क्रिया काल (Concept of Kriyakala)
क्रिया – चिकित्सा (treatment),
काल – समय (period)
अर्थात क्रियाकाल का अर्थ होता है, चिकित्सा करने के उपयुक्त अवसर।
क्रिया काल के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ क्रिया शब्द चिकित्सा सुचक है। अत: क्रिया काल का तात्पर्य है चिकित्सा की दृष्टि से वैकृत रूप से वृद्ध वात आदि दोषों की संचय, प्रकोप, प्रसर आदि विशिष्ट अवस्थाओं का ज्ञान।
8.1 क्रियाकाल की अवस्थाओं का वर्णन
चरक संहिता (वाग्भट्ट भी) काय चिकित्सा प्रधान ग्रन्थ होने के कारण इसमें संचय, प्रकोप एवं प्रशमन इन तीन अवस्थाओं का ही वर्णन किया गया। जबकि शल्य चिकित्सा प्रधान सुश्रुत संहिता में रोग की निम्न 6 अवस्थाओं का वर्णन किया गया है।
सञ्चयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थानसंश्रयम् ।
व्यक्तिं भेदं च यो वेत्ति दोषाणां स भवेद्भिषक्’’ (सु.सू. 21/36)
अतीतं सङ्क्षिप्य सङ्ग्रहं प्रतिपादयन्नाह- सञ्चयं च प्रकोपं चेत्यादि। चकारेण सञ्चयादिहेतुस्थानाद्यनुक्तं सर्वं समुच्चीयते।।(सु.सू. 21/ 36 पर डल्हण व्याख्या)
अत: स्पष्ट है कि काल में वृद्वि के साथ साथ दोषों की वृद्वि निम्न छ: अवस्थाओं में होती है:-
- संचय अवस्था़
- प्रकोप अवस्था
- प्रसार अवस्था
- स्थान संश्रय अवस्था
- व्यक्त अवस्था
- भेद अवस्था
अर्थात जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जाता है वैसे-वैसे दोष को साम्यवस्था में लाना कठिन होता जाता है। यह छ: अवस्थाऐ चिकित्सा करने के अवसर होती है। उपेक्षा करने पर उत्तरोत्तर कठिन अवस्था आती जाती है।
8.1.1 संचय अवस्था (Stage of Sanchaya):
यह प्रथम क्रिया काल है जब वात आदि दोष पूर्व निर्दिष्ट अपने-अपने स्थानों पर रहते हुए वृद्वि को प्राप्त होकर संचित हो जाते ह,ै तो उसे दोषों की संचय अवस्था कहते है। इस अवस्था में पाए जाने वाले निम्न लिखित लक्षण हैं:-
संचितानां खलु दोषाणां स्तब्धपूर्णकोष्ठता पित्तावभासतां मन्दोष्मता चांगानां गौरवमालस्य चय कारणं विद्वेषश्चेति लिङ्गानि भवन्ति ।। (सु.सू. 21/18)
प्रतिपादितं नियममन्नाह- एतानित्यादि। एषु सञ्चीयन्ते दोषा इति एषु स्थानेषु दोषा: सञ्चयं यान्तीत्यर्थ:। क: पुनर्दोषाणां सञ्चये हेतुरित्याह- प्राक् सञ्चयहेतुरिति। प्रागिति ऋतुचर्याध्याये। सञ्चितानां वातादीनां यथासङ्ख्यं लिङ्गं दर्शयन्नाह- तत्र सञ्चितानामित्यादि। संहतीरूपा वृद्धिश्चय:, विलयनरूपा वृद्धि: प्रकोप:। स्तब्धपूर्णकोष्ठतेति कोष्ठताशब्द: स्तब्धपूर्णाभ्यां प्रत्येकं सम्बध्यते, तेन स्तब्धकोष्ठतापूर्णकोष्ठते वायोर्लिङ्गं, पीतावभासता मन्दोष्णता च पित्तस्य, गौरवमालस्यं च श्लेष्मण:। एतानि स्तब्धपूर्णकोष्ठतादिलिङ्गानि सामान्येन सर्वेषामेव सञ्चितानामित्यपि केचिन्मन्यन्ते। चयकारणविद्वेषश्चेति सामान्येन सर्वेषां वातादीनामिदं लिङ्गम्। ‘चयकारणविद्वेषश्च’ इति वाक्यं केचिन्न पठन्ति। केचिदाचार्या अस्याग्रे चयप्रकोपयोर्लक्षणं श्लोकेन पठन्ति ‘स्वस्थानवृद्धिर्दोषाणाम्’ इत्यादि। अयं श्लोकोऽभावात् समग्रो न लिखित इति। तत्रेति तत्र वातादीनां सञ्चये। प्रथम: क्रियाकाल: आद्य: कर्मावसर:।।
चयो वृद्धि: स्वधाम्न्येव प्रद्वेषो वृद्धिहेतुषु। विपरीत गुणै इच्छा: च। (अ हृ सू 12/22)
