Ahar (Diet)

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क़्या आप जानना चाहते है कि खाना उष्ण (गर्म), स्निग्ध, मात्रा मे, पहले किये गये भोजन के पच जाने पर, वीर्य के अविरुद्ध, इष्टे देशे मे,  इष्ट सर्व उपकरण सहित,  न अति जल्दी मे और न अति धीमे,  न तो बात करते हुये और ना ही हसते हुये अपनी जाठराग्नि एवं शरीर की आवश्यकता के अनुसार, मन लगा कर भोजन करने के क़्या फायदे है? तो यह लेख आपके काम का हो सकता है!

आहार किसे कहे?

विवेक आहार्यते गलादधोनीयत इत्याहार:।

जिस द्रव्य का विवेकपूर्वक निगरण  होता है अर्थात निगला जाता है, वह आहार कहलाता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के खाने-पीने के द्रव्यो में निगलने की क्रिया एक समान होने कारण इन सबको आहार कहते है।

‘आहारत्वमाहास्यैकविधम्।’ (च.सू.25/36)

सम्पूर्ण आहार में आहारता एक ही प्रकार की होती है।

आहार द्रव्यो का वर्गीकरण (Classification of food):

अर्थाभेदात्, स पुनद्वियोनि:, स्थावरजंगमात्मकत्वात्।

द्विविधप्रभाव: हिताहितोदर्कविशेषात्।

चतुर्विधोपयोग:, पानाशनभक्ष्यलेह्योपयागत्।

षडाास्वाद: रसभेदत: षड्विधत्वात। विंशतिगुण:गुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षमन्दतीक्ष्णस्थिरस

मृदुकठिनविशदपिच्छिलश्लक्ष्णखरसूक्ष्मस्थूलसान्द्रद्रवानुगमनात्।   (चरक सूत्र 25/35)

आहार द्रव्यो की दो योनि है अर्थात प्राप्ति स्थान(According to origin/source) भेद से दो प्रकार के होते है।

(1) स्थावर (वृक्ष आदि) (Plant source)

(2) जंगम (पशु आदि) (Animal source)

प्रभाव भेद (Types according Effect on body) से भी आहार द्रव्य दो प्रकार का होते है

(1) हितकर प्रभाव वाले द्रव्य

(2) अहितकर प्रभाव वाले द्रव्य

उपयोग भेद (Types according used form) से द्रव्य चार प्रकार के होते है –

(1) पान (पीने योग्य) (Liquid food item)

(2) अशन (कोमल किन्तु चबाकर निगलने योग्य) (soft and easy to chewing)

(3) भक्ष्य (कठोर भलीभांति चबाकर निगलने योग्य) (Hard and difficult to chewing)

(4) लेह्य (चाटने योग्य) (lickable)

स्वाद भेद (According dominant test) से आहार द्रव्यो में 6 प्रकार के रस होते है। रसनेन्द्रिय से ग्रहण विषय को रस कहते है।

षडेव रसा: -मधुराम्ललवणकटुतिक्तकषाया:।।

(1) मधुर, (2) अम्ल, (3) लवण, (4) कटु, (5) तिक्त, (6) कषाय

पथ्य एवं अपथ्य भेद से आहार दो प्रकार का होता है।

आहार का महत्व (significance of Ahara/Diet)-

जीवन को बनाए रखने वाली चीजों में प्राणवायु के बाद अन्न या भोजन को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।

यह ओजस की वृद्धि, विकास और वृद्धि के लिए जिम्मेदार है।

सभी प्राणियों की उत्पत्ति भोजन से होती है, भोजन ही सभी प्राणियों के जीवन को बनाये रखने के लिए के लिए उत्तरदायी है। अन्न सभी जीवों में अन्नमयकोश के रूप में विद्यमान है।

आयुर्वेद पथ्य भोजन के महत्व पर जोर देता है। शरीर के साथ-साथ रोग भी भोजन से बनते हैं, स्वस्थ और अपवित्र भोजन क्रमश: सुख और दुख के लिए जिम्मेदार हैं।

