुणान्स्वान्स्वान्पार्थिवादीन्पचन्ति हि ।।’’ (च.चि. 15/13)
भूताग्नियां अर्थात् भौमाग्नि, आप्याग्नि आदि अग्नियां अन्नरसगत पार्थिव जलीय आदि आंशिक द्रव्यों का पचन करके उस आहार रस में अपने अपने भौतिक गुणों को जन्म देती हैं। अर्थात् आहार का संघात भेद होकर इसका प्रारंभिक पचन तो पाचकाग्नि से होता है, परन्तु इस पचन के उपरान्त रूप परिवर्तन होकर जब वह आहार, आहार रस में परिणित हो चुका होता है और आन्त्र द्वारा भीतर उपशोषित होता है, तब भूताग्नियां कार्य करती हैं।
भूताग्नियों का कार्य स्थल ‘कोष्ठ’ (विशेषत: कोष्ठांग रूप यकृत और पित्तधरा कला) हैं। ये अग्नियां पार्थिव, आप्य आदि द्रव्यांशों का पचन करके उनमें अपने अपने भूत गुणों को – मूर्तत्व, काठिण्य, गुरूता, स्नेह, मार्दव, उष्णता, रूक्षता, लघुता, सुषिरता, आदि उत्पन्न कर उन भूतों की अपनी-अपनी विशेषताओं को जन्म देती हैं। आहार रस के साथ-साथ ये भूताग्नियां भीतर रसवह, रक्तवह, पित्त वह आदि स्त्रोतसों तक पहुंचती हैं और आहार रस पर क्रियायें करतीं हैं। फिर रसाग्नि द्वारा इसका पाक होते समय तथा इस रस के रक्त-मांस भेद आदि धातुओं में पहुंचने पर ये भूताग्नियां पुन: क्रियाशील होती हैं और वहां भी अपने अपने अंशों को पचाते हुए धातुकणों को तथा उन धातुओं में विद्यमान भौतिक गुणों को समृद्ध सम्पुष्ट करती हैं।

(3) धात्वाग्नि (Dhatvagni) :
धात्वग्नि देह की उन सात धातुओं में स्थित हैं जिन्हें – रस, रक्त, मांस, भ्ेाद, अस्थि, मज्जा, शुक्र इन सात श्रेणियों में विभक्त किया गया है। इन धातुओं का स्वरूप एवं विशेषतायें पृथक्-पृथक् हैं। इन धातुओं का अपना निर्माण और इनके मलों का निर्माण आदि कार्य इनकी अलग-अलग अग्नि द्वारा होते हैं। इस प्रकार इन सबकी अपनी-अपनी स्वतंत्र अग्नि है। सात धात्वग्नियों में रसाग्नि, रक्ताग्नि, मांसाग्नि, भेदोग्नि, अस्थ्यग्नि, मज्जाग्नि, शुक्राग्नि की गणना है। रसाग्नि, रक्ताग्नि आदि आग्नियों की क्रिया से उक्त रस का प्रसादपाक और मलपाक होकर नवीन धातुओं का संघटन एवं जीर्ण अंशों का विघटन होता है। पूर्वधातु की अपेक्षा उत्कृष्टतर उत्तर धातु के निर्माण कारक अंश भी उसमें प्रस्तुत किये जाते हैं।

11.5.2 अग्निबलानुसार अग्नि भेद (Type of Agni according strength)

बलानुसार विचार करने पर पाचकाग्नि के मुख्यत: चार भेद हैं –
1. विषमाग्नि 2. तीक्ष्णाग्नि 3. मन्दाग्नि 4. समाग्नि
‘‘प्रागभिहितोऽग्नि रन्नस्य पाचक:। स चतुर्विधो भवति-दोषानभिपन्न एक:। विक्रियामापन्न त्रिविधो भवति- विषमो वातेन, तीक्ष्ण: पित्तेन, मन्द: श्लेष्मणा चतुर्थ: सम:सर्वसाम्यादिति। (सु.सू. 35/28)
आचार्य चरक ने – ‘‘अग्निषु तु शरीरेषु चतुर्विधो विशेषोवलभेदेन भवति तद्यथा-तीक्ष्णों, मन्द: समो, विषमश्चेति।
सभी आचार्यों ने पाचकाग्नि के चार भेद माने हैं, जिनमें तीन भेद वैकृत अग्नि के तथा एक भेद प्राकृत अग्नि का माना है।

तालिका: अग्निबलानुसार अग्नि के भेद

अग्निभेद दोष प्राधान्य रोग
बैकृत अग्नि-3    
1. विषमाग्नि वात दोष से विविध वात रोग
2. तीक्ष्णाग्नि पित्त दोष से विविध पित्त रोग
3. मन्दाग्नि कफ दोष से विविध कफ रोग
प्राकृत अग्नि-1    
4. समाग्नि तीनों दोषों की साम्यता से  

