- प्रकृति (Prakruti)
निरुक्ति:
‘‘वाचस्पत्यम्’’ के अनुसार प्रकृति शब्द ‘‘प्र’’ उपसर्गपूर्वक ‘‘डुकृञ’’ धातु से क्तिच् या क्तिन् प्रत्यय से निष्पन्न होता है।
व्युत्पत्ति:
‘‘प्रकृति’’ ‘‘प्र’’ शब्द प्रकृष्ट का वाचक है और ‘‘कृति’’ शब्द सृष्टि का। इस प्रकार सृष्टि में जो प्रकृष्ट देवी है वही प्रकृति है। प्रकृति में ‘‘प्र’’ शब्द सत्व गुण का बोधक है, ‘‘कृ’’ शब्द रजगुण का एवं ‘‘ति’’ शब्द तमस् का बोधक है।
प्रकृति के पर्याय (Synonyms of Prakuti):
संसिद्धि, प्रकृति, स्वरूप, स्वभाव, निसर्ग, कुदरत, तासीर, मिजाज, धर्म, गुण, माया, प्रधान, शक्ति, चैतन्य, Temprament, Constitution, Construction, Habit & Character भी है।
प्रकृति की परिभाषा (Definition of Prakuti):
आचार्य सुश्रुत के मतानुसार शुक्रशोणित संयोग काल में जिस दोष की उत्कट्ता होती है, उसी से व्यक्ति की प्रकृति उत्पन्न होती है। पुरुष के शुक्र और स्त्री के शोणित के संयोग से गर्भ उत्पन्न होता है। शुक्र और शोणित वात, पित्त, कफ अर्थात त्रिदोष युक्त होते हैं। इनमें दोषों की कुछ न्यूनाधिकता हो सकती है। जब इन दोनों का संयोग होता है, तब दोनों के भीतरी त्रिदोषों का भी संयोग होकर वात से वात, पित्त से पित्त एवं कफ से कफ मिलकर गर्भ का त्रिदोष बनता है। इस त्रिदोष में संयोगवश: तीनों की जब समता होगी तब सम प्रकृति बनेगी और गर्भ की वृद्धि तथा प्रकृति भी यथोचित और स्वस्थ रहेगी। परन्तु इस प्रकार समता होना बहुत कठिन है। प्राय: कोई न कोई दोष प्रबल हो जाता है और उसी के अनुसार वातल, पित्तल इत्यादि प्रकृतियां बन जाती है। जब दो दोषों की प्रबलता होती है, तब द्विदोषज प्रकृतियां बनती है।
शुक्रशोणितसंयोगे यो भवेद्दोष उत्कट:।
प्रकृतिर्जायते तेन तस्या मे लक्षणं शृणु ।। (सु. शा. 4/63)
सप्तविधत्वं प्रतिपा। तस्या उत्पत्तौ हेतुमाह- शुक्रेत्यादि। यो भवेद्दोष उत्कट इति स्वभावस्थितो न प्रकुपित:। द्विविधा ह्युत्कटा वातादय: प्राकृता वैकृताश्चय तत्र प्राकृता: सप्तविधाया: प्रक्रृतेर्हेतुभूता: शरीरैकजन्मान:, वैकृताश्च गर्भव्याघातका:। गयी त्वन्यथैवाशङ्क्य समादधातिय यथा- ‘ननु, स्वभावत: शुद्धं बीजं कर्मणा वा समधातुं गर्भं निष्पादयति, अनिलादिदोषदुष्टं तु गर्भजननाय न समर्थमिति शुक्रशोणितशुद्धावुक्तं, तत् कथमुत्कटेन दोषेण प्रकृतिरिति? उच्यते- न हि सर्वमेव बीजं दूषितं किं तर्हि बीजावयवो दूषित:, न चावयवगतदोषेण गर्भप्रतिबन्धो जात्यन्धमूकादेर्गर्भस्य दर्शनात्, तस्माद्य एवांशोबीजस्य दुष्टो भवति तत्कार्यस्यैव गर्भावयवस्य विकृतिरभावो वा भवतिय यथा- दृष्ट्यारम्भके बीजभागे दुष्टे जात्यन्धो गर्भो भवति न तु गर्भ एव न भवति, तथा दोषाख्ये बीजभागे दुष्टे तत्कार्यस्यैव गर्भशरीरभावस्य समधातोरपेक्षया विकृति: स्फुटितकरचरणादिलक्षणा भवति न तु गर्भव्याघात:। तदुक्तं- ‘शुद्धं स्वभावकर्मभ्यां वाताद्यैर्दुष्टमंशत:। दृष्टं बीजार्थकृद् बीजं तत्र प्रकृतिरुत्तरम्’- इति (सु. शा. 4/63 डल्हण)
देह प्रकृति के बारे में बताते हुए चरक संहिता में लिखा है कि गर्भावक्रान्ति के समय अलग-अलग दोषों से बनी प्रकृतियों से दोषों का अनुशय (जन्मकाल से शरीर में रहने से अनुकूलता) होने से देह प्रकृति कहते हैं।
तत्र प्रकृत्यादीन् भावाननुव्याख्यास्याम:। तद्यथा- शुक्रशोणितप्रकृतिं, कालगर्भाशयप्रकृतिं, आतुराहारविहारप्रकृतिं, महाभूतविकारप्रकृतिं च गर्भशरीरमपेक्षते। एतानि हि येन येन दोषेणाधिकेनैकेनानेकेन वा समनुबध्यन्ते, तेन तेन दोषेण गर्भोऽनुबध्यतेय तत: सा सा दोषप्रकृतिरुच्यते मनुष्याणां गर्भादिप्रवृत्ता। तस्माच्छ्लेष्मला: प्रकृत्या केचित्, पित्तला: केचित्, वातला: केचित्, संसृष्टा: केचित्, समधातव: केचिद्भवन्ति। तेषां हि लक्षणानि व्याख्यास्याम:।। (च. वि. 8/95)
प्रकृतिमिति स्वभावम्। एतानीति शुक्रादीनि। अत्र शुक्रे शोणिते वा यादृगवस्थो दोषस्तादृग्गर्भे प्रकृतिर्भवतिय तथा शुक्रशोणितमेलककाले ऋतुरूपे यो दोष उत्कटो भवति, स प्रकृतिमारभतेय एवं गर्भाशयस्थश्च दोष:; मातुराहारविहारौ तत्कालीनौ यद्दोषकरणस्वभावौ, सा च प्रकृतिर्गर्भशरीरे भवति। एषु च प्रकृत्यारम्भकेषु कारणेषु यद्बलवद्भवति कारणान्तरबृंहितं च, तदेव प्रकृत्यारम्भकं भवति। कालादयश्च शुक्रशोणितमेव कुर्वन्त: प्रकृतिजनका भवन्तीति तन्त्रान्तरे शुक्रशोणितगतदोषेणैव प्रकृत्युत्पादो दर्शित:। गर्भादिप्रवृत्तेति गर्भस्यादिमेलके प्रवृत्ता। अत्र च समैर्दोषैर्वृद्धैर्गर्भजन्मैव न भवतीति विकृतदोषत्रयप्रकृतेरनभिधानादिति ज्ञेयम्। प्रकृतिविकारश्च सूत्रस्थान एव व्याकृत:।। (च. वि. 8/95 पर चक्रपाणि)
शुक्रशोणित संयोग काल में जिस दोष की उत्कटता होती है, उसी के अनुसार प्राणियों में विभिन्नता होती है। भिन्न-भिन्न पुरुषों में भिन्न-भिन्न शारीरिक तथा मानसिक संगठनों के होने का कारण शुक्रशोणित संयोग काल में दोष उत्कटता ही है।
शरीर को प्रभावित करने वाले त्रिदोषो पर आधारित प्रकृति देह प्रकृति एवं मन को प्रभावित करने वाले त्रिगुणों पर आधारित प्रकृति मानस प्रकृति है।
रोगोत्पत्ति क्रम में जिस प्रकार के भी निदानों का सेवन किया जायें वे निदान रोग उत्पन्न करने से पूर्व दोष, अग्नि, स्त्रोत एवं दुष्य में विषमता उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार रोगोत्पत्ति में प्रकृति अपना विशेष महत्त्व रखती है व रोगोत्पत्ति में दोषों की विषमता कारण होती है। इसी प्रकार दोषों की उत्कटता से प्रकृति सात प्रकार की होती है।
प्रकृति निर्माण (Genesis of Prakriti)
प्रकृति-निर्माणक भाव (Factors responsible for genesis of Prakriti) – प्रकृति निर्माणक भाव वो है जो परोक्ष-अपरोक्ष रूप से प्रकृति निर्माण में योगदान करते है यथा – ये भाव दो प्रकार के होते है:
1) गर्भकालज भाव (Intra-uterine factors)
2) जाति प्रसक्तादि भाव (Extra-uterine factors)
1) गर्भकालज भाव: – व्यक्ति की प्रकृति का निर्माण गर्भकाल में ही होता है। मनुष्य का जन्मजात स्वभाव प्रत्येक में भिन्न- भिन्न होता है, और उसके अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति बनती है। स्वभाव को आदिबल प्रवृत्त (Hereditary) कहा है। मनुष्यों का मानसिक तथा शारीरिक स्वभाव, गुण, अवगुण आदि प्रकृति पर निर्भर करता है और स्वयं प्रकृति वात, पित्त, कफ एवं सत्व, रज और तम पर आश्रित है। गर्भाधान काल में शुक्रषोणित का जब संयोग होता है तो प्रत्येक पुरुष में अमुक-अमुक दोष की स्वभाविक अधिकता (दोषोत्कटता) के कारण मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का निर्माण होता है। इस प्रकार दोषोत्कटता को प्रकृति निर्माण का मुख्य कारण माना जाता है।
प्रकृति पर प्रभाव डालने वाले गर्भकालज भाव निम्न है
- शुक्रशोणित प्रकृति 2. काल गर्भाशय प्रकृति
- मातुराहार-विहार प्रकृति 4. महाभूत विकार प्रकृति
ये भाव गर्भावक्रान्ति (fertilization) से ही प्रभाव डालना प्रारम्भ कर देते हैं। गर्भोत्पादक भावों की सम्पद् से शारीरिक एवं मानसिक प्रकृतियों का निर्माण होता है। अत: जो भाव देह प्रकृति निर्माणक है, उन्हीं भावों से मानस प्रकृति का भी निर्माण होता है। इन्ही चार प्रकारों में गर्भोत्पत्ति के षड़भावों का समावेष किया जा सकता है।
- शुक्रशोणित प्रकृति (Effect of Genotype of Sperm and ovam) :
आचार्य सुश्रुत ने शुक्रधराकला को सर्वशरीर व्यापिनी कहा है। शुक्र (पुरुष बीज) एवं आर्तव (स्त्री बीज) के संयोग से बनने वाले गर्भ शरीर के प्रत्येक अवयव में स्थित वंशानुगत एवं माता-पिता द्वारा अर्जित प्रकृति, उसके स्वरूप तथा क्रिया की विशेषता एवं उनकी रचना तथा क्रिया सम्बंधी विकृतियॉ भी संतान में आती है।
गर्भ निर्माण में मुख्य घटना शुक्र और शोणित का संयोग होना है, अत: शुक्र और शोणित में स्थित दोषाधिक्य गर्भ की प्रकृति का प्रधान कारण है। गर्भ की प्रकृति के उत्पादक भाव स्वभाव से शुक्रशोणित में ही उपस्थित रहते है। शुक्र में जिस प्रकार पिता के अंग-प्रत्यंग व अन्य भाव सूक्ष्म रूप में रहते है ठीक उसी प्रकार से आर्तव (स्त्री बीज) में माता के अंग-प्रत्यंग व अन्य भाव रहते है। अत: कई बालक मातृ-सदृश एवं कई पित्तृ सदृश होते है। अत: माता-पिता के गुण-वैगुण्य जो भी गर्भ में आते हैं उन्हें मातृज-पित्तृज भाव कहते है।