पथ्य आहार शरीर निर्माण करने वाली धातुओं को बनाए रखने वाला है। पथ्य आहार लेने और सम्यक अग्नि से पचाये जाने पर धातु समांशो का निर्माण होता है। यह धातु समांश बाल्यावस्था मे धातुओ की वृद्धि करती है तथा युवावस्था यथा स्थिति बनाये रखते है। अत: जैसा आहार होगा वेसी ही धातुओं का निर्माण होगा। पथ्य आहार होगा तो शरीर धातुओं का भी शुद्ध निर्माण होगा। अपथ्य आहार से अशुद्ध धातुओं का निर्माण जो विकृति उत्पन्न करेगी। अधिकांश रोग अनुचित भोजन के कारण उत्पन्न होते हैं।

केवल पथ्य आहार का पालन करके रोग को बिना किसी दवा के ठीक किया जा सकता है। जबकि सैकड़ों दवाएं भी पथ्य आहार के अभाव में किसी बीमारी का इलाज नहीं कर सकती हैं।

भोजन के समान कोई औषधि नहीं है। इसीलिए कश्यप ने इसे महाभैषज्य नाम दिया।

सही खान-पान से ही व्यक्ति को रोग मुक्त बनाया जा सकता है। भोजन जीवन शक्ति को बढ़ाता है और शरीर को मजबूत बनाता है। भोजन से उत्साह, स्मरणशक्ति, अग्नि, आयु, कामशक्ति और ओज की वृद्धि होती है।

शुद्ध भोजन यानी सात्विकाहार का सेवन करने से मन साफ होता है। जब मन दोषों से रहित होता है तो स्मरण शक्ति बढ़ती है। अत: शरीररिक और मानसिक स्वास्थ्य भोजन पर निर्भर है। इसलिए बुद्धिमान और आत्म नियंत्रित व्यक्ति को रोगों से बचाव के लिए सही मात्रा में, सही समय पर अनुकूल भोजन का सेवन आहार विधि विधान से करना चाहिए।

आहार विधि विधान

  1. उष्णमश्नीयात्  (Take warm diet) अर्थात उष्ण भोजन (गरम और ताजा खाना )

(1) स्वादिष्ट लगता है

(2) जाठराग्नि को प्रदीप्त करता है।

(3) शीघ्र पच जाता है

(4) वातानुलोमन करता है।

(5) कफ का हृास करता है।

  1. स्निग्धमश्नीयात् (Take diet with Sneh) अर्थात स्निग्ध भोजन

(1) स्वादिष्ट लगता है

(2) अप्रदीप्त जाठराग्नि को प्रदीप्त करता है

(3) शीघ्र पच जाता है

(4) वातानुलोमन करता है

(5) शरीर की वृद्धि करता है

(6) इन्द्रियों को दृढ़ बनाता है

(7) बल को बढ़ाता है

(8) वर्ण को स्वच्छ बनाकर निखार लाता है।

  1. मात्रावदश्नीयात् (Take diet in proper quantity) अर्थात अपनी शरीर की जितनी आवश्यकता हो उतनी मात्रा मे खाया हुआ भोजन आसानी से पच पाता है और मात्रापूर्वक किया हुआ भोजन-

(1) वात-पित्त-कफ को प्रकुपित नहीं करता अपितु पूर्ण रूप से आयु की वृद्धि करता है,

(2) सुखपूर्वक गुदा तक पहुँच जाता है अर्थात कब्ज नही करता

(3) शारीरिक ताप एवं अग्नि को नष्ट नहीं करता

(4) बिना किसी कष्ट के पच जाता है।

  1. जीर्णेऽश्नीयात् (take next food when previous digest) अर्थात पहले किये गये भोजन के पच जाने पर भोजन करे

अजीर्ण में किया गया भोजन शीघ्र ही सभी दोषों को प्रकुपित करता है। जबकि पहले किये गये भोजन के जीर्ण हो जाने पर किया गया भोजन शरीर की धातुओं को दूषित न करता हुआ पूर्ण रूप से आयु को बढ़ाता है।

  1. वीर्याविरुद्धम् अश्नीयात्  (take compable food items) अर्थात वीर्य विरुद्ध आहार ना करे

अविरुद्धवीर्य भोजन से विरुद्ध वीर्य वाले आहार के सेवन से उत्पन्न होने वाले विकारों से शरीर आक्रान्त नहीं होता । विरुद्ध आहार से सफेद दाग या श्वित्र जैसे रोग हो सकते है अर्थात विरुद्ध आहार से तुरंत तो कुछ नही दिखता किंतु लगातार विरुद्ध आहार  करने से अगर जब कभी शरीर कमजोर होगा तुरंत ओटो इम्यून डिसओर्डर होती है