स्वधाम्नीये स्थाने दोषस्य या वृद्धि: स चय उच्यते। चितस्य दोषस्य लिङ्गमाह-प्रद्वेष इत्यादि। यदा हि वातश्चितो भवति तदा रूक्षादिषु तद्गुणसामान्येषु प्रद्वेष: स्यात्। तद्विपरीतगुणेषु स्निग्धादिष्वभिलाष: स्यात्। एवं कफपित्तयोश्चितयोव्र्याख्येयम्। ननु, ‘प्रद्वेषो वृद्धिहेतुषु’ इत्येकमेव लक्षणं दोषचयसत्तानुमापकं कर्तुं न्याय्यम्। यदि वा ‘विपरीतगुणेच्छा च’ इत्येतत् किं द्वयोरूपादानेन? अत्रोच्यते। कदाचिदचितोऽपि दोषो वाताख्य: स्वप्रमाणस्थ: क्षीणो वा यस्य स वातवृद्धिहेतून् रूक्षादीन्न द्वेष्टि, अपि तु तानिच्छति, सात्म्यवशात्। यथा,-गर्भिणी स्त्री दोहदवशात्। तदेवं व्यभिचारदर्शनात्। प्रदोषो वृद्धिहेतुषु’ ‘विपरीतगुणेच्छा च’ इति द्वयमपि कर्तव्यम्। तेन यदा तुल्यकालं पुरुषस्य वातसमानगुणेषु तद्वृद्धिहेतुषु प्रद्वेषो जायते, वातगुणप्रतिपक्षेषु तत्क्षपणहेतुषु चाभिलाष:, तदा सम्यक् निश्चीयते वातस्योपचिति:, इति द्वयमप्येतदुक्तम्। (अ हृ सू 12/22 सर्वाङ्गसुन्दरी व्याख्या)
(1) वात संचय के लक्षण – स्तब्ध पूर्ण कोष्ठता वात दोष के संचित होने पर कोष्ठ (उदर ) भरा हुआ एवम जकड़़ा हुआ होता है।
(2) पित्त संचय के लक्षण – पीतावभासता, अर्थात पित्त दोष के संचय होने पर त्वचा, नाक, आँख कुछ पीले रंग के दिखाई देते हैं ।
(3) कफ संचय के लक्षण – मंदोष्मता गौरवं आलस्यं चयकारण विद्वेष अर्थात कफ दोष (श्लेष्मा) के संचित होने के कारण शरीर की स्वाभाविक उष्मा मंद हो जाती है। मंदाग्नि, अंगों में भारीपन एवं शरीर मे आलस्य, कफ दोष (श्लेष्मा) के संचित करने वाले आहार के प्रति द्वेष इत्यादि लक्षण दृष्टि होते हैं।
8.1.2 प्रकोप अवस्था (Stage of Prakopa):
यह द्वितीय क्रिया काल है, जिसमें पूर्व संचित दोष प्रकूपित्त होकर उन्मार्ग-गामी होकर अर्थात अपने स्वाभविक स्थान को छोडक़र अन्यत्र संचरण करने लगते हैं । इस अवस्था में पाए जाने वाले लक्षण निम्न है:-
तेषां प्रकोपात कोष्ठतोद संचरणाम्लिकापिपासा परिदाह अन्नद्वेष ह्नदयोत्क्लेदाश्च जायन्ते । तत्र द्वितीय: क्रियाकाल: ।। (सु.सू. 21/27)
तेषां प्रकोपलिङ्गानि दर्शयन्नाह- तेषां प्रकोपादित्यादि कोष्ठतोदसञ्चरणे द्वे वातस्यय सञ्चरणमिति कोष्ठे वातपरिभ्रमणमित्यर्थ:। अम्लीकापिपासापरिदाहा: पित्तस्यय अम्लीका अम्लोद्गार:, परिदाह: सर्वतोदाह:, अन्येऽपरिदाह इत्यकारप्रश्लेषं मन्यन्ते, तत्र ‘नञ्’ ईषदर्थे, यथा ‘अनुदरा कन्या’ इति, तेनेषद्दाह इति व्याख्यानयन्ति। अन्नद्वेषहृदयोत्क्लेदौ कफस्य, हृदयोत्क्लेदो हृल्लास:। द्वितीय: क्रियाकाल इति द्वितीयश्चिकित्सावसर:।। (सु.सू. 21/27 पर डल्हण व्याख्या))
वात प्रकोप के लक्षण – कोष्ठ तोद संचरण अर्थात वात दोष के प्रकुपित होने पर उदर में सुई चुभने जैसी क्रिया होती है, इसे तोद कहते हैं तथा उदर में वायु का संचरण अधिक होता है।
पित्त प्रकोप के लक्षण – अम्लिकापिपासा परिदाह अर्थात पित्त दोष प्रकूपित होने पर खट्टी डकारें (अम्लोद्गार) आती हैं, अत्यधिक प्यास लगती है तथा सम्पूर्ण शरीर में दाह की अनुभूति होती है।
कफ प्रकोप के लक्षण – अन्नद्वेष ह्नदयोत्क्लेदाश्च अर्थात कफ दोष की प्रकोपावस्था में अन्न के प्रति अनिच्छा, अरूची तथा जी मिचलाना (ह्नदयोक्लेश ) यह लक्षण पाए जाते हैं।
इस प्रकार यह द्वितिय चिकित्सा का अवसर है, यही पर अगर दोषो का शमन कर दिया जाये तो प्रकुपित दोषो का प्रसर रोका जा सकता है।
वात प्रकोप के कारण (Cause of Vata Prakopa )
अत ऊध्र्वं प्रकोपणानि वक्ष्याम:। तत्र बलवद्विग्रहातिव्यायामव्यवायाध्ययन प्रपतन प्रधावन प्रपीडनाभिघात लङ्घनप्लवनतरण रात्रि जागरणभारहरणगजतुरगरथपदातिचर्या कटुकषायतिक्तरूक्षलघुशीतवीर्य शुष्क शाक वल्लूर वरकोद्दालक कोरदूष श्यामाकनीवारमुद्ग मसूराढकी हरेणु कलाय निष्पावानशनविषमाशनाध्यशनवातमूत्रपुरीष शुक्रच्छर्दिक्षवथूद्गार बाष्पवेग विघातादिभिर्विशेषैर्वायु: प्रकोपमापद्यते ।। (सु.सू. 21/19)
कानि पुनस्तानीत्याह- तत्र बलवद्विग्रहेत्यादि। बलवद्भिर्विग्रहो बलवद्विग्रह:, मