Rasa Dhatu

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रस शब्द विभिन्न स्थानों पर विभिन्न अर्थो में प्रयुक्त होने वाला शब्द है। रसशास्त्र में पारद के लिये रस शब्द प्रयोग आता है। रसनेद्रिय के विषय 6 प्रकार के स्वादो / षड रसो के लिये भी रस शब्द प्रयोग आता है। मानसिक भावो के लिये श्रंगार रस, वीर रस इत्यादि के लिये भी प्रयुक्त होता है। द्रव्य गुण में स्वरस अथवा औषध सार भाग के लिये भी रस धब्द प्रयुक्त होता है।

किन्तु शरीर क्रिया में धातु के रूप में अर्थात रस धातु के रूप मे प्रथम धातु के लिये प्रयुक्त होता है। यहॉ जिस रस धातु की बात की जा रही है, वो निम्न गुण रखती है-

देहस्थे भुक्तान्नादे: प्रथमपरिणामे

अर्थात जो देह में स्थित है, और भुक्त अन्न का प्रथम परिणाम है।

गति अर्थ में प्रयुक्त होने वाली ‘रस’ धातु (संस्कृत धातु) से रस शब्द बना है। जो दिन-रात गतिशील रहे, उसे रस कहा जाता है।

‘रस’ गतिवाचक धातु है। यह प्रत्येक समय गति, क्षय, वृद्धि तथा विकृति अनुमान द्वारा ही जानी जाती है।

आहार पाचन से उत्पन्न प्रसादांश रस जो पित्तधरा कला से शोषित होकर व्यान वायु द्वारा यकृत में आता है, यकृत से हृदय में जाता है और हृदय की विक्षेप क्रिया से व्यानवायु उसकी निरन्तर गति कराता रहता है। गति के कारण ही इसे रस संज्ञा दी गयी है।

रस धातु के पर्याय (Synonyms of Rasa Dhatu)

सोम्यधातु, अग्नि संभव, असृककरा, आहारप्रसाद, धातुसार, आहार तेज आदि रस धातु के पर्याय है।

 

रस धातु की परिभाषा (Definition of Rasa Dhatu)

पांचभौतिक, षड रस एवं गुर्वादि गुणों से युक्त आहार पर जठराग्नि एवं पाचक पित्त के कार्य करने से उत्पन्न तेजोभूत सार भाग जो परम सुक्ष्म होने के कारण शरीर के स्थूल-सुक्ष्म सभी स्रोतसों में जा सकता है, वो रस कहलाता है।

आहार रस पर यकृत एवं शरीर के ऊतकों में तेजोभूत भूताग्नि क्रिया विजातीय पांचभौतिक द्रव्यों को सजातीय रूप में परिवर्तित करती है। भूताग्नि द्वारा शरीरस्य द्रव्यों के सजातीय रूप में परिणत तेजोभूत सार आहार का प्रसादांश है, जो परम सूक्ष्म होने के कारण शरीरस्थ स्थूल एवं सूक्ष्म स्रोतसों के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की क्षमता रखता है। इस परम सूक्ष्म तेजोभूत प्रसादांश को ‘रस’ संज्ञा दी गयी है।

आहार पर जठराग्नि की क्रिया से जो रस उत्पन्न होता है, वह शरीर में प्रसृत हो तत्-तद् धातु को प्राप्त हो, उसकी पुष्टि करता है। अपने-अपने धात्वग्नि के बल से धातु इस रस धातु का उपयोग कर उसके सार (प्रसाद) भाग से अपनी तथा अपने उपधातु की और मल भाग से अपने मल की पुष्टि करते हैं।

रस धातु की परिभाषा उसकी उत्पत्ति मे भी देख सकते है।

 

रस धातु की उत्पत्ति (Formation of Rasa Dhatu)

‘‘तत्र पांचभौतिकस्य, चतुर्विधस्य षड्रसस्य द्विविध वीर्यस्याष्ट विधवीर्यस्य वाऽनेकगुणस्योपयुक्तस्याहारस्य सम्यक् परिणतस्य यस्तेजोभूत: सार: परमसूक्ष्म: स ‘रस’ इत्युच्यते।।’’ (सु. सू. 14/3)