  1. इष्टे देशेऽश्नीयात् (eat at a convenient place) अर्थात मनपसन्द जगह बेठ कर भोजन करे क्योकि  मन के अनुकूल स्थान में बैठ़कर भोजन करने वाला व्यक्ति अप्रिय स्थान में बैठकर भोजन करने से उत्पन्न होने वाले मनोविकारों से ग्रस्त नहीं होता ।
  1. इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात् (should eat with all the resources) अर्थात सभी साधनों के साथ भोजन करे क्योकि मन के अनकूल साधनों के साथ भोजन करने पर

(1) मानसिक उद्विग्नता नहीं होती  ।       (2) अन्य मनोविकार नहीं होते ।

  1. नातिदुतमश्नीयात् (should not eat too quickly) अर्थात जल्दी मे ना खाये

क्योकि अतिद्रुत (अतिशीघ्रता से किया गया) भोजन-

(1) अनुचित मार्ग अर्थात् श्वासनली में चला जाता है। (2) शरीर को शिथिल करता है।

(3) भोजन अपने नियत स्थान (आमाशय) में नहीं पहुँचता (4) भोजन के दोष (बाल,कंकर आदि) दूर नहीं किये जा सकते।  (5) भोजन के उत्तम गुणों की अनुभूति नहीं होती ।

  1. नातिविलम्बितम् अश्नीयात् (should not eat too slowly) अर्थात न अति धीमे

अतिविलम्बित (बहुत धीरे-धीरे खाया गया) भोजन

(1) भोक्ता को तृप्त नहीं करता। (2) भोक्ता अधिक भोजन कर लेता है। (3) भोजन शीतल हो जाता है। (4) आहार का पाचन विषम होता है (कभी भोजन पच जाता है एवं कभी नहीं पचता)।

  1. अजल्पन् भुंजीत अर्थात मोन रख कर भोजन करे (eat without loudly talking )-

बातचीत करते हुए भोजन करने से भी अतिद्रुत भोजन से उत्पन्न दोष प्राप्त होते हैं।

  1. अहसन् भुंजीत अर्थात बिना हसते हुये (eat without loudly laughing )-

हँसते हुए भोजन करने से भी वे ही दोष होते हैं, जो अतिद्रुत भोजन से होते हैं।

  1. तन्मना भुंजीत (should eat mindfully) अर्थात मन लगा कर भोजन करे-

तन्मय होकर भोजन करने से अतिद्रुत, जल्प (बातचीत) करने एवं हँसते हुए भोजन करने से उत्पन्न होने वाले दोष नहीं उत्पन्न होते हैं।

  1. आत्मानम् अभिसमीक्ष्य भुंजीत (Eat food according to your body’s digestive capacity and requirement) अर्थात अपनी जाठराग्नि एवं शरीर की आवश्यकता के अनुसार भोजन करना चाहिए । यह आहार मेरे लिए हितकर है एवं यह अहितकर है? ऐसा विचार करने से आत्मसात्म्य का ज्ञान होता है।और यह भोजन मेरे शरीर के हितकारी है या नही ? इसकी समीक्षा केसे करे इस विचार करने के लिये आठ आहार विधि विशेष आयतनो की चर्चा की गयी है

अष्टौ आहारविधिविशेषायतन

  1. प्रकृति – आहार-द्रव्यों एवं औषध-द्रव्यों का स्वाभाविक गुर्वादिगुणों से युक्त होना प्रकृति कहलाता है।    जैसे – उडद स्वभाव से गुरु होता है तथा मूंग स्वभाव से लघु होता है। इस प्रकर किस को मूंग लेना है और किस को उडद; यह ऋतु, दोष, व्यक्ति की अग्नि और प्रकृति आदि का विचार करके ही आहार का निर्धारण करना चाहिये। आहार की समीक्षा मे सबसे पहले उसकी प्रकृति की समीक्षा करनी चाहिये
  2. करण (संस्कार) – स्वाभाविक (प्राकृत) गुणों से युक्त द्रव्यों मंे विशिष्ट गुणों का आधान करना संस्कार अर्थात करण कहलाता है।

(1) जलसंयोग, (2) अग्निसंयोग, (3) शौच (शोधन), (4) मन्थन, (5) देश (6) काल, (7) वासन, (8) भावना, (9) कालप्रकर्ष और (10) भाजन के द्वारा गुणान्तराधान किया जाता है।