11.5.2.1 अग्निबलानुसार अग्नि के भेद का दोषो से सम्बन्ध (Relation between Agni and Dosha)

आचार्य चरक के अनुसार ये चार अग्नियां चार प्रकार के पुरूषों में होती हैं, जिनमें वात दोष से – विषमाग्नि, पित्त दोष से – तीक्ष्णाग्नि, कफ दोष से मन्दाग्नि तथा तीनों दोषों की समानता से समाग्नि होती है।
अग्निषु तु शारीरेषु चतुर्विधो विशेषो बलभेदेन भवति। तद्यथा-तीक्ष्णो, मन्द:, समो, विषमश्चेति। (च.वि. 6/12)
दोषभेदविकारभेदमभिधाय शरीरस्थिते: प्रधानकारणस्याग्नेर्भेदमाह. अग्निष्वित्यादि। शारीरेष्विति सामान्यवचनेन सर्वशरीरगतानग्नीन् ग्राहयति, विवरणे तु जठराग्नेरेव (च.वि. 6/12 पर चक्रपाणि)
प्रागभिहितोऽग्निरन्नस्य पाचक:। स चतुर्विधो भवति. दोषानभिपन्न एक:, विक्रियामापन्नस्त्रिविधो भवति- विषमो वातेन, तीक्ष्ण: पित्तेन, मन्द: श्लेष्मणा, चतुर्थ: सम: सर्वसाम्यादिति। (सु. सू. 35/24)
अग्निपरीक्षां निर्दिशन्नाह- प्रागित्यादि। प्राक् व्रणप्रश्ने। पञ्चप्रकारो भ्राजकादिभेदेन। कथं पुनश्चतुर्विध इत्याह- दोषेत्यादि। दोषाभिपन्नो दोषै: प्राप्त एक एवाग्निर्विक्रियामापन्नस्त्रिविधो भवति- विषम इत्यादि। विषमो वातेन, तीक्ष्ण: पित्तेन, मन्द: श्लेष्मणा, अनेन प्रकारेणेत्यर्थ:; चतुर्थ: सम: सर्वसाम्यादिति। ननु, दोषाभिपन्नत्वेनैव विक्रियामापन्न इति प्राप्यते, तत् किमर्थं विक्रियामापन्न इत्युक्तं? नैष दोष:, वातादिकप्रकृतीनां पुरुषाणां वातादिदोषाभिपन्नत्वं भवति, न च विक्रिया काचिद्भवतीति। तेषां चतुर्णामग्नीनां। लक्षणमाह- तत्रेत्यादि। (सु. सू. 35/24 पर डल्हण)
अर्थात दोषो के सम रहने पर समाग्नि , कफ की वृद्धि से मंदाग्नि, पित्त की अधिकता से तीक्ष्णाग्नि एवं वात की वृद्धि से विषमाग्नि ऐसा सामान्यत: होता है।
परन्तु आचार्य वाग्भट लिखते है कि –
जाठराग्निमधुना चतुर्विधं वक्ति ….
सम: समाने स्थानस्थे विषमोऽग्निर्विमार्गगे।
पित्ताभिमूच्र्छिते तीक्ष्णो मन्दोऽस्मिन्कफपीडिते।। (अ.हृ.शा. 3/73)
समाने वायौ स्थानस्थे-स्वाशयस्थिते सति, समोऽग्निर्भवति। विमार्गगे-मार्गमुज्झित्वोत्पथप्रवृते समाने सति, विषमोऽग्निर्भवति। पित्तेनाभिमूच्र्चिते-एकलोलीभूते समाने, तीक्ष्णोऽग्निर्भवति। अस्मिन्-समाने, कफपीडिते-श्लेष्माभिभूते, मन्दोऽग्निर्भवति। (अ.हृ.शा.3/73 पर अरूण दत्त)
अर्थात –
यदि समानवायु अपने स्थान में हो तो – समाग्नि
समान वायु के विमार्ग गमन को – विषमाग्नि
समान वायु के कफ से पीडि़त होने पर – मन्दाग्नि
एवं समान वायु का पित्त से मूच्र्छित होना – तीक्ष्णाग्नि का कारण माना है।
उपरोक्त चारो प्रकार की अग्नि का परिचय निम्न प्रकार है –