गर्भ में मातृजभाव – माता से प्राप्त होने वाले भावों को मातृजभाव कहते है। इसका प्रमुख तत्व शोणित को बताया है। आचार्य चरक ने बताया है कि गर्भ माता से उत्पन्न होता है। माता के बिना गर्भ की उत्पत्ति नही हो सकती।
गर्भ के उत्पन्न होते समय, माता से उत्पन्न होने वाले मातृज अवयव निम्नलिखित है – त्वचा, रक्त, मांस, मेद, नाभि, हृदय, क्लोम, यकृत, प्लीहा, वृक्क, बस्ति, पुरीषाधान, आमाशय, पक्वाशय आदि । आचार्य सुश्रुत ने मृदु अंगों को मातृत्व बताया है।
गर्भ में पित्तृजभाव – पिता से बनने वाले भावों को पित्तृज भाव कहते है। शुक्र इसका प्रमुख तत्व होता है, जिसमें पिता के समान समस्त अंगप्रत्यंग एवं गुणावगुण भाव सूक्ष्मरूप में उसी प्रकार उपस्थित रहते है जैसे सुक्ष्म बीज में विषाल वटवृक्ष समाहित रहता है।
गर्भोत्पत्ति के समय पिता से उत्पन्न होने वाले गर्भ के अवयव ये है – केश, श्मश्रु, नख, लोम, दन्त, अस्थि, सिरा, स्नायु, धमनी एवं शुक्र।
मनुष्य से मनुष्य की उत्पत्ति बतायी है, लेकिन यहॉं यह शंका उत्पन्न होती है कि मातृज-पित्तृज भावों में माता-पिता के समान जड़, अन्धा, बहरा बालक उत्पन्न होना चाहिए, किन्तु प्रत्यक्ष में ऐसा होता नही हैं। इसका कारण आचार्य चरक ने बताया है कि गर्भात्पादक बीज या बीज भाग में विकृति होने पर ही ऐसी सन्तान (अन्धें से अन्धा, लंगड़े से लंगड़ा) उत्पन्न होती है अन्यथा ऐसा नही होता। ऐसी सन्तान (अन्धें से अन्धा, लंगड़े से लंगड़ा) उत्पन्न होने का एक कारण दैव (पूर्वकृत कर्म) के अधीन बताया गया है।
गर्भ शरीर माता-पिता के सूक्ष्म अंगों से उत्पन्न होता है। अत: इन अंगों की धातुओं की पुष्टि माता-पिता के शुक्र-षोणित की पुष्टि पर निर्भर करती है।
अधिकांश पित्तृज भाव युक्त अंग एक्टोडर्म निर्मित तथा अधिकांश मातृज अंग एण्डोडर्म एवं मीसोडर्म निर्मित होते है।
- काल गर्भाशय प्रकृति (Effect of Kal) :
काल गर्भाशय प्रकृति से तीन प्रकार के काल लिये जा सकते है –
(क) संयोगकाल (sacramental intercourse time)
(ख) गर्भधारण काल (Effect of season)
(ग) माता-पिता की वय (Effect of parent’s age)
(क) संयोगकाल (sacramental intercourse time)- शुक्र और शोणित मिलाने की चेष्टा को सम्भोग (sacramental intercourse) कहा जाता है। यह चेष्टा जिस समय की जाती है, वह सम्भोगकाल माना जाता है। इसके दो विभाग किये गये हैं -निंद्य और अनिंद्य।
निंद्यकाल – याज्ञवल्क्य-मासिक धर्म के प्रथम चार दिनों के अतिरिक्त अमावस्या, पूर्णमांसी, चतुर्दशी, अष्टमी, निंद्य मानते है। आचार्य मनु, सुश्रुत एवं वाग्भट्ट ने भी निंद्य कालों का वर्णन किया है। मासिक के प्रथम चार दिन, अगम्य तिथियों, सन्ध्याकाल, प्रभातकाल, अर्धरात्रि और मध्यान्हकाल को निंद्यकाल माना गया है।
अनिंद्यकाल – आचार्य सुश्रुत के अनुसार चौथी से बारहवी रात्रि में संभोग करने से आयुषमान, आरोग्य, सौंदर्य, ऐश्वर्य एवं बल से युक्त सन्तान उत्पन्न होती हैं।
गर्भोत्पत्ति में गर्भाशय का विशेष महव होता है, क्योंकि गर्भ का सम्पूर्ण विकास एवं पोषण गर्भाशय में ही होता है। अत: संभोग के आसन के अनुसार भी ग्राह्य और अग्राह्य दो प्रकार किये गये है।
अग्राह्य आसन – संभोग के समय में अधोमुखी अथवा करवट से लेटी हुई स्त्री से संभोग नही करना चाहिए, क्योंकि अधोमुखी स्त्री का वायु बलवान होता है, वह योनि को पीडि़त करता है। दक्षिण पाश्र्व लेटी हुई स्त्री के दक्षिण पाश्र्व में कफ होता है, जो अपने स्थान से च्यूत होकर गर्भाशय को आच्छादित करता है। वाम पाश्र्व लेटी हुई स्त्री के वामपाश्र्व में पित्त होता है जो कि प्रकुपित होकर आर्तव और शुक्र को विदग्ध करता है।
ग्राह्य आसन – उत्तान आसन को ग्राह्य आसन माना गया है। इस आसन में वातादि दोष अपने स्थान में रहते है, जिससे बीज ग्रहण करने में किसी प्रकार की परेशानी नही होती है।
इस प्रकार से संभोगकालीन आसनों और गर्भाशय में उपस्थित होने वाले दोषों का उत्पन्न होने वाले शिशु की प्रकृति पर प्रभाव पडता है। अत: गर्भाशय का स्वस्थ एवं दोषरहित होने के साथ-साथ ग्राह्य आसन एवं अनिंद्यकाल ज्ञान भी स्वस्थ सन्तानोत्पत्ति हेतु आवश्यक है।
(ख) गर्भधारण काल (Effect of season)-
वर्ष के दो भेद आदानकाल और विसर्गकाल किये गये हैं। इनमें तीन-तीन ऋतु होती है। इन ऋतुओं का शरीर पर परिणाम होकर स्वाभाविक रूप से वातादि दोषों की क्षय तथा वृद्धि होती है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में वात का संचय होता है और वर्षा ऋतु में स्वाभाविक रूप से वात का प्रकोप होता है। अत: गर्भधारण के समय जो ऋतु होती है, उसका प्रभाव भी गर्भ की प्रकृति पर होता है।
(ग) माता-पिता की वय (Effect of parent’s age) :
वयोऽहोरात्रिभुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगा: क्रमात्।
बाल्यावस्था में कफ, युवावस्था में पित्त तथा वृद्धावथा में वात स्वाभाविक रूप से प्रधान होती है। जिसके परिणामस्वरूप सर्व शरीर पर होने वाले प्रभाव से शुक्रशोणित भी प्रभावित होते है। अत: माता-पिता की वय का प्रभाव निश्चित रूप से गर्भ की प्रकृति पर पड़ता है।
काल गर्भाशय प्रकृति का अर्थ टीकाकार गंगाधर इस प्रकार से करते हैं
‘‘मातु:कैशोर यौवन तारुण्य प्रौढय़ाद्यावस्थित काले गर्भाशयस्य व्या प्रकृति:।
- मातुराहार-विहार प्रकृति (Effect of parent’s diet & habits) :
मातुराहार-विकार प्रकृति गर्भाधाने सतिमातु: यदाहारोऽभ्यवहरणं यथा-यथा च विहार स्तयोर्या प्रकृति: (टीकाकार गंगाधर)
आहार-विहार भी प्रकृति निर्माण में सहायक होते है अर्थात जिस प्रकार का आहार-विहार माता करेगी, उन्ही के गुणों के समान प्रकृति का निर्माण होगा।
सात्म्य वस्तु सेवन से उत्पन्न होते हुए गर्भ में जो भाव होते है, वे निम्नलिखित है-
आरोग्य, आलस्यरहित, अलोलूपता, इन्द्रियों की प्रसन्नता, स्वर, वर्ण एवं बीज का शुद्ध एवं गुणवत होना, सदा प्रत्येक कार्य में आनन्द की अधिकता का होना।
रसजभाव – गर्भ का पोषण माता की रस धातु से ही होता है। बिना रस के गर्भ की जीवन यात्रा सम्भव नही है। अनुचित रूप से सेवन किया गया आहार से बना रस सम्यक रूप से गर्भ का पोषण करने में समर्थ नही होता है।
गर्भ में निम्नलिखित रसजभाव होते है – शरीर को उत्पन्न करना, शरीर को बढ़ाना, शरीर से प्राण सम्बन्ध रखना (जीवित रखना), अंग-प्रत्यंगों को तृप्त करना, पुष्टि करना और उत्साह रखना है।
शुक्रशोणित में दम्पत्ति के आहार-विहार से उत्पन्न दोषों का अवस्थान होने से माता की ‘‘आहार-विहार’’ प्रकृति को प्रकृति का एक कारण माना जाता है।
परन्तु कई विद्वान माता के आहार-विहार का परिणाम ही नही अपित्तु पिता के आहार-विहार का भी प्रभाव शुक्र द्वारा गर्भ पर पड़ता है, ऐसा मानते है।
- महाभूतविकार प्रकृति (Effect of Fundamental Element) :
महाभूतविकार से भौतिकशरीर (body) अर्थ लेते है, जिसमें भूतात्मा के मिलने से चैतन्य उत्पन्न होता है। शुक्रशोणित के सयोंगोपरान्त गर्भ में धातुओं का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। गर्भ शरीर भी पाचभैतिक होता है और माता का आहार एवं उससे उत्पन्न होने वाला आहार रस भी पांचभौतिक होता है। आहार रस में जिन-जिन महाभूतों का प्रधान्य होता है उनसे धातुओं के उन-उन महाभूतों की न्यूनाधिकता होती है।
गर्भाधान में पुंबीज और स्त्री बीज में स्थित गर्भारम्भक पंचमहाभूतों में से किसी एक महाभूत की अधिकता से पार्थिव, आप्य, तेजस, वायव्य और नाभस ये पांच प्रकार की भौतिक प्रकृतियॉं होती है। उनमें से शरीर में वात वायु महाभूत का, पित्त तेजमहाभूत का और कफ जल महाभूत का प्रतीक होने से वातल, पित्तल और श्लेष्मल प्रकृति के अनुसार वायव्य, तेजस और आप्य प्रकृति का निर्माण होता है। पार्थिव प्रकृति वाला मनुष्य दृढ़ और बड़े शरीर वाला तथा क्षमाशील होता है। नाभस प्रकृति का मनुष्य शुचि (पवित्र आचरण वाला) दीर्घायु तथा मुख, नासिका, कर्णादि के बड़े छिद्रों वाला होता है।