उदाहरण – त्रिफला के कल्क को लौहपात्र पर लेप कर सूखने के पश्चात् निकालकर प्रयोग करने पर वह रसायन हो जाता है। या जैसे चावल को भूनने पर वह लघु (जल्दी से पचने वाला) हो जाता है किन्तु उसी चावल को खीर के रूप मे खाने पर वो गुरु अर्थात देर से पचने वाला हो जाता है

  1. संयोग (combination) – दो या दो से अधिक द्रव्यों का एक साथ मिलना संयोग कहलाता है, यह संयोग उन द्रव्यों में ऐसे विशिष्ट कार्य को उत्पन्न करता है जो संयुक्त द्रव्यों में से अकेला द्रव्य नहीं कर सकता। जैसे – मधु और घृत का संयोग मारक होता है और मछली और दूध का संयोग कुष्ठोत्पादक है।
  2. राशि (Quantity) – मात्रापूर्वक आहार या औषध ग्रहण के शुभफल एवं अल्पमात्रा या मात्राधिक्य आहार या औषध के अशुभफल का ज्ञान राशि के माध्यम से होता है। राशि के दो प्रकार है-(1) सर्वग्रह राशि (2) परिग्रह राशि ।

(1) सर्वग्रह राशि – भोजन द्रव्यों में से एक परिमाण में कहीं से कोई वस्तु का ग्रहण कर लेना सर्वग्रह राशि है।

(2) परिग्रह राशि – आहारद्रव्यों में से एक-एक द्रव्य को निश्चित परिमाण में लेना परिग्रह राशि है। जैसे कुल मिलाकर एक मात्रा (500 ग्राम) भोजन सर्वग्रह राशि है एवं एक-एक द्रव्य की भिन्न-भिन्न मात्रा (जैसे  300 ग्राम चावल, 100 ग्राम दाल, 50 ग्राम सब्जी, 50 ग्राम दही परिग्रह राशि है।

  1. देश (Location) –     आहार द्रव्य तथा उपयोक्ता के उत्पत्ति स्थान एवं प्रचलन स्थान को देश कहते हैं।   हिमालय के भूभाग में उत्पन्न आहार या औषध-द्रव्य गुरु होते हैं एवं मरुभूमि में उत्पन्न हो तो लघु होते हैं।
  2. काल – काल दो प्रकार का होता है-

(1) नित्यग (2) आवस्थिक। \

(1) नित्यग काल- स्वस्थवृत के सन्दर्भ में वर्णित ऋतु के अनुसार आहार की व्यवस्था नित्यग काल की अपेक्षा रखती है।

(2) आवस्थिक काल विकार की अपेक्षा रखता है। जैसे तीन सप्ताह तक लगातार बना रहने वाला ज्वर जीर्णज्वर कहलाता है। इसमें दूध का प्रयोग हितकर होता है।क्ष

  1. उपयोगसंस्था – उपयोगसंस्था अर्थात् भोजन करने का नियम । यह भोजन के जीर्ण लक्षणों की अपेक्षा रखता है। आहारविधिविधान भी उपयोगसंस्था से सम्बद्ध होते हैं।
  2. उपयोक्ता – आहार का उपयोग करने वाला उपयोक्ता कहलाता है जिसके अधीन ओकसात्म्य होता है। आहार का निश्चय उपयोक्ता की प्रकृति, अभ्यास आदि पर विचार करके करना चाहिए ।
क्र.स. आहारविधि विशेषायतन उदाहरण
1. प्रकृति माष-गुरु, मुद्ग-लघु, शूकरमांस-गुरु, एणमांस-लघु
2. करण त्रिफला के कल्क को लौहपात्र पर लेप कर सूखने के पश्चात् निकालकर प्रयोग करने पर वह रसायन हो जाता है।
3. संयोग मधु और घृत का संयोग मारक, मधु, मछली और दूध का संयोग कुष्ठोत्पादक है।
4. राशि जैसे कुल मिलाकर एक मात्रा (500 ग्राम) भोजन सर्वग्रह है एवं एक-एक द्रव्य की भिन्न-भिन्न मात्रा (300 ग्राम चावल, 100 ग्राम दाल, 50 ग्राम सब्जी, 50 ग्राम दही परिग्रह है।
5. देश हिमालय के भूभाग में उत्पन्न आहार या औषध-द्रव्य गुरु होते हैं एवं मरुभूमि में उत्पन्न हो तो लघु होते हैं। जांगलदेश में विचरण करने वाले प्राणियों का मांस लघु एवं आनूपदेश में विचरणशील प्राणियों का मांस गुरु होता है।
6. काल जैसे तीन सप्ताह तक लगातार बना रहने वाला ज्वर जीर्णज्वर कहलाता है। इसमें दूध का प्रयोग हितकर होता है।
7. उपयोगसंस्था
8. उपयोक्ता