1. समाग्नि (Samagni) :
यदि युक्त अर्थात् समाग्नि पुरुष होता है तो यह अग्नि उचित मात्रा में सेवन किये हुए आहार को पचाकर धातुओं को समरूप बनाये रखती है ।
युक्तं भुक्तवतो युक्तो धातुसाम्यं समं पचन् । (च.चि. 15/51)
अग्निप्रसङ्गात् समाग्ने: कार्यमाह-युक्तमित्यादि। युक्त इति सम:। युक्तमन्नं पचन् धातुसम्यं करोतीत्यर्थ:। समशब्देन समानो वायुरग्निसहायो गृह्यते। किंवा युक्तवायुतया धातुसाम्यं करोति, युक्तशब्देन च कफपित्तसाम्यमग्नौ गृह्यते। यत: ‘सम: समै:’ (वा.सू.1) इति वचनेन दोषाणं समत्वेनैव समाग्नित्वमुक्तम्। (च.चि. 15/51 पर चक्रपाणि)
आचार्य चरक ने उचित मात्रा को महत्व दिया है जबकि आचार्य सुश्रुत ने यथा काल को महत्व दिया है ।
तत्र, यो यथाकालमुपयुक्तमन्नं सम्यक् पचति स सम:, समैर्दोषै:; (सु. सू. 35/24)
यथाकालमिति कालस्यानुल्लङ्घनेन। प्रथमं प्रकृति: प्रकृतेरनन्तरं विकृतिरिति ज्ञापनार्थं प्रथमं व्यत्ययेन समाग्निलक्षणमुक्तं- य इत्यादि। (सु. सू. 35/24 पर डल्हण)
तीनों दोषों का प्रभाव जब समान तथा उचित होता है, तो जठराग्नि की क्रिया भी प्राकृत होती है । इसी को समाग्नि की अवस्था कहते हैं।
समा समाग्नेरशितामात्रा सम्यग्विपच्यते । (मा.नि. 6/3)
यह शेष अग्नियों में श्रेष्ठ है तथा बल, वर्ण, आयु आदि की वृद्धि करने में प्रधान होती है । अत: समाग्नि में यथाकाल, उचितमात्रा तथा उचित रूप में आहार-विहार करने से अपनी प्रकृति में रहती है ।
समस्तु खल्वपचारतो विकृतिमापद्यतेऽनपचारतस्तु प्राकृताववतिष्ठते। … … .. .. .. तत्र समवातपित्तश्लेष्मणां प्रकृतिस्थानां समा भवन्त्यग्नय: (च.वि. 6/12)
प्रकृतिशब्दस्य कारणाद्यनेकार्थताव्युदासार्थं समवातपित्तश्लेष्मणामिति कृतम्। (च.वि. 6/12 पर चक्रपाणि)
2. मन्दाग्नि (Mandagni) :
तद्विपरीतलक्षणस्तु मन्द:. . . . . . . . . . श्लेष्मलानां तु श्लेष्माभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने मन्दा भवन्त्यग्नय:।। (च.वि. 6/12)
तद्विपरीतलक्षण इति स्वल्पापचारमपि यो न सहते, स मन्द इत्यर्थ:। (च.वि. 6/12 पर चक्रपाणि)
तीष्णाग्नि से विपरीत गुण वाली अग्नि मंदाग्नि कहलाती है, अर्थात जो थोडा भी अपचार सहन न कर सके, ऐसी अग्नि मंदाग्नि होती है। जब अग्नि के अधिष्ठान के श्लेष्मा से अभिभूत हो जाते है, तब मंदाग्नि हो जाती है।
यस्त्वल्पमप्युपयुक्तमुदर शिरोगौरव कासश्वास प्रसेकच्छर्दि गात्रसदनानि कृत्वा महता कालेन पचति, स मन्द: । (सु. सू. 35/24)
प्रसेको लालास्राव:। गात्रसदनम् अङ्गग्लानि: (सु. सू. 35/24 पर डल्हण)
अल्प मात्रा में भोजन करने पर भी उदर रोग, शिरो रोग. शिरो गौरव, कास, श्वास, प्रसेक, उल्टी, शरीर की थकान उत्पन्न करने वाली एवं देर से भोजन पचाने वाली अग्नि मंदाग्नि कहलाती है।
3. तीक्ष्णाग्नि (Tikshnagni) :
तत्र तीक्ष्णोऽग्नि: सर्वापचारसह:. . . . . . . . . . पित्तलानां तु पित्ताभिभूते ह्यग्न्यधिष्ठाने तीक्ष्णा भवन्त्यग्नय: (च.वि. 6/12)