अन्य गर्भकालज प्रकृति निर्माणक भाव
(अ.) आत्मजभाव :
अव्यक्त, अनादि इत्यादि नामों से कहा जाने वाला जीव गर्भाशय में प्रविष्ट होकर शुक्र शोणित से मिलकर अपने को स्वयं गर्भ रूप में उत्पन्न करता है। गर्भ में जो चेष्टाएं होती है अथवा उसका एक योनि से दूसरी योनि में गमन होता है। इसका कारण भी आत्मा है। इस प्रकार जायमान गर्भ आत्मा के अतिरिक्त किसी से भी उत्पन्न नही हो सकता। उत्पन्न होते हुए इस गर्भ आत्मा के आत्मज भाव निम्न है।
उस-उस विशिष्ट नाना योनियों में (मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) में उत्पन्न होना, आयु (स्वल्पायु, उत्तमायु, मध्यमायु) आत्मज्ञान, मन, इन्द्रियां, प्राण और अपानवायु का प्रेरण, धारण, आकृति, स्वर एवं वर्ण की उत्पत्ति करना सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, चेतना, घृति, बुद्धि, स्मृति, अहंकार, प्रयत्न। आत्मा निर्विकार होता है, इसलिए केवल आत्मजन्य ये भाव नही होते है किन्तु आत्म सन्निकर्षजन्य होते है। नानायोनिगमन जन्मपूर्व के आत्मज भाव है एवं आयु आत्मज्ञान आदि जन्मोत्तर आत्मजभाव होते हैं ।
मनुष्य की उत्पत्ति के साथ-साथ मानस प्रकृति निर्माण में भी ये भाव (आत्मज) सहायक होते हैं ।
(ब) सात्विक भावों का मानस-प्रकृति निर्माण में कारणत्व:
सत्व (मन) निश्चित रूप से औपपादुक (पूर्व जन्म) के शरीर से सम्बन्ध करने वाला है क्योंकि सत्व (मन) जीव का सदा स्पर्श करते हुए शरीर सम्बन्ध स्थापित करता है अर्थात् मन और आत्मा के नित्य सम्बन्ध से ही संसार चलता है। जब मन और जीवात्मा का सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। तब आत्मा स्वतंत्र होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाती है तथा संसार समाप्त हो जाता है। सत्व का निश्चित रूप से शरीरान्तर से भी सम्बन्ध होता है।
चरक संहिता में दयावृत्ति, संविभाग-रूचिता, क्षमा, सत्य, धर्म, आस्तिक्य, बुद्धि, ज्ञान-बुद्धि धारण करने की शक्ति, स्मृति धृति और अनासक्ति सात्विक गुण बतायें हैं।
राजस भाव (Rajas Bhava) –
गर्भ के निम्नलिखित भाव राजस भाव कहलाते हैं (ईर्ष्या या द्वेष)-बहुत बोलना, अहंकार, लोलूपता, दम्भ, मान, क्रोध, हर्ष एवं काम।
टीकाकार अरूणदत्त ने बहुभाषित्व, मान, क्रोध, दम्भ एवं मात्र्स्य की गणना करते हुए इनको उपलक्षण मात्र मानकर शौर्य, दुरुपचारता, लोलुपता, हर्ष एवं काम राजस भाव कहे हैं । दु:ख की बहुलता, भ्रमण की प्रवृत्ति, अधीरता, अहंकार, सत्य बोलने की प्रवृत्ति, क्रूरता, दंभ, मान, हर्ष, काम और क्रोध भी राजस् गुण माने जाते हैं ।
तामस भाव (Tamas Bhava) – अज्ञान, विशाद, प्रमाद, निद्रा, आलस्य, क्षुधा, तृष्णा, शोक, मात्सर्य, दूसरों के साथ विरोध एवं दूसरों में फूट डालना तथा सत्त्व के विपरीत आचरण करना। भय, अज्ञान, निद्रा, आलस्य एवं विषाद के अलावा प्रमाद एवं शोकादि को भी अरूणदत्त ने तामस् भाव माने हैं । विषादित्व, आस्तिक्य अधर्मशीलता, बुद्धि का निरोध, अज्ञान मूढ़ता, अकर्मशीलता, निद्रालुता तामस् गुण कहे हैं ।
- जाति प्रसक्तादि भाव (Effect of Breed etc.) :
प्रकृति निर्मापक अन्यभाव जो प्रकृति निर्माण में सहायक होते हैं उन्हें जाति प्रसक्तादि भाव कहा गया है।
जाति प्रसक्ता भाव (Effect of Breed etc.) – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि जातियों के शारीरिक एवं मानसिक, सबलता एवं निर्बलता की दृष्टि से आहार-विहार आदि विशिष्ट तवों का प्रभाव ।
कुल प्रसक्ता भाव (Effect of culture)- कुल की रीति विशिष्टता का प्रभाव । माता-पिता तथा उनके पूर्वजों के शारीरिक, मानसिक एवं उनके गुण अवगुण तथा विशिष्ट रोग एवं अन्य विशेषताओं का वंश में जो परम्परा का संचार होता है, उसे कुल प्रसक्ता भाव कहते है, जिससें कुल प्रसक्ता प्रकृति का निर्माण होता है।
देश प्रसक्ता भाव (Effect of locality) – मनुष्य की प्रकृति पर जिस देश में वह रहता है, वहॉं की जलवायु एवं आहार-विहार का प्रभाव प्रकृति पर पड़ता है क्योंकि विभिन्न देश की जलवायु में अन्तर होता है। जैसे – जाङगल प्रदेश (dry climete) के लोगों में वात-पित्त दोष बहुल होते हैं, आनुप प्रदेश (moist climete) के लोग वात-कफ दोष बहुल तथा साधारण प्रदेश के लोग समदोष वाले होते हैं।
काल प्रसक्ता भाव (Effect of enviroment) – ऋतु का प्रकृति के ऊपर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। आचार्य चक्रपाणि ने काल से कृतयुग, द्वापर युग तथा कलियुग आदि विशिष्ट काल को ग्रहण किया है। कृतयुगादि काल का प्रभाव प्रकृति आदि पर दिखाई पड़ता है।
वय प्रसक्ता भाव (Effect of age) – बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था का प्रभाव भी प्रकृति पर होता है यथा बाल्यावस्था में कफ का प्रकोप होने के कारण प्रकृति के समान शारीरिक कुछ लक्षण भी जैसे – त्वचा की स्निग्धता, निद्राधिक्यता, कोमलता आदि मिलते है।
प्रत्यात्म नियता भाव ( Effect of individuality )-
इसके अंतर्गत वैयक्तिकी विविधताओं, शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, बौद्धिक एवं व्यावसायिक व्यक्तिनिष्ठ भावों का ग्रहण किया जाता है। उक्त सभी भावों का समन्वय होकर व्यक्तिगत रूप में निर्मित हुई जो विषिष्ट प्रकृति है। उससे आहार-विहार, आचार-विचार, बुद्धि, मेधा, सात्म्य, बल अग्नि, कोष्ठ, इन्द्रिय, मन आदि व्यक्तिगत बनते हैं ।
त्रिदोषों के विषिष्ट गुणों के अनुसार सम्पूर्ण देह में, देह के अवयव और अणु में देह रचना, क्रिया में और मानसिक क्रिया में प्रभाव पड़ता है। उक्त समस्त भाव मिलकर ही देह एवं मानस प्रकृति निर्माण करते हैं ।
गर्भोत्पत्ति के षड़भावों का समावेष चार प्रकार की प्रकृतियों में किया जा सकता हैं-
- शुक्रशोणित प्रकृति – मातृज-पित्तृज भाव
- काल गर्भाशय प्रकृति –
- मातुराहार-विहार प्रकृति – सात्म्य और रसज भाव
- महाभूत विकार प्रकृति – सत्त्वज और आत्मज भाव
प्रकृति प्रकार (Types of Prakuti)
प्रकृतियां दो प्रकार की होती है
- देह प्रकृति
- मानस प्रकृति 1. देह प्रकृति के भेद (Types of Deha Prakuti) :
देह प्रकृति को दोषजप्रकृति भी कहा है। चरक ने देह प्रकृति का वर्णन करते हुए सूत्र स्थान में सात प्रकार की प्रकृति दोषानुसार बतायी है। यहॉ सम प्रकृति वाले व्यक्तियों कों स्वस्थ बताया गया है।
चरक विमान स्थान में भी सात प्रकार दोषाधिक्य से प्रकृति के 7 भेद बताये गये है।
- वातल प्रकृति 2. पित्तल प्रकृति
- श्लेष्मल प्रकृति 4. वात-पित्तल प्रकृति
- वात-श्लेष्मल प्रकृति 6. पित्त-श्लेष्मल प्रकृति
- समधातु प्रकृति
आचार्य सुश्रुत ने भी दोषानुसार उक्त सात भेद ही बताये है। अष्टांग संग्रह एवं अष्टांग हृदय में वाग्भट्ट ने एवं अन्य आचार्यों ने भेल संहिता, शारङगधर संहिता, भावप्रकाश भी उक्त सात ही भेद बताये है। हारित संहिता में दोषानुसार चार प्रकृतियों का वर्णन उपलब्ध होता है –
- वात प्रकृति 2. पित्त प्रकृति
- कफ प्रकृति 4. सन्निपात प्रकृति
काश्यप संहिता में सात भेदों के अलावा मुख्य रूप से तीन भेदं प्रकृति के बताये हैं-
- वातस्थूणा 2. पित्तस्थूणा 3. श्लेष्मस्थूणा
मानस प्रकृति के भेद:-
मन के अनुसार यह तीन प्रकार की बताई है।
चरकसंहिता में मानस प्रकृति के तीन भेद बताये गये हैं यथा –
- सात्त्विक प्रकृति
- राजसिक प्रकृति
- तामसिक प्रकृति
सात्त्विक के 7, राजस के 6 एवं तामस के 3, इस प्रकार कुल 16 उपभेद मानस प्रकृति के होते है।
सुश्रुत संहिता में भी 3 भेद बताये गये हैं यहॉं काय शब्द प्रकृति का बोधक है। इन तीनों के 16 उपभेद हैं ।
अष्टांग संग्रह – सात भेद बताये गये हैं।
- सात्त्विक प्रकृति 2. राजसिक प्रकृति 3. तामसिक प्रकृति 4. सत्वराजसिक प्रकृति 5. सत्वतामसिक प्रकृति 6. राजसतामसिक प्रकृति 7. समगुणप्रकृति