 

आहार परिणामकर भाव

आहार द्वारा शरीर की क्षीण धातुओं की पूर्ति होती है किन्तु आहार हम जिस रूप में लेते हैं वह उसी रूप में शरीर की क्षीण धातुओं की पूर्ति नहीं करता है अपितु वह नानाविध शरीर घटकों के रूप में परिणत होकर उनकी पूर्ति एवं पुष्टि करता है एतदर्थ आहार के परिणमन में जो-जो भाव सहायक होते हैं उन्हें ही आहार परिणामकर भाव कहा जाता है। आचार्य चरक ने ‘‘शरीर विचय शारीर’’(च.शा.6/14-15) में आहार को पकाकर रसादि विभिन्न धातुओं में परिणत करने वाले निम्न छः (6) भाव बताये हैं, यथा-

  1. ऊष्मा       4.    स्नेह
  2. वायु          5.   काल
  3. क्लेद        6.    समयोग

 

आहारपरिणामकराः पुनरिम भावाः।

तद्यथा वायुः क्लदः स्नेहः कालः समयोगष्चः।।     (अ.स.सू.10/61)

उष्मा –        जाठराग्नि

वायु-   समान वायु (मुख से आमाशय की ओर अन्न का आकर्षण)

क्लेद-  क्लेदक कफ (अन्न का संधान)

स्नेह- काठिण्य दूर करता है।

काल-  अन्न को सम्पूर्ण शरीर में फैलाता है।

समयोग-      अन्न के परणिाम से उत्पन्न साम्यता पैदा करता है।

उपर्युक्त भावों की विवेचना एवं कर्म निम्न तालिका में देखे जा सकते हैं-

क्र.स. भाव विश्लेषण कर्म
1. उष्मा त्रयोदश अग्नियां- पाचक पित्त (जाठराग्नि) महाभूताग्नि एवं सप्त धात्वग्नियों का सन्धुक्षित रहना पाचन
2. वायु समान एवं प्राणवायु का व्यापार ठीक से होते रहना अपकर्षण
3. क्लेद आहार द्रव्य का जलीयांश युक्त बना रहना शैथिल्य
4. स्नेह घृत आदि द्वारा आहार का स्निग्ध एवं मृदु होना मृदुता
5. काल प्रातः सायं भोजन का यथाकाल पच जाना परिपक्वता
6. समयोग आहार विधि (च.वि.1/25) के अनुसार सभी भावों का समांश में प्रयोग किया जाना धातुसाम्य

 

मात्रापूर्वक ग्रहीत आहार के निम्नलिखित लक्षण होते हैं।

तद्यथा – कुक्षेरप्रणीडनमाहारेण, हृदयस्यानवरोध:, पाश्र्वयोरविपाटनम्, अनतिगौरवमुदरस्य, प्रीणनमिन्द्रियाणां, क्षुत्पिपासोपरम:, स्थानासनशयनगमनोच्छ्वासप्रश्वासहास्यसङ्कथासु सुखानुवृत्ति:, सायं प्रातश्च सुखेन परिणमनं, बलवर्णोपचयकरत्वं चय इति मात्रावतो लक्षणमाहारस्य भवति (च.वि.2/6)
कुक्ष्यंशविभागेनेति एकमवकाशांशं मूर्तानामित्यादिना। उद्दिष्टमिति सङ्क्षेपेण कथितम्। सायं प्रातश्चेतिवचनात् सायं भोजने कृते यदि प्रात:, प्रातश्च कृते यदि सायं, सुखेन परिणमनं तथा स्थानासनादिषु सुखानुवृत्तिर्भवति, तदा मात्रावद्भोजनमनेन कृतमिति ज्ञेयम्। (च.वि.2/6 पर चक्रपाणी)