पांचभौतिकस्य, चतुर्विध (पेय, लेह्य, भक्ष्य तथा भोज्य), षड् रस (मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय), दो प्रकार के वीर्य (शीत वीर्य एवं उष्ण वीर्य) अथवा आठ प्रकार के वीर्य (शीत उष्ण, स्निग्ध रुक्ष, विशद पिच्छल, मृदु एवं तीक्ष्ण वीर्य) तथा बीस प्रकार के गुणों में से अनेक गुणयुक्त विधिपूर्वक सेवन किये हुए आहार का उचित परिपाक होने के पश्चात् जो प्रसाद रुप अत्यन्त सूक्ष्मसार बनाता है वह ‘रस’ कहलाता है।

तात्त्पर्य यह है कि पांचभौतिक आहार द्रव्य चारों प्रकार में किसी प्रकार का क्यों न हो तथा इसी प्रकार किसी भी रस, वीर्य तथा गुण सम्पन्न क्यों न हो, यदि उसका सम्यक प्रकार से सेवन किया गया है तथा सम्यक प्रकार से पाचन हुआ है, तब पाचन के पश्चात् अन्न का जो सार अंश आंत्र में अवशोषित हो जाता है, अन्न रस कहलाता है। यथा- कार्बोहाइड्रेट का अन्नरस ग्लूकोज आदि मोनोसेकराइड, प्रोटीन का अन्न रस अनेक प्रकार की अमीनों अम्ल, स्नेह (तैल, घृत आदि) का अन्न रस, वसा अम्ल और ग्लिसराल तथा लवणों का अन्नरस लवण, विटेमिन का विटेमिन एवं जल का जल होता है। ये सब मिलकर आहार का सार अंश कहलाता है। इनका आन्त्रभित्ति द्वारा अवशोषण होकर अवशोषित अंश पोर्टल वेन द्वारा यकृत में पहुंचता है। अवशोषित होते समय वहाँ पर इनमें विभिन्न क्रियाओं द्वारा इस प्रकार से परिवर्तन होते है, कि अभी तक जो शरीर के लिये विजातिय (Foreign body) था वो सजातिय अर्थात अपने शरीर का ही भाग बन जाता है। ताकि शरीर इन अंशों का उपयोग शरीर कर सके।

आहार रस से रस धातु परिवर्तन का नाम ‘रस धात्वग्नि पाक’ है। इस परिवर्तन के पश्चात् अन्न रस का जो रूप बनता है, उसे रसधातु कहते हैं।

एवं रसमलायान्नमाशयस्यमध: स्थित:।

पचत्यग्निर्यथा स्थाल्यामोदनायाम्बुतण्डुलम्।।       (च. वि. 15/7)

जिस प्रकार बर्तन में रखे चावल और जल को नीचे से दी जाने वाली अग्नि पकाकर भात बना देती है, उसी प्रकार आमाशय में स्थित अन्न का जठराग्नि रस तथा मल के रूप में पाक करती है। अर्थात् आहार का पाक के पश्चात् सार अंश रस तथा नि:सार अंश मल के रूप में विभाजित हो जाता है।

किट्टं सारश्च तत्पक्वमन्नं सम्भवति द्विश्चा।

तत्राऽच्छं किट्टमन्नस्य मूत्रं विद्याद्घनं शकृत्।। (अ.हृ.शा. 3/60)

जठरानि तथा पंचमहाभूताग्नियों से पाक होने के पश्चात् अन्न के दो भाग हो जाते हैं।

  1. किट्ट भाग, 2. सार भाग

किट्ट के भी दो भाग हो जाते हैं।

  1. धनभाग (Solid part) – धनाकृत भाग पुरीष या शकृत् (Stool) कहलाता है।
  2. द्रव भाग (Liquid part)- द्रव भाग मूत्र (Urine) कहलाता है।

शरीरगुणा: पुनद्र्विविधा: संग्रहेण- मलभूता:, प्रसादभूताश्च। तत्र मलभूतास्ते ये शरीरस्याबाधकरा: स्यु:।  तद्यथा- शरीरच्छिद्रेषूपदेहा: पृथग्जन्मानो बहिर्मुखा:, परिपक्वाश्च धातव:, प्रकुपिताश्च वातपित्तश्लेष्माण:, ये चान्येऽपि केचिच्छरीरे तिष्ठन्तो भावा: शरीरस्योपघातायोपपद्यन्ते, सर्वांस्तान्मले सञ्चक्ष्महेय  इतरांस्तु प्रसादे, गुर्वादींश्च द्रवान्तान् गुणभेदेन, रसादींश्च शुक्रान्तान् द्रव्यभेदेन ।।         (च. शा. 6/17)