अष्टांग हृदय – मानस प्रकृतियों के भेदों का वर्णन प्राप्त नहीं होता है, सिर्फ सात्विक, राजसिक एवं तामसिक भावों का वर्णन उल्लिखित है। इन्ही गुणों के आधार पर सात्विकादि प्रकृति समझते है।
देह प्रकृति के भेदों के लक्षण (Characteristics of each kind of Deha-Prakriti)
वात प्रकृति के पुरूष के लक्षण (Characteristics of Vata-Prakriti)
तस्य रौक्ष्याद्वातला रूक्षापचिताल्पशरीरा: प्रततरूक्षक्षामसन्नसक्तजर्जरस्वरा जागरूकाश्च भवन्ति, लघुत्वात् लधुचपलगति चेष्टाहारव्याहारा:, चलत्वादनवस्थितसन्ध्यक्षिभ्रूहन्वोष्ठजिहृाशिर: स्कन्दपाणिपादा:, बहुत्वाद् बहुप्रलाप कण्डरासिराप्रताना:, शीघ्रत्वाच्छीघ्रसमारम्भ क्षोभविकारा: शीघ्रत्रास राग विराग: श्रुताग्रहिणोऽल्पस्मृतयश्च, शैत्याच्छीतासहिष्णव: प्रततशीतकोद्वेषकस्तम्भा:, पारूष्यात् परषकेशश्मश्रु रोम नखदशनवदन पाणिपादा:, वैशद्यात् स्फुटितांगावयवा: सततसन्धि शब्द गामिनश्च भवन्ति, त एवं गुणयोगाद्वातला: प्रायेणाल्पबलाश्चाल्पायुश्चाल्पापत्याश्चाल्प साधनाश्चाल्पधनाश्च भवन्ति।। (च0वि0 8/100)
वायु रूक्ष, लघु, चल, बहु, शीघ्र, शीत, परुष, विषद गुणयुक्त होता है। वायु के रूक्ष गुण के कारण वात प्रकृति वाले मनुष्य का शरीर रूखा, कृष और छोटा होता है। उनका स्वर अत्यंत रूक्ष, क्षाम, भिन्न, मंद, सक्त और जर्जर होता है। उन्हें निद्रा कम आती है। वायु के लघु होने से वात प्रकृति वाले मनुष्यों की गति चेष्टा एवं आहार लघु एवं चंचल होता है अर्थात् गति और चेष्टाएं थोड़ी और अनियमित होती है, भोजन थोड़ा और बार-बार होता है। वायु के चल गुण होने से वात प्रकृति वाले मनुष्य की संधि, हड्डी, भ्रु, हनु, ओठ, जीभ, शिर, कंधा, हाथ और पैर चंचल होते हैं। वायु में बहुगुण होने के कारण वात प्रकृति वाले अधिक बोलते हैं और उनके शरीर में कण्डरा तथा शिराओं का प्रसार अधिक दिखाई पड़ता है। वायु के शीघ्र गुण होने के कारण वात प्रकृति वाले मनुष्य सभी कार्यो को शीघ्र ही आरम्भ करते है और उनके मन में शीघ्र ही क्षोभ (दु:ख) उत्पन्न होता है। रोग भी शीघ्र ही उत्पन्न होते हैं। वे शीघ्र ही भय, प्रेम और वैराग्य से युक्त होते है और वात प्रकृति वाले किसी भी बात को सुनकर शीघ्र ही ग्रहण कर लेते हैं। पर उन्हें शीघ्र ही भूल भी जाते है। वायु के शीतगुण होने के कारण वातप्रकृति वाले मनुष्य शीतलता को नही सहने वाले होते हैं। उन्हें निरन्तर शीतजन्य विकार, कम्प तथा स्तम्भ (जकड़ाहट) होती रहती हैं। वायु के परुश होने के कारण वात प्रकृति वाले पुरुष के केष, दाढ़ी, रोम, नख, दॉंत, मुख, हाथ-पैर तथा शरीर के अन्य अंग परुश अर्थात खुरदरें होते है। वायु के विषद होने से वातप्रकृति वाले मनुष्य के अंग एवं प्रत्यंग फटे हुए होते हैं और उनकी संधियों से चलते समय निरन्तर शब्द निकलते रहते है। इस प्रकार इन उपर्युक्त गुणों के संयोग से वातप्रकृति वाला मनुष्य प्राय: अल्पबल वाला, कम आयु वाला, कम सन्तान वाला और कम साधन सामग्री वाला एवं दरिद्र होता है।
वातप्रकृति मनुष्य जागने वाला, शीत से द्वेष करने वाला, देखने में कुरुप, चोर, द्वेष बुद्धिवाला, अनार्य, गन्धर्व चित्त, हाथ-पैर फटे हुए, श्मश्रु, नख और केश छोटे एवं रुक्ष, हिंसाशील, सोते हुए दॉंतों को कट-कटाने वाला होता है।
वातप्रकृति मनुष्य धैर्यरहित, कच्ची मित्रता वाला, कृतघ्न, कृश, कठोर धमनियां दिखती है, बहुत बोलने वाला, जल्दी-जल्दी चलने वाला, इधन-उधर घूमने के स्वभाव का, अस्थिर चित्त वाला होता है। सोते हुए स्वप्न में आकाश में जाते हुए देखता है, अस्थिर बुद्धि, चंचल दृष्टि वाला होता है। इसके रत्न, धनसंचय और मित्र कम होते है। कुछ न कुछ बिना मतलब और बिना प्रसंग के बोलता रहता है।
सब दोषों में वायु के प्रबल होने से प्राय: करके वायु की अधिकता वाले मनुष्य वातदोष वाले, फटे हुए धूसर बाल एवं शरीर वाले, शीत से द्वेष रखने वाले, अस्थिर धृति, स्मृति, बुद्धि चेष्टा वाले, अस्थिर मित्रता, बहुत बोलने वाले, थोड़े धन, बलजीवन एवं निद्रा वाले, रूकी हुई अटकने वाली, चंचल तथा फटी हुई वाणी वाले, बहुत खाने वाले, विकासी गीत, हास्यमृगया और झगड़े में रूचि वाले, मधुर, अम्ल, लवण उष्ण के अभ्यास तथा चाह वाले लम्बे, पतले शरीर वाले, चलते हुए शब्द करने वाले, न तो दृढ़, न जितेन्द्रिय और न सन्त, न स्त्रियों के प्रिय और न बहुत सन्तति वाले होते हैं। इनके नैत्र कठोर धूल से भरे हुए के समान ओर गोल देखने में सुन्दर नही होते तथा मृत के समान सोते हुए खुले रहते है, स्वप्न में ये पहाड़, वृक्ष और आकाश में घूमते हैं । वातप्रकृति मनुष्य अभाग्शाली, द्वेष से भरे, चोर, अधिक उभड़ी हुई पिण्डलियों वाले, कुत्ता, गीदड़, चूहा, ऊँट और कौआ इनके स्वभाव के होते हैं।
जिस व्यक्ति के केश छोटे-छोटे, शरीर दुर्बल एवं रूक्ष हो, जिसकी मानसिक प्रवृत्तियां चंचल एवं वाचालता हो, जो व्यक्ति स्वप्न में वायुयानों में अथवा बिना किसी साधन के स्वयं उड़ता हो, ऐसे व्यक्ति वात प्रकृति के होते है।
जो कृष्णवर्ण, चंचल, अत्यंतकृष, अल्पकेश, रूक्ष शरीर, बलवान, सामर्थ्यवान, छोटे दॉंतों वाला, नखों की वृद्धि वाला, उच्च स्वर वाला, चक्रमण समर्थ, शीघ्रगामी, लोभी, सत्त्वहीन तथा खट्टारस खाने की इच्छा वाला, अच्छी प्रकार स्वेदन और मर्दन से सुखी हो, वह वात प्रकृति वाला होता है।
अल्प: केश: कृशो रूक्षो वाचालश्चमानस:।
आकाशचारी स्वपनेषु वात प्रकृतिको नर:।। (सु. 6/20)
अर्थात वात प्रकृति वाला पुरूष अल्प केशयुक्त, कृश तथा रूक्ष शरीर वाला, अधिक बोलने वाला चपल तथा स्वप्न में आकाशं में विचरण करने वाला होता है।
वातिकाश्चाजगोमायुशशाखूष्ट्रशनां तथा।
गृध्र काक खरादीनामनूकै: कीर्तिता नरा:।।(सु.शा. 4/66)
वातप्रकृति का मनुष्य बकरी, गीदड़, खरगोश, चूहा, ऊॅंट, कुत्ता, गिध, कौआ, गधे के समान स्वभाव वाला होता है। अर्थात वात प्रकृति व्यक्ति पशुओं के समान स्वभाव वाला चपल, अदृढ़, मत्सर, ओर भीरू स्वभाव वाला होता है।
श्वश्रृगालोष्ट्र गृघ्राखुकाकाऽनुकाश्च वातिका:।। (अ.हृ.शा. 3/56)
गीदड़, ऊँट, कौवे, गिद्द, चुहे के स्वभाव वाले व्यक्ति को वात प्रकृतिका जानना चाहिये।
पित्तप्रकृति के लक्षण (Characteristics of Pitta-Prakriti) :
पित्तमुष्णं तीक्ष्णं द्रवं विस्रमम्लं कटुकञ्च । तस्यौष्ण्यात् पित्तला भवन्त्युष्णासहा, उष्णमुखा:, सुकुमारावदातगात्रा:, प्रभूतविप्लुव्यङ्गतिलपिडका:, क्षुत्पिपासावन्त:, क्षिप्रवलीपलितखालित्यदोषा:, प्रायोमृद्वल्पकपिलश्मश्रुलोमकेशाश्चय तैक्ष्ण्यात्तीक्ष्णपराक्रमा:, तीक्ष्णाग्नय:, प्रभूताशनपाना:, क्लेशासहिष्णवो, दन्दशूका:; द्रवत्वाच्छिथिलमृदुसन्धिमांसा:, प्रभूतसृष्टस्वेदमूत्रपुरीषाश्चय विस्रत्वात् प्रभूतपूतिकक्षास्यशिर:शरीरगन्धा:; कट्वम्लत्वादल्पशुक्रव्यवायापत्या:; त एवं गुणयोगात् पित्तला मध्यबला मध्यायुषो मध्यज्ञानविज्ञानवित्तोपकरणवन्तश्च भवन्ति।। (च. वि. 8/97)
दन्दशूका: पुन: पुनर्भक्षणशीला:। प्रभूताशनत्वं तु बहुभक्षणत्वेनद्य प्रभूत: पूति: कक्षाप्रभृतिषु गन्धो येषां ते तथा।। (च. वि. 8/97 पर चक्रपाणि)
पित्त, उष्ण, तीक्ष्ण, द्रव, विस्र, अम्ल एवं कटु गुणयुक्त होता है। पित्त के उष्ण गुण होने से पित्त प्रकृति के मनुष्य उष्ण वातावरण में रहना पसन्द नही करते । अर्थात उन्हें सहन नही होता । उनका मुख उष्ण होता है। वे सुकुमार और गोरवर्ण होते है। उनके शरीर के ऊपर विप्लु, व्यंग, तिल एवं पिडिक़ाएं अधिक होती है। उन्हें भूख और प्यास अधिक लगती है। शीघ्र ही अर्थात समय से पहले वली, पलित और खालित्य दोषयुक्त पित्तप्रकृति वाले होते हैं। प्राय: दाढ़ी के बाल, शरीर के रोम, शिर के बाल मृदु, अल्प और कपिलवर्ण के होते है। पित्त के तीक्ष्णगुण होने वे पित्तप्रकृति वाले तीक्ष्ण पराक्रम एवं तीक्ष्ण अग्नि वाले, अधिक मात्रा में खाने-पीने वाले, कष्ट को न सहन करने वाले एवं बार-2 खाने वाले होते हैं। पित्त के द्रवगुण होने से पित्त प्रकृति वाले मनुष्य की संधियां एवं मांसपेशियॉं शिथिल एवं कोमल होती है और पसीना, मूत्र और मल अधिक मात्रा में करने वाले होते हैं। पित्त के विस्र होने के कारण पित्तप्रकृति वाले मनुष्य की कांख, मुख, शिर और शरीर से अधिक दुर्गन्ध निकलती है। पित्त के कटु एवं अम्ल रस होने के कारण पित्तप्रकृति वाले पुरुष अल्पशुक्र, अल्पमैथुनशक्ति, अल्प पुत्र वाले होते है। इस प्रकार उपर्युक्त गुणों के संयोग से पित्तप्रकृति के मनुष्य मध्यबल, मध्यआयु, मध्यज्ञान, विज्ञान, धन एवं उपकरण वाले होते हैं।