  1. कुक्षेरप्रपीडनमाहारेण अर्थात आहार द्वारा कुक्षि पर दबाव न पड़ना
  2. हृदयस्यानवरोधः अर्थात हृदय की गति में रुकावट न होना
  3. पार्श्वयोरविपाटनम् अर्थात पार्श्वों में फटने जैसी पीड़ा न होना
  4. अनतिगौरवमुदरस्य अर्थात उदर में अधिक भारीपन न होना
  5. प्रीणनमिन्द्रियाणाम् अर्थात इन्द्रियों में प्रसन्नता की अनुभूति
  6. क्षुत्पिपासोपरमः अर्थात भूख और प्यास की शान्ति
  7. स्थानासनशयनगमनोच्छ्वास प्रश्वासहास्यसंकथासु सुखानुवृत्ति अर्थात अर्थात  खाना खाने के बाद खडे़ होना, बैठना, सोना, चलना, हँसना, वार्तालाप करना इन सभी क्रियाओं में सुख की अनुभूति
  1. सायं प्रात:श्च सुखेन परिणमनम् अर्थात  प्रातःकाल किये भोजन का सांयकाल तक एवं सांयकाल किये भोजन का प्रातःकाल तक पाचन
  1. बलवर्णोपचयकरत्वम् अर्थात  खाना खाने से बल, वर्ण और शारीरिक धातुओं की वृद्धि

हीनामात्रायुक्त आहार से उत्पन्न लक्षण

  1. बलवर्णोपचयक्षयकरम् – शारीरिक बल, वर्ण और वृद्धि को क्षीण करने वाला
  2. अतृप्तिकरम् – तृप्ति उत्पन्न न करने वाला
  3. उदावर्तकरम् – उदावर्त रोग को उत्पन्न करने वाला
  4. अनायुष्यम् – आयु को क्षीण करने वाला
  5. अवृष्यम्               –  शुक्र को क्षीण करने वाला
  6. अनौजस्यम् – ओज को क्षीण करने वाला
  7. शरीरमनोबुद्धीन्द्रियोपघातकरम् – शरीर,मन,बुद्धि तथा इन्द्रियों की शक्ति को नष्ट करने वाला
  8. सारविधमनम् – अष्टविध सारों को नष्ट करने वाला
  9. अलक्ष्म्यावहम् – सौन्दर्यनाशक
  10. अशीतेश्च वातविकाराणामायतनम् – अस्सी वातविकारों का कारण

आहार की अति मात्रा सेवन से प्रकुपित दोषानुसार उत्पन्न लक्षणों की तालिका-

क्र.स. प्रकुपित वात से उत्पन्न लक्षण प्रकुपित पित्त से उत्पन्न लक्षण प्रकुपित कफ से उत्पन्न लक्षण
1. उदरशूल ज्वर छर्दि
2. आनाह अतिसार अरोचक
3. अंगमर्द अन्तर्दाह अविपाक
4. मुखशोष तृष्णा शीत ज्वर
5. मूर्च्छा मद आलस्य
6. भ्रम भ्रम गात्र गौरव
7. अग्निवैषम्य प्रलपन
8. पार्श्वग्रह
9. पृष्ठ ग्रह
10. कटि ग्रह
11. सिराकुंचन
12. सिरास्तम्भन

 

चरक संहिता में आहार संबन्धी वर्णन की सन्दर्भ तालिका

क्र.स. आहार संबन्धी विषय सन्दर्भ संख्या
1. अष्ट आहार विधि विशेषायतन च.चि.1/21
2. आहारविधि विधान च.वि.1/24
3. जीर्ण आहार के लक्षण च.वि.1/24(4)
4. आहार परिणामकर भाव च.शा.6/15
5. मात्रा पूर्वक आहार के लक्षण च.वि.2/6
6. अमात्रा पूर्वक आहार के लक्षण च.वि.2/7
7. हिताहिताहार का उपदेश च.सू.25/38-39
8. अन्नपान के परीक्ष्य विषय च.सू.27/331
9. वैरोधिक आहार वर्णन च.सू.26/86-87
10. आहार भेद वर्णन च.सू.25/26
11. पथ्य-अपथ्य आहार द्रव्य च.सू.25/45-46
12. आहार पाचन क्रम एवं फल च.सू.28/3-4
13. आहार द्रव्यों का वर्गीकरण च.सू.27/6-7

 

This Post Has 2 Comments

  1. Dr Manoj Adlakha

    Well written dear

  2. Dr Ashok Kumar Sharma

    Very nice, informative article. keep it up.
    All the best 👍

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