‘तीक्ष्णोऽग्नि: सर्वापचारसह:’ इत्यादिना यच्चातुर्विध्यमुक्तं, तज्जठराग्नितीक्ष्णतादिमूलकमेव त्वगग्न्यादितीक्ष्णत्वादिकमिति ज्ञापयति। वचनं हि-‘‘तन्मूलास्ते हि तद्वृद्धिक्षयवृद्धिक्षयात्मका:’’ (चि.अ.15) इति। यद्यपि समोऽग्नि: शस्तत्वेनाग्रेऽभिधातुं युज्यते, तथाऽपि समतश्च तीक्ष्णस्यैव प्राधान्योपदर्शनार्थमिहाग्रेऽभिधानंय समस्य हि प्राधान्यं निर्विकारत्वेनैव सुस्थितं, तीक्ष्णस्य तु सर्वापचारसहत्वेन प्राधान्यम् .. .. .. .. .. .. एवं पित्ताभिभूत इत्यादावपि व्याख्येयम्। (च.वि. 6/12 पर चक्रपाणि)
तीक्ष्ण अग्नि वाला पुरूष सभी प्रकार के अपचार को सहन करने वाला अर्थात सब कुछ पचा सकने वाला होता है। पित्त प्रकति के पुरूष में अग्नि-अधिष्ठान के पित्त से अभिभूत होने पर तीक्ष्णाग्नि हो जाती है।
य: प्रभूतमप्युपयुक्तमन्नमाशु पचति स तीक्ष्ण:, स एवाभिवर्धमानोऽत्यग्निरित्याभाष्यते, स मुहुर्मुहु: प्रभूतमप्युपयुक्तमन्नमाशुतरं पचति, पाकान्ते च गलताल्वोष्ठशोषदाहसन्तापाञ्जनयति (सु. सू. 35/24)
तीक्ष्ण इति तीक्ष्णस्तु त्रिविध:- एकस्तीक्ष्ण आशुपाचक:, अन्य उपेक्षितोऽत्यग्निसञ्ज्ञो भस्मकापरपर्याय:, अपर उपेक्षितस्तीक्ष्णतमो मुहुर्मुहुरित्यादिना कथित:। यश्च मुहुर्मुहु: पचति वह्निस्तत्र पाकान्ते गलादिशोषादीन् जनयतीति सम्बन्ध:। ‘सन्तापञ्जनयती’ इत्यस्याग्रे केचिद् ‘यथा वातेनानुबध्यते पित्तं तदत्यर्थं द्रवोपेतम्’ इत्यादि पाठं पठन्ति, स चाभावान्न लिखित:। यस्त्वित्यादि। प्रसेको लालास्राव:। गात्रसदनम् अङ्गग्लानि: (सु. सू. 35/24 पर डल्हण)
4. विषमाग्नि (Vishamagni) :
समलक्षणविपरीतलक्षणस्तु विषम इति। . . . . . . . . . . . . वातलानां तु वाताभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने विषमा भवन्त्यग्नय: (च.वि. 6/12)
समलक्षणविपरीतलक्षण इति कदाचिद्विषमोऽपचारादपि न विक्रियते, कदाचिद्विक्रियते। समवातपित्तश्लेष्मणामित्युक्तेऽपि प्रकृतिस्थानामिति पदं वृद्धानां समवातपित्तश्लेष्मणां प्रतिषेधार्थम्। .. .. .. .. .. वाताभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने इति वचनेन वातलानामपि यदैवाग्न्यधिष्ठानोपघातो वातेन क्रियते, तदैव वैषम्यं भवति। (च.वि. 6/12 पर चक्रपाणि)
समअग्नि के लक्षण के विपरीत लक्षण युक्त अग्नि को विषमाग्नि कहते है। वात प्रकति के पुरूष में अग्नि-अधिष्ठान के वात से अभिभूत होने पर विषमाग्नि हो जाती है।
य: कदाचित् सम्यक् पचति, कदाचिदाध्मानशूलोदावर्तातिसार जठरगौरवान्त्रकूजन प्रवाहणानि कृत्वा, स विषम: (सु.सू. 35/29)
विषमाग्नेर्वायुर्यदा न विक्षिपति तदाऽग्नि: सम्यक् पचति, यदा पुनरितश्चेतश्च भागशो विक्षिप्त: स्यात्तदा सम्यङ्ग पचति। एतान्याध्मानादीनि कृत्वा य: पचति स विषम इति सम्बन्ध:। कूजनं गुडगुडायनशब्द:। प्रवाहणं निकुन्थनम्। उपयुक्तं दत्तम्। (सु. सू. 35/24 पर डल्हण)
कभी यह विषमाग्नि सम्यक रूप से आहार को पचाती है, तो कभी आध्मान, शूल, उदावर्त, अतिसार, जठरगौरव, आन्त्रकूजन, प्रवाहिका आदि उत्पन्न करती है।

11.5.3 कर्मानुसार अग्नि भेद (Type of Agni according function)

11.6 अग्नि का महत्व  (Significant of Agni)

11.7 अग्नि के कर्म (Functions of Agni)

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