पित्तप्रकृति मनुष्य को पसीना बहुत आता है, शरीर से दुर्गन्ध आती है, इसके अंग पीले और ढीले रहते है। नख, ऑंख, तालु, जिव्हा, औष्ठ, पैर-हाथ के तलुए ताम्रवर्ण, देखने में बहुत सुन्दर नही, थोड़ा भाग्यवान, झुर्रियां, बालों का श्वेत होना, बालों का गिरना, बहुत खाने वाला, उष्ण से द्वेष रखने वाला, जल्दी कुपित्त एवं प्रसन्न होने वाला, मध्यम बल और मध्यम आयु का होता है। यह मनुष्य बुद्धिशाली, चतुर-अक्ल वाला, जबरदस्त बोलने वाला, तेजस्वी, सभाओं में न हारने वाला होता है। सोते हुए स्वर्ण, ढाक, अमलतास, अग्नि, विद्युत, उल्कापात को देखता है। भय से किसी के आगे नही झूकता, न झूकने वालों के लिए कठोर, झूकने वालों के लिए सान्त्वना, दान देने की प्रकृति का, इसकी गति सदा चंचल रहती है। इस प्रकार का मनुष्य पित्त प्रकृति होता है। सॉंप, उल्लू, गन्धर्व, यक्ष बिल्ली, बन्दर, व्याघ्र, रीछ, नकुल के स्वभाव वाले पित्त प्रकृति के मनुष्य होते है।
पित्त अग्नि है अथवा पित्त अग्नि से उत्पन्न हुआ है इसलिए पित्त की अधिकता वाले व्यक्ति तीक्ष्ण प्यास एवं भूख वाले, गौर वर्ण एवं उष्ण अंगों वाले, ताम्रवर्ण हाथ-पैर और मुखवाले, शूर अभिमानी पिंगल केश वाले, थोड़े रोम वाले, माल्य विलेय और आभूषणों की चाह वाले, सच्चरित्र पवित्र, अपने आश्रितों का प्रिय करने वाले, धन, साहस, बुद्धि और बल से युक्त तथा संकटकाल में दुष्मनों के भी रक्षक होते है। बुद्धिशाली, ढीले, संधिबंधन और मॉंस वाले, स्त्रियों के प्रिय, थोड़े शुक्र एवं थोड़ी कामेच्छावाले, पलित, तरंग, व्यंग एवं नीलिकाआदि के स्थान अर्थात इनसे युक्त होते है और मुधुर, कषाय, तिक्त एवं शीतल अन्न को खाते हैं। धूप से द्वेष करने वाले, अधिक पसीने वाले, दुर्गन्ध वाले, बहुत मल, क्रोध, मान, ईष्र्या वाले होते हैं तथा सोते हुए स्वप्न में अमलतास के फूल, ढाक, दिशाओं में लगी आग, उल्का, विद्युत, सूर्य, अग्नि आदि को देखते हैं। इनकी ऑंखें पतली या छोटी, पिंगल वर्ण और चंचल, पतली एवं थोड़ी पलकों वाली तथा शीत प्रिय होती हैं। वे क्रोध, भय एवं सूर्य की किरणों से तुरन्त लाल हो जाती है। पित्त प्रकृति वाले मनुष्य, मध्यम आयु वाले, मध्यम बल, मण्डित क्लेश से डरने वाले एवं व्याघ्र, भालू, बन्दर, बिल्ली और यक्ष के स्वभाव वाले होते हैं।
जिस व्यक्ति के केश युवावस्था में श्वेत हो गये हो, जो बुद्धिमान एवं क्रोधी तथा जिसे पसीना थोड़ा परिश्रम करते ही आ जाता हैं, स्वप्न में जो व्यक्ति आकाश के सूर्य, तारामण्डल, विद्युत आदि दीप्तिमान वस्तुओं को देखता हैं, वह व्यक्ति पित्त प्रकृति का होता है।
गौर, अतिपिंगलवर्ण, सुकुमार देह, शीतल द्रव्य से प्रसन्न, मधुवर्ण के समान पिंगल वर्ण नैत्रों वाला, तीक्ष्ण स्वभाव वाला, क्रोधी, क्षणभंगुर प्रकृति वाला, दु:खयुक्त कोमल शरीर, रोमहीन, जीभ चटोर, तिक्त रस खाने की इच्छा वाला, द्वेषी, तेज स्वभाव वाला, नवीन एवं उष्ण द्रव्य सेवन प्रिय, प्रशंसाप्रिय और निर्मल दॉंतवाला मनुष्य पित्तल प्रकृति वाला होता है।
अकाले पलितैव्र्याप्तो धीमान् स्वेदी च रोषण:।
स्वप्नेषु ज्योतिषां द्रष्टा पित्तप्रकृतिकोनर:।।
पित्त प्रकृति पुरूष के केश असमय मे ही श्वेत हो जाते है। बुद्धिमान होता है। स्वेद तथा क्रोध बहुत आता है। तथा स्वप्न में अग्नियाँ देखता है।
भुजंगोलूक गन्धर्वयक्षमार्जार वानरै:।
व्याघ्रक्र्षनकुलानूकै: पैत्तिकास्तु नरा: स्मृता।।
पित्त, प्रकृति का पुरूष सर्प, उल्लु, गन्धर्व, यक्ष, बिल्ली, बन्दर, व्याघ्र, रीछ ओर नेवले के स्वभाव के समान स्वभाव वाला होता है।
माध्ययुषो मध्यबला: पण्डिता: क्लेशभीरव:।
व्याघ्रक्षकपिमार्जारयक्षानूकाश्च पैत्तिका:।।
पित्त प्रकृति के पुरूष की आयु मध्यम, बल मध्यम होता है। वह विद्वान होता है। क्लेश को सहन नही कर सकता तथा व्याघ्र रीछ बन्दर बिल्ली और यक्ष के स्वभाव वाला होता है।
श्लेष्म प्रकृति के लक्षण (Characteristics of Kapha-Prakriti)
श्लेष्मा हि स्निग्धश्लक्ष्णमृदुमधुरसारसान्द्रमन्दस्तिमितगुरुशीतविज्जलाच्छ:।
तस्य स्नेहाच्छ्लेष्मला: स्निग्धाङ्गा:, श्लक्ष्णत्वाच्छ्लक्ष्णाङ्गा:, मृदुत्वाद्दृष्टिसुखसुकुमारावदातगात्रा:, माधुर्यात् प्रभूतशुक्रव्यवायापत्या:, सारत्वात् सारसंहतस्थिरशरीरा:, सान्द्रत्वादुपचितपरिपूर्णसर्वाङ्गा:, मन्दत्वान्मन्दचेष्टाहारव्याहारा:, स्तैमित्यादशीघ्रारम्भक्षोभविकारा:, गुरुत्वात् साराधिष्ठितावस्थितगतय:, शैत्यादल्पक्षुत्तृष्णासन्तापस्वेददोषा:, विज्जलत्वात् सुश्लिष्टसारसन्धिबन्धना:, तथाऽच्छत्वात् प्रसन्नदर्शनानना: प्रसन्नस्निग्धवर्णस्वराश्च भवन्ति।
त एवं गुणयोगाच्छ्लेष्मला बलवन्तो वसुमन्तो विद्यावन्त ओजस्विन: शान्ता आयुष्मन्तश्च भवन्ति (च. वि. 8/96)
मृदुत्वं जलकृतम्। अवदातगात्रा इति मृदुत्वादेवावदातत्वम्। अशीघ्रशब्द आरम्भादिभि: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। सारगतयो न स्खलन्ति, अधिष्ठितगतय: सर्वेण पदेन महीमाक्रामन्ति, अवस्थितगतय इति अवस्थितत्वेन न चपला गतिर्भवति। प्रसन्ने दर्शनानने यस्य स तथा। वसुमत्त्वादि प्रकृतिरूपं यद्भवति, तत् प्रकृतिप्रभावाज्ज्ञेयम्।। (च. वि. 8/96 पर चक्रपाणि)
कफ, स्निग्ध, श्लक्ष्ण, मृदु, मधुर, सार, सान्द्र, मन्द, स्तिमित, गुरु, शीत, पिच्छिल और स्वच्छ होता है। उस कफ के स्निग्ध होने से कफ प्रकृति वाले मनुष्य स्निग्ध अंग वाले होते है। श्लक्ष्ण होने से श्लक्ष्ण अंग वाले होते हैं। मृदु होने के कारण देखने में सुन्दर, सुकुमार और गौरवर्ण के होते हैं। मधुर होने के कारण कफ प्रकृति वाले मनुष्य अधिक शुक्र वाले, अधिक मैथुन करने में समर्थ और अधिक सन्तान वाले होते हैं। सार गुण होने से सार और संगठित एवं स्थिर शरीर वाले होते हैं। कफ के सान्द्र गुण होने से कफ प्रकृति वाले मनुष्य के सभी अंग पुश्ट और परिपूर्ण होते हैं। कफ के मंद गुण होन से कफ प्रकृति वाले मंद चेष्टा, अल्प आहर-विहार करने वाले होते हैं। कफ के स्तिमित गुण होने से कफ प्रकृति वाले मनुष्य किसी भी कार्य को शीघ्र नही करते है। अर्थात सोच-विचार कर या आलस्य से देर से करते हैं । कभी भी उनके मन में क्षोभ (दु:ख) एवं विकार नही होते अथवा देर से और कम होते है। कफ के गुरु गुण होने के कारण कफ प्रकृति वाले की गति दृढ़ और निश्चित रूप से होती है। कफ की शीत गुण होने के कारण कफ प्रकृति वाले मनुष्यों को भूख, प्यास, ताप, पसीना और दोष कम कश्ट देते है। कफ का पिच्छिल गुण होने से कफ प्रकृति वाले मनुष्यों का संधिबंधन एक में सटा हुआ और बलवान होता है। कफ के अच्छ गुण होने से कफ प्रकृति वाले मनुष्यों की दृष्टि, मुख प्रसन्न एवं स्निग्ध दिखाई पड़ते हैं और उनके वर्ण और स्वर भी स्निग्ध एवं प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार इन उपर्युक्त गुणों के कारण कफ प्रकृति वाले मनुष्य बलवान, धनी, विद्या वाले, ओजस्वी, शांत और अधिक आयु वाले होते हैं।
कफ प्रकृति के मनुष्य श्वेतदूर्वा, नीलकमल, तलवार, गीला अरोठा, शरकण्डे का काण्ड। इनमें से किसी एक के समान वर्ण वाले, देखने में सुन्दर, प्रियदर्शन, मधुर रस को चाहने वाले, कृतज्ञ, धैर्यशाली, सहनशील, लोभरहित, बलवान, देर से समझने वाले और दृढ़वैर वाले होते हैं। इनकी ऑेंखें श्वेत रहती है, बाल दृढ़, घुंघराले, भ्रमर के समान नीलवर्ण होते हैं। मनुष्य लक्ष्मशाली, इसकी आवाज बादल, मृदंग या सिंह की गर्जना की भॉंति गंभीर होती है। सोते हुए कमल, हंस, चक्रवाक एवं सुन्दर जलाशयों को देखता है। ऑंखें किनारों से लाल, अंगों की रचना पृथक-2, स्निग्ध कान्ति वाला, सत्वगुण से युक्त, क्लेश को सहने वाला, गुरुओं का आदर करने वाला मनुष्य कफ प्रकृति का होता है। इसका शास्त्रज्ञान दृढ़ होता है, मित्र और धन स्थिर रहते है। बहुत विचारकर, देर में बहुत देता है। इसके वाक्य पद सदा नियमित रहते हैं। यह व्यक्ति सदा ही गुरुओं का आदर करता है। इसका स्वभाव ब्रह्म, इन्द्र, वरूण, सिंह, घोड़ा, हाथी, गाय, बैल, गरूड़, हंस के समान होता है।