अथ कतिप्रकारास्ते शरीरगुणा इत्याह- शरीरेत्यादि। सङ्ग्रहेण सङ्क्षेपेणय तेन विस्तरेण धातूपधात्वादिविभागेन बहवश्च भवन्ति। भूतशब्द: स्वरूपे। आबाधकरा इति पीडाकरा इत्यर्थ:।

पृथग्जन्मान इति पिचोलिकासिङ्घाणकादिभेदेन नानारूपा:। बहिर्मुखा इत्यनेन य एव च्छिद्रमला: प्रभूततया, बहिर्नि:सरणाभिमुख:, त एव पीडाकर्तृत्वेन मलाख्या:य ये तु स्रोत-उपलेपमात्रकारकास्ते गुणकर्तृतया न मलाख्या:। परिपक्वाश्च धातव इति पाकात् पूयतां गताश्च शोणितादयोऽपि मलाख्या:य किंवा अपरिपक्वा’ इति पाठ:, तदा सामा धातवो मलाख्या इति ज्ञेयम्। कुपिताश्चेति पदेन वातादय: सामान्येन क्षीणा वृद्धा वा गृह्यन्तेय विकृतिमात्रं हि वातादीनां कोप:। ये चान्येऽपीत्यादिना विमार्गगतान् पीडाकारकाञ्, शरीरधातून् तथाऽजीर्णादीन् ग्राहयन्ति। मल इति एकवचनं जातौ। इतरानिति अविकारकरान् समानस्थितपुरीषवातादीन्य पुरीषवातादयोऽपि शरीरावष्टम्भका: प्रसादा एव, गुणकर्तृत्वात्। मलप्रसादभेदेन शरीरगतभावानभिधाय पुनद्र्रव्यगुणभेदानाह-गुर्वादींश्चेत्यादि। गुर्वादयो द्रवान्ता: पश्चादुक्ता एव। अत्र च ये मला उपधातवश्च नोक्तास्ते गुर्वादिगुणाधारत्वेन ग्राह्या:य किंवा, इतरांस्तु निराबाधान् मलादीन् प्रसादे सञ्चक्ष्महे तथा गुर्वादींश्च तथा रसादींश्च निर्विकारान् द्रव्यगुणरूपान् प्रसादे सञ्चक्ष्महे इति व्याख्येयम्।।  (च. शा. 6/17 की चक्रपाणि टीका)

आहार द्रव्य शरीर में दोष-धातु मलों में साम्यता बनाये रखते हैं। चरक का कथन है कि शरीर धारण करने से ये आहार द्रव्य धातु संज्ञक ही है। इन्हें पित्तधरा कला से प्रसादभूत एवं मलभूत भागों में परिवर्तित किया जाता है। मलभूत उन द्रव्यों को कहते हैं, जो शरीर को बाधा पहुचाते हैं। शरीर के पृथक-पृथक स्थानों पर उत्पन्न होने वाले मुत्र-पुरीष, आँख-नाक-कान का मल, प्रकुपित रस-रक्तादि धातुएँ, प्रकुपित वात-पित्त-कफ एवं अन्य शरीरस्थ भाव जो शरीरमें रूक जाने पर उसे हानि पहुँचाते हैं, वे सभी मल वर्ग में आते हैं। जो शरीर में स्थित भाव शरीर के लिए उपकारक हैं, उन्हें प्रसाद वर्ग में रखते हैं।

ये मल वर्ग एवं प्रसाद वर्ग के द्रव्य क्रमश: आहार के किट्ट एवं प्रसाद अंश से पोषित होकर शरीर एवं वय के अनुसार अपने-अपने द्रव्य का प्रमाण स्थिर रखते हुये समधातु पुरुष में धातुओं की साम्यता को बनाये रखते हैं। आहार रस की क्षय एवं वृद्धि आहार पर निर्भर है। आहार के सम्यक पाचन होने पर उत्पन्न किट्ट एवं प्रसाद भाग शरीर में उपस्थित मल एवं प्रसाद भाग की साम्यता बनाये रखते है।

संक्षेप में कह सकते हैं कि आहार (Diet) के सम्यक पाचन (Proper digeetion)  से रस धातु उत्पन्न होता है

This Post Has 3 Comments

  1. Prof. Madan Mohan Sharma

    वाह पंकज मजा आ गया. लेख बहुत अच्छा था . इस तरह का विस्तृत लेख सभी धातुओं के बारे में लिखिए जिससे आयुर्वेद के पाठकों का भला हो

  2. Dr. Sunanda Jain

    Sir Kai salon bad aisa lag raha hai Jaise wapas second year mein a gaye hain wapas hamare knowledge ko taro taaja karne ke liye dhanyvad

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