कफ सोम है, इसलिए कफ प्रकृति के मनुष्य भी सौम्य होते हैं। इनकी संधि, अस्थि और मांस, गूढ, स्निग्ध और खूब ष्लिष्ट होती है। भूख, प्यास, दु:ख, मानसिक क्लेश, धर्म (धूप) से पीडि़त न होने वाले, बुद्धि से युक्त, प्रशस्त सत्त्व और सत्य प्रतिज्ञा वाले होते हैं। इनका रंग, प्रियंगु, दुर्वा, शरकाण्ड, शस्त्र, गोरोचन, कमल एवं सुवर्ण के समान होता है। यह लम्बी बाहु, विस्तृत और भरी हुई छाती, विशाल ललाट तथा घने एवं नील वर्ण के बालों वाले, कोमल अंगों तथा समान एवं भली प्रकार विभक्त, सुन्दर शरीर, ओज, रति, रस, शुक्र, पुत्र एवं भृत्य की अधिकता वाले धर्मात्मा कभी भी कठोर न बोलने वाले होते है तथा छिपे हुए और दृढ वैर को देर तक रखते है, मदवाले, गजपति के समान गति वाले, बादल समुद्र, मृदंग या सिंह के समान शब्द वाले, प्रशस्त स्मृति, शोभन, अभियोगी, विनयी, बाल्यावस्था में भी न बहुत रोने वाले और न बहुत लालची होते है तथा तिक्त, कषाय, कटु, उष्ण, रुक्ष और थोड़ा खाने पर भी बलवान रहते हैं। ऑंखें किनारों से लाल, चिकनी, विशाल और अतिस्पष्ट श्वेत एवं कृष्ण भाग तथा पलकों के बाल वाली होती है। बोलना, भोजन, क्रोध, पान आदि की इच्छा थोड़ी होती है। यह प्रभूत आयु एवं वित्त वाले, दूरदर्शी, मीठा बोलने वाले, दान में श्रद्धाशील, गंभीर, भूरिदाता अथवा बड़े विचारों वाले, क्षमाशील, आर्य, निद्रा की अधिकता वाले, देर में क्लम करने वाले, कृतज्ञ, अकुटिल चित्त, पण्डित, भाग्यवान, लज्जाशील, गुरुजनों के भक्त एवं दृढ़ मित्रता वाले, स्वप्न में कमल एवं पक्षियों के झूण्ड से भरे जलाशयों और बादलों को देखते हैं । कफ प्रकृति वाला मनुष्य ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, ताक्ष्र्य, हंस, गजेन्द्र, सिंह घोड़ा, गाय और बैल इनके समान स्वभाव का होता है।
जिस व्यक्ति के केश स्निग्ध, गंभीर, बुद्धि, शरीर भरा हुआ और बहुत अधिक बलयुक्त हो स्वप्न में तालाब, नदी, झील आदि को देखता हो वह व्यक्ति श्लेष्म प्रकृति का होता है।
स्निग्ध वर्णवाला, श्वेत नैत्र, शीघ्र ही तृप्त होने वाला, श्याम वर्णवाला, अच्छे बालोंवाला, लम्बे नख और रोमवाला, बोलने में गाम्भीर्य रखने वाला, वेदशास्त्र, निद्रा-तन्द्रा, प्रिय, तिक्त, कटु उष्ण भोजन करने वाला, शरीर से मोटा, स्निग्ध रस सेवा, संगीत, वाद्य प्रेमी, अत्यन्त शांत स्वभाव वाला, व्यायाम करने वाला, रति की कामना वाला मनुष्य कफ प्रकृति वाला होता है।
गम्भीर बृद्धि: स्थूलांग: स्निग्धकेशो महाबल:।
स्वप्ने जलाशयलोकी श्लेष्मप्रकृतिको नर:।।
कफ प्रकृति पुरूष गम्भीर बुद्धि, स्थूल अंग, स्निग्ध केश, अति बलवान तथा स्वप्न में जलाशय देखने वाला होता है।
ब्रह्मारूद्रेन्द्र वरूणै: सिहाश्वगजगोवृषै:।
ताक्ष्ये हंस समानूका: श्लेष्मप्रकृतिको नर:।।
कफ प्रकृति का पुरूष ब्रह्म, रूद्र, इन्द्र, वरूण, सिंह, धोड़ा, हाथी, गौ, सांड, गरूड ओर हंस के समान स्वभाव वाला होता है।
द्वन्द्वज प्रकृतियों के लक्षण:
यदि एक ही पुरुष में दो-2 प्रकृतियों के लक्षण मिल जाए तो उसे द्वन्द्वज प्रकृति वाला कहा जाता है।
दो या तीन दोषों के मिश्रित लक्षणों से संसर्गज प्रकृतियों को समझा जा सकेता है।
संसर्गात् संसृष्टलक्षणा:।। (च. वि. 8/99)
दो या सभी (तीनों) दोषों के गुणों (लक्षणों) के मिलने पर द्वन्द्वज (तीन) और त्रिदोषज (एक) प्रकृति समझना चाहिए।
समधातु प्रकृति के लक्षण:
तीनों दोषों की प्रकृतियों के लक्षण यदि एकत्र पाये जाए तो उन्हें समधातु प्रकृति वाला कहा जाता है।
समदोष प्रकृति ही उत्तम है, शेष एक-2 दोषों की अधिकता या दो-2 दोषों की अधिकता वाली प्रकृतियां अच्छी नही होती क्योंकि उनमें प्रबल दोष जनित विकार स्वभावत: रहते ही है।
जिस व्यक्ति में दो दोषों के लक्षण मिले हो अथवा तीनों दोषों के कुछ लक्षण मिलते हो तो उसे मिश्र प्रकृति का समझना चाहिए।
मिश्रित वर्ण और देदीप्यमान शरीर वाला, गंभीर धीर, विरल बालों वाला, स्त्री से प्यार करने वाला, बोझ को सहन करने वाला, सभी प्रकृतियों से मिला हुआ और भोगी स्वभाव वाला मनुष्य सम प्रकृति का होता है।
मानस प्रकृति (Manas Prakruti) :
मानस प्रकृतियों के निम्न 3 भेद किये जा सकते हैं –
- सात्त्विक प्रकृति
- राजस प्रकृति
- तामस प्रकृति
आचार्य सुश्रत ने मानस प्रकृति के उपभेदों के लिए काय शब्द का प्रयोग किया है जबकि आचार्य चरक एवं काश्यप ने सत्व शब्द का प्रयोग किया है।
- शुद्ध सत्त्व (सात्त्विक प्रकृति)
तत्र शुद्धमदोषमाख्यातं कल्याणांशत्वात्। (च. शा. 4/36)
कल्याणांशत्वादिति शुभरूपांशत्वात्। मनो हि कल्याणभाग-रोषभाग-मोहभागैस्त्रिभागंय तत्र रोषांशमोहांशौ सदोषौ, अधर्महेतुतया। (च. शा. 4/36 पर चक्रपाणि )
यह शुद्ध मन दोष रहित होता है क्योंकि इसमें कल्याणकारी अंश की अधिकता पायी जाती है। इस अंश की बहुलता से युक्त मन को शुद्ध सत्त्व या सात्त्विक मन कहा गया है। काश्यप संहिता में त्रिविध सत्त्वों में शुद्ध सत्त्व को ‘‘कल्याण सत्त्व’’ का नाम दिया है। इस सत्त्व को कल्याण उत्पन्न होने के कारण ‘‘श्रेष्ठ’’ बताया है।
- राजस सत्व (राजस प्रकृति)
राजसं सदोषमाख्यातं रोषांशत्वात्। (च. शा. 4/36)
इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। यह दोष युक्त होता है, कारण कि इसमें रोष (क्रोध) अंश की प्रधानता होती है। काश्यप संहिता में ‘‘क्रोधज सत्व’’ नाम दिया है। इस सत्व को क्रोध से उत्पन्न होने से मध्यसत्व बताया है।
इसी प्रकार राजस् सत्व के चरक एवं सुश्रुत ने छ:-छ: उपभेद ही माने हैं परन्तु काश्यप संहिता में प्रेत सत्व की जगह भूत सत्व का उल्लेख किया है। याक्षसत्व की गणना राजस् सत्व में करके इनकी संख्या सात बताई गई है।
- तामस सत्व (तामस प्रकृति)
तामसमपि सदोषमाख्यातं मोहांशत्वात् । (च. शा. 4/36)
इसमें मोहांश या अज्ञान की प्रबलता होती है। इसे भी दोषयुक्त ही कहा है। काष्यप संहिता में मोहज सत्व नाम दिया है। मोह से उत्पन्न होने के कारण अधम कहालाता है। जो कुछ भी अपवित्र तथा अकल्याणकारी होता है, वह तामस कहलाता है।
मानस प्रकृतियों के लक्षण
क. सात्विक प्रकृति
- ब्राह्मसत्व –
तद्यथा- शुचिं सत्याभिसन्धं जितात्मानं संविभागिनं ज्ञानविज्ञानवचन प्रतिवचनसम्पन्नं स्मृतिमन्तं कामक्रोधलोभ मानमोहेष्र्याहर्षामर्षापेतं समं सर्वभूतेषु ब्राह्मं विद्यात्। (च. शा. 4/36/1)
संविभागिनमिति सम्यक्फलविभजनशीलम्। (च. शा. 4/36 पर चक्रपाणी)
पवित्र, सत्यप्रतिज्ञावाले, जितात्मा, सभी कार्यो का विभाग कर, करना कि कौनसा कार्य करने योग्य है या अयोग्य है। ज्ञान, विज्ञान, वचन बोलने की शक्ति, उत्तर देने की शक्ति से सम्पन्न, स्मरण शक्ति सम्पन्न, काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह, ईष्र्या, प्रसन्नता और असमर्थ से शून्य सभी प्राणिमात्र में समदृष्टि का व्यवहार रखने वाला पुरुष ब्रह्मसत्व वाला जानना चाहिए।
पवित्रता, आस्तिकमति, वेदों का स्वाध्याय, गुरुओं की पूजा, अतिथियों का सत्कार, यज्ञ करना यह ब्रह्म काय का लक्षण है।
ब्रह्मसत्व से युक्त व्यक्ति तप, सत्य, दया, पवित्रता, दान तथा शीत से युक्त, सब प्राणियों में सम दृष्टि रखने वाला, ज्ञान तथा विज्ञान से युक्त और जितेन्द्रिय होता है। आचार्य चरक ने ब्रह्म सत्व को शुद्धतम माना है।
- आर्षसत्व –
इज्याध्ययनव्रतहोमब्रह्मचर्यपरमतिथिव्रतमुपशान्तमदमानरागद्वेषमोहलोभरोषं प्रतिभावचनविज्ञानोपधारणशक्तिसम्पन्नमार्षं विद्यात् (च. शा. 4/36/2) अतिथौ यथोचितमघ्र्यादियुक्तं व्रतमाचरतीति अतिथिव्रत:। (च. शा. 4/36/2 पर चक्रपाणी)
यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्रत, होम, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, अतिथियों की सेवा करने वाला, मद, अहंकार, राग, द्वेष, मोह, लोभ और क्रोध जिसका शांत है अर्थात इनसे शून्य व्यक्ति प्रतिभा, वचन बोलने की शक्ति से युक्त, विज्ञान धारणाशक्ति सम्पन्न पुरुष आर्षसत्व (ऋषिसत्व) वाला जानना चाहिए।
जप, व्रत, यज्ञ, ब्रह्मचर्य तथा अध्ययन के स्वभाव का ज्ञान, विज्ञान से सम्पन्न मनुष्य को ऋषिसत्व वाला कहा है।
शौच, व्रत, यज्ञ, अध्ययन, ब्रह्मचर्य तथा दया से युक्त, मान, मद तथा क्रोध को जिसने जीत लिया है तथा जो वक्ता है, वह आर्षसत्व होता है।
- ऐन्द्रसत्व –
लेखास्थवृत्तं प्राप्तकारिणमसम्प्रहार्यमुत्थानवन्तं स्मृतिमन्तमैश्वर्यलम्भिनं, व्यपगतरागेष्र्याद्वेषमोहं याम्यं विद्यात् । (च. शा. 4/36/3)
लेखा कर्तव्याकर्तव्यमर्यादा, तत्र स्थितं वृत्तं यस्य स लेखास्थवृत्त:, तम्य अलङ्घितकर्तव्याकर्तव्यमित्यर्थ: असम्प्रहार्यमिति अशक्यवारणम्। (च. शा. 4/36 पर चक्रपाणी)
लक्ष्मी सम्पन्न, जिसका वाक्य ग्रहण करने योग्य हो, यज्ञ करने वाला हो, शूर, ओजस्वी, तेज से युक्त, बुरे कार्यो को न करने वाला हो, दीर्घदर्शी, धर्म, अर्थ, काम में सदा तत्पर रहने वाले पुरुष को एन्द्रसत्व वाला जाना चाहिए।
महान आत्मत्व, शूरता, निरन्तर आज्ञा करने की प्रवृत्ति, शास्त्र में बृद्धि, भृत्यों का पोषण करना यह महेन्द्र काय का लक्षण है।
ऐन्द्र सत्व वाला व्यक्ति (धर्म, अर्थ, काम) में लगा हुआ, विद्वान, शूरवीर, निन्दित कर्म न करने वाला, महाभाग, अधिश्ठाता तथा ऐष्वर्ययुक्त होता है।
याम्यसत्व –
ऐश्वर्यवन्तमादेयवाक्यं यज्वानं शूरमोजस्विनं तेजसोपेतमक्लिष्टकर्माणं दीर्घदर्शिनं धर्मार्थकामाभिरतमैन्द्रं विद्यात् । (च. शा. 4/36/4)
ऐश्वर्यं लभत इति ऐश्वर्यलम्भी। (च. शा. 4/36 पर चक्रपाणी)
कत्र्तव्याकत्र्तव्य मर्यादा के अनुसार व्यवहार करने वाला, सभी कार्यो में उचित मार्गो का अवलम्बन करता हो, असंप्रहाय हो अर्थात कोई भी व्यक्ति उसके ऊपर प्रहार न कर सके । सदा जागरुक, स्मरण शक्ति सम्पन्न, ऐष्वर्य को प्राप्त करने वाला और जो राग, द्वेष, मोह से दूर हो ऐसे पुरुष को याम्यसत्व जानना चाहिए।
युक्ति से काम निकालने वाला, दृढ़ता से कार्य को आरम्भ करने वाला, भयरहित, स्मृतिशाली, पवित्र, राग, मोह, मद, द्वेषवर्जित वाला याम्यसत्व जानना चाहिए।
जिसने दंभ, भय तथा क्रोध का त्याग कर दिया है, जो प्राप्तकारी, ऐश्वर्यशाली, मित्र तथा शत्रु में समान व्यवहार करने वाला तथा सुनिश्चित (दृढ़निश्चयी) व्यक्ति है, वह याम्य सत्व वाला होता है।
- वारुणसत्व –
शूरं धीरं शुचिमशुचिद्वेषिणं यज्वानमम्भोविहाररतिमक्लिष्टकर्माणं स्थानकोपप्रसादं वारुणं विद्यात् । च. शा. 4/36/5
स्थाने उचिते कोप: प्रसादश्च यस्य स स्थानकोपप्रसाद: (च. शा. 4/36 पर चक्रपाणी)
शूर, धी, पवित्र, अपवित्रता से द्वेष करने वाला, यज्ञ करने वाला, जल में तैरना या नौका विहार से प्रेम रखने वाला, बुरे कार्यो कों नकारने वाला, स्थान (अवसर) पर क्रोधित और प्रसन्न रहने वाला पुरुष वारुणसत्व वाला जानना चाहिए।
शीतल पदार्थो में प्रीति, सहनशीलता, केश आदि में भूरापन, बालों में हरारंग, मीठा बोलना यह वारुण शरीर का चिन्ह है। जो व्यक्ति अशुचि, विशुचि, शूर, शीघ्र ही क्रुद्ध एवं शीघ्र ही प्रसन्न होने वाला, पुण्यशील, महाभाग (महात्मा) तथा वरुणप्रिय है, वह वारुणसत्व होता है।
- कौबेरसत्व –
स्थानमानोपभोगपरिवारसम्पन्नं धर्मार्थकामनित्यं शुचिं सुखविहारं व्यक्तकोपप्रसादं कौबेरं विद्यात्। (च. शा. 4/36/6)
सुखविहारमिति सुखक्रीडनम्। (च. शा. 4/36 पर चक्रपाणी)
स्थान पर मान (अहंकार) और स्थान पर वस्तुओं का उपयोग करने वाला अर्थात जहां जब अभिमान करना आवष्यक हो तब अहंकार करने वाला और जब जिस वस्तु का उपयोग करना आवष्यक हो तब उसका उपयोग करने वाला, परिवार सें सम्पन्न, सुखपूर्वक विहार करने वाला, धर्म, अर्थ, काम में सदा तत्पर, पवित्र, क्रोध और प्रसन्नता साफ-2 जिसकी प्रगट होती है, ऐसे व्यक्ति को कौबेरसत्व वाला जानना चाहिए।
मध्यस्थता, सहनशीलता, धन को प्राप्त करना और एकत्रित रखना, बहुत सन्तान पैदा करना, यह कौबेर शरीर का लक्षण है।
जो व्यक्ति स्थान, मान, परिवार, धर्म, काम तथा अर्थ का लोभी अर्थात स्थान, मान आदि का इच्छुक हो, जिसका क्रोध एवं प्रसाद फलप्रद हो अर्थात क्रोध एवं प्रसाद निरर्थक न हो तथा बलवान हो वह कौबेर सत्व कहलाता है।
- गान्धर्वसत्व –
प्रियनृत्यगीतवादित्रोल्लापकश्लोकाख्यायिकेतिहासपुराणेषु कुशलं गन्धमाल्यानुलेपनवसनस्त्रीविहारकामनित्यमनसूयकं गान्धर्वं विद्यात् । (च. शा. 4/36/7)
उल्लाप: स्तोत्रम्। विहार: क्रीडा, किंवा स्त्रीभि: समं विहरणं स्त्रीविहार:। गान्धर्वमिति गान्धर्वसत्त्वम् । (च. शा. 4/36/7 पर चक्रपाणी)
जिसे नाचना, गाना, बाजा बजाना, आलाप लेना प्रिय हो, जो श्लोकपाठ, आख्यायिका (कहानी), इतिहास और पुराणपाठ में कुशल हो, जो गंध आदि का लगाना, पुष्पमाला, चन्दन, कस्तूरी आदि का अनुलेपन सुन्दर वस्त्रधारण, स्त्रीविहार की इच्छा नित्य करता हो और दूसरे के गुणों में दोषारोपण करने वाला न हो, ऐसे पुरुष को गन्धर्व सत्व वाला जानना चाहिए।
सुगन्ध एवं माला में रूचि, नाच गाने बजाने का शौक, घूमने की इच्छा, ये गन्धर्वकाय के लक्षण है।
जो व्यक्ति श्लोक, आख्यान तथा इतिहास का जानने वाला है, गंध, माला तथा वस्त्रों का प्रेमी है, नृत्य, गीत तथा उपहास का ज्ञाता एवं ऐष्वर्यशाली है, वह गान्धर्वसत्व कहलाता है।
ख. राजस सत्व
- आसुरसत्व –
शूरं चण्डमसूयकमैश्वर्यवन्तमौपधिकं रौद्रमननुक्रोशमात्मपूजकमासुरं विद्यात्।।
(च. शा. 4/37/1)
औपधिकमिति छद्मप्रचारिणम्। अननुक्रोशमिति निर्दयम्। (च. शा. 4/37 पर चक्रपाणी)
शूर, अधिक क्रोधी, दूसरे के गुणों में दोष देखने वाला, सम्पत्तिशाली, कपटी, उग्रस्वभाव वाला, दयाशून्य, अपनी पूजा करने वाला अर्थात स्वार्थी, ऐसे पुरुष को आसुर सत्व वाला जानना चाहिए।
ऐश्वर्यशाली, रौद्र, शूर, क्रोधी, निन्दा करने वाला, अकेला ही खाने वाला, पेटू, आसुरप्रकृति होता है।
दूसरों के गुणों में दोषरोपण करने वाला, तीव्र क्रोध वाला आत्मपूजा तथा उपाधि प्रिय, अनुक्रोश तथा भय से युक्त, रौद्र, हत्या करने वाला तथा शूरवीर व्यक्ति आसुरसत्व होता है।
- राक्षससत्व –
अमर्षिणमनुबन्धकोपं छिद्रप्रहारिणं क्रूरमाहारातिमात्ररुचिमामिषप्रियतमं स्वप्नायासबहुलमीष्र्युं राक्षसं विद्यात् ।। (च. शा. 4/37/2)
किसी प्रतिकूल वस्तु को किसी भी दशा में सहन न करने वाला बहुत दिनों तक क्रोध करने वाला अर्थात क्रोध की परम्परा को बनाये रखने वाला, छिद्र पाकर धोखा सें मारने वाला, क्रूर, भोजन में अधिक प्रेम रखने वाला, ईष्र्या करने वाला, ऐसे पुरुष कों राक्षससत्व वाला जानना चाहिए ।
एकान्त में रहने वाला, रौद्र, निन्दा करने वाला, धर्म के विरुद्ध बरतने वाला, अतिशय तमोगुणी मनुष्य राक्षस प्रकृति का है।
जो व्यक्ति क्रूर, छिद्र प्रहारी, क्रोध, ईष्र्या एवं अमर्श से युक्त, वैर करने वाला, मॉंस खाने वाला तथा कलहप्रिय है, वह राक्षस सत्य होता है।
- पैशाचसत्व –
महाशनं स्त्रैणं स्त्रीरहस्काममशुचिं शुचिद्वेषिणं भीरुं भीषयितारं विकृतविहाराहारशीलं पैशाचं विद्यात् (च. शा. 4/37/3)
स्त्रिया समं रहसि स्थातुमिच्छतीति स्त्रीरहस्काम:। (च. शा. 4/37 पर चक्रपाणी)
अधिक आलसी, स्त्री के वश में रहने वाला, स्त्रियों के साथ एकान्त में रहने की इच्छा करने वाला, अपवित्र, पवित्रता से दूर रहने वाला, डरपोक, दूसरों को भयभीत करने वाला तथा विकृत आहार और विहार करने वाला ऐसे पुरुष को पैशाच सत्व वाला जानना चाहिए। झूठा खाने वाला, तीक्ष्ण स्वभाव, साहसिक कार्यो में रुचि, स्त्रीलोलुप, लज्जारहित मनुष्य पिशाच प्रकृति का होता है।
जो व्यक्ति पवित्रता से द्वेष करने वाला, अपवित्र, क्रूर, अभीरू, दूसरों को डराने वाला, कलुशित, मॉंस का प्रेमी, शंका करने वाला तथा बहुत भोजन करने वाला हैं, वह पैशाच सत्व होता है।
- सार्पसत्व –
क्रूद्धशूरमक्रूद्धभीरुं तीक्ष्णमायासबहुलं सन्त्रस्तगोचरमाहारविहारपरं सार्पं विद्यात् (च. शा. 4/37/4)
क्रूद्धशूरमक्रूद्धभीरुमिति क्रोधे सति शूरं, क्रोधेऽसति भीरुम्। गोचरशब्देन गोचरे विषये प्रचारो लक्ष्यते, तेन सन्त्रस्तगोचरमिति सन्त्रस्तविषयप्रचारम्। (च. शा. 4/37 पर चक्रपाणी)
क्रोध करने पर शूर, क्रोध उत्पन्न न होने पर डरपोक, तेज, अधिक परिश्रम करने वाले, भययुक्त होकर प्रत्येक कार्य को करने वाले, सदा आहार और विहार में लगे रहने वाले पुरुष को सार्पसत्व वाला जानना चाहिए।
तीक्ष्ण, परिश्रमी, डरपोक, क्रोधी, छली, घूमने तथा खाने में चपल मनुष्य सार्पसत्व है।
जो व्यक्ति तीक्ष्ण, बहुत परिश्रमी, बहुत सोने वाला, बहुत समय तक वैर रखने वाला, अक्रूद्धभीरु, स्त्री के वश में रहने वाला, सदा होठों को चाटने वाला अथवा सदा खाते रहने वाला है, वह सार्पसत्व है।
- प्रेतसत्व –
आहारकाममतिदु:खशीलाचारोपचारमसूयकमसंविभागिनमतिलोलुपमकर्मशी-लं प्रैतं विद्यात् (च. शा. 4/37/5)
पिशाचाद्भिन्न एव यथोक्ताचार: प्रेत:, तेन प्रैतमपि सत्त्वं पृथगुक्तम्। (च. शा. 4/38 पर चक्रपाणी)
आहार की सदा इच्छा रखने वाला, अत्यंत दु:खदायी स्वभाव वाला, जो दूसरे के गुणों को आरोपित करता हो, जो कर्तव्य और अकर्तव्य ज्ञान से शून्य हो, अत्यंत लोभी हो और अकर्मशील हो।
बराबर बॉंट के न खाने वाला, आलसी, दु:ख भोगने का आदी, निन्दा करने वाला, लालची, किसी को न देने वाला मनुष्य प्रेतसत्व होता है।
जो व्यक्ति अहंकारी, बहुत खाने वाले, वैरी, विकृतमुख वाले, विकृतरूप वाले तथा विकृत आत्मा वाले है तथा जिन्हें रात्रि प्रिय है, वे भूतसत्व वाले हैं।
- शाकुन सत्व –
अनुषक्तकाममजस्रमाहारविहारपरमनवस्थितममर्षणमसञ्चयं शाकुनं विद्यात्
(च. शा. 4/37/6)
सदा मैथुन में आसक्त रहने वाला, सदाआहार और विहार में तत्पर रहने वाला, चत्र्चल, असहिश्णु और धन आदि किसी भी वस्तु का संचय न करने वाला ऐसे पुरुष को शाकून सत्व वाला जानना चाहिए।
अतिशय विषयसेवी, निरन्तर खाने का ही विचार करने वाला, असहनशील, अस्थिरमनवाला मनुष्य शाकून (पक्षी) स्वभाव का है।
असहिष्णु, कुत्सितआहार तथा निन्दित वाणी में लगे हुए, नित्यशंका करने वाले, चल, कुण्ठित बुद्धि वाले तथा भीरु एवं जिसके रहने का स्थान ठीक तरह से निश्चित न हो ऐसे व्यक्ति को शाकुनसत्व कहते है।
ग. तामस सत्व
- पाशवसत्व –
निराकरिष्णुममेधसं जुगुप्सिताचाराहरं मैथुनपरं स्वप्नशीलं पाशवं विद्यात् ।
(च. शा. 4/38/1)
पशुसत्व के पुरुष अपने पर आई हुई विपश्रियों कों दूर न करने वाले, स्मरण, शक्ति से शून्य, निन्दित आचार और आहार करने वाले, सदा मैथुन में प्रसक्त रहने वाले और अधिक शयन करने वाले पुरुष कों पशुसत्व वाला जानना चाहिए।
बुद्धि का दूशित होना, मंदबुद्धि, स्वप्न में मैथुन कामना, किसी भी वस्तु का प्रतिकार न करने की इच्छा पशु के गुण हैं।
सदा आहार तथा मैथुन में लगे हुए, अत्यधिक सोने वाले, निन्दित अथवा कम बुद्धि वाले, शुद्धि तथा अलंकार से रहित व्यक्ति को पाशवसत्व जाने।
- मात्स्यसत्व –
भीरुमबुधमाहारलुब्धमनवस्थितमनुषक्तकामक्रोधं सरणशीलं तोयकामं मात्स्यं विद्यात् । (च. शा. 4/38/2)
सरणशीलमिति गमनशीलम्। (च. शा. 4/38 पर चक्रपाणी)
डरपोक, मूर्ख, आहार के लोभी, चत्र्चल, काम और क्रोध में अनुशक्त, सदा चलने-फिरने वाले तथा जल से अधिक प्रेम करने वाले पुरुष को मात्स्य सत्व जानना चाहिए।
अस्थिरता, मूर्खता, डरपोकपन, पानी की चाह, एक दूसरे से लडऩा-झगडऩा, ये मत्स्य सत्व के लक्षण है।
भीरु, मूर्ख, आद्यून (बहुत खाने वाला, पेटू), कामी तथा क्रोधी, हिंसक, आत्मपर, अधिक सन्तान वाला तथा धूर्त व्यक्ति मात्स्य सत्व कहलाता है।
- वानस्पत्यसत्व –
अलसं केवलमभिनिविष्टमाहारे सर्वबुद्ध्यङ्गहीनं वानस्पत्यं विद्यात्।
(च. शा. 4/38/3)
बुद्ध्यङ्गानि ऊहापोहविचारस्मृत्यादीनि उक्तानि ।। (च. शा. 4/39 चक्रपाणि)
आलसी, केवल आहार में ही लगे रहने वाले तथा सभी प्रकार के बाह्य एवं आभ्यंतर ज्ञान सें शून्य पुरुष कों वानस्पत्य सत्व वाला जानना चाहिए। एक ही स्थान पर बैठे रहना, सदा खाने-पीने में रत रहना, धर्म, अर्थ, काम से अलग रहना, यह वानस्पत्य सत्व के लक्षण है। वध, बन्धन, दु:ख, सर्दी, वायु तथा धूप को सहने वाले बुद्धि तथा अंगों से हीन, आलसी तथा ऋजु व्यक्ति कों वानस्पत्य सत्व कहते है।
इस प्रकार मोह अंश की प्रधानता के अनुसार तामस सत्व के तीन प्रकार के भेदों को जानना चाहिए।
प्रकृति का चिकित्सिय महत्व (Clinical significance of Deha-Prakriti) :
प्रकृति ज्ञान का निम्नलिखित प्रकार से महत्त्वपूर्ण योगदान है।
- स्वास्थ्यवर्धन में प्रकृति का महत्त्व-
वातादि प्रकृति वाले मनुष्यों को स्वस्थवृत विधि के नियमानुसार अपने-2 दोष के विपरीत गुण वाले आहार-विहार का सेवन करना चाहिए। समधातु प्रकृति वाले मनुष्यों को सर्वदा सभी रसों का प्रयोग करना और सात्म्य बनाना स्वास्थ्य रक्षण में श्रेष्ठ माना है। साथ ही शारीर स्थान के अनुसार भी अपने शरीर के लिए हितकारी आहार-विहार तथा अन्य आचार-रसायन का क्रमपूर्वक उचित रूप से प्रयोग कर धातुओं को सम बनाये रखते हुए व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक किसी भी व्याधि से ग्रसित नही होते।
- व्याध्युत्पत्ति में प्रकृति का महत्त्व –
द्वन्दज प्रकृति वाले पुरुष तथा वातज, पित्तज, श्लेष्मज प्रकृति वाले पुरुष सदा ही रोगी रहते है। वात प्रकृति वालों को वातिक, पित्त प्रकृति वालों को पित्तजन्य तथा कफ प्रकृति वालों को कफजन्य रोग प्राय: बलवान होते हैं । यह वे उक्त प्रकृत्यानुसार दोषों के तत्-तत् गुणों के आहार-विहार का सेवन अधिक करते है।
- व्याधि की सम्प्राप्ति एवं लक्षण में प्रकृति का महत्त्व –
व्याधि का कारण एक ही प्रकार का एवं समान बल वाला हो और एक ही समय में कई लोग उससे आक्रान्त हो तो किन्ही रोगियों में समान लक्षणों की उत्पत्ति नही होती हैं। इसका कारण एक ही मनुष्य की प्रकृति एवं रोग का स्वरूप, व्यक्तिगत् विशेषता वाला होता है।
- साध्यासाध्य में प्रकृति का महत्त्व – रोग के हेतु पूर्वरूपादि अल्पमात्रा में हो, दोष और दूष्य समान गुण वाले न हो तो वो सुख साध्य होता है तथा रोगारम्भक दोष तथा रोगी की प्रकृति समान दोष वाले हो तो कृच्छ्र साध्य माने जाते है। जैसे -वातिक प्रकृति वाले को वातिक रोग स्वभावत: कृच्छ्र साध्य माने जाते हैं । प्रकृति (स्वभाव) गत् गुणों की सहसा हानि असाध्य सूचक लक्षण हैं। चक्रपाणि ने भी प्रकृति में परिवर्तन अनिष्ट सूचक माना है।
- चिकित्सा में प्रकृति का महत्त्व – सुश्रुत ने शरीर की प्रकृतियों को जानकर उनके अनुरूप चिकित्सा व्यवस्था करने का निर्देश दिया है। जिस प्रकृति का जो रोगी होता है उसकी प्रकृति को ध्यान में रखते हुए चिकित्सा व्यवस्था करनी चाहिए यथा पित्त प्रकृति का मनुष्य यदि वात रोग से ग्रसित हो गया तो वात नाशक उष्ण द्रव्यों का प्रयोग नही करना चाहिए क्योंकि पित्त प्रधान शरीर में उष्ण गुणयुक्त द्रव्य वात को शान्त करते हुए शीघ्र ही पित्त को कुपित्त कर देंगे । इसलिए वातनाशक स्नेहयुक्त एवं गुरु द्रव्यों का ही प्रयोग करना चहिए जिससे वात शान्त हो जाये और पित्त का विरोध भी न हो ।
- अग्नि ज्ञानार्थ प्रकृति का महत्त्व – चरकसंहिता में प्रकृति के अनुसार चार प्रकार के अग्नियों का वर्णन मिलता है।
समप्रकृति वाले पुरुषों में – समाग्नि होती है
वात प्रधान पुरुषों में – विषमाग्नि होती है
पित्त प्रधान पुरुषों में – तीक्ष्णाग्नि होती है तथा
कफ प्रकृति वाले पुरुषों में मन्दाग्नि होती है।
अत: प्रकृति ज्ञान से अग्नि की परीक्षा कर अग्निबल के अनुसार पथ्य व्यवस्था करने में सहायता मिलती है। चिकित्सा में पथ्य का महत्त्व है। इस प्रकार प्रकृति ज्ञान भी चिकित्सा का प्रमुख अंग है।
प्रकृति के बारे में इससे अच्छा लेख मुझे आज तक कहीं पर भी पढ़ने को नहीं मिला
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प्रकृति को समझने के यह सबसे अच्छा लेख है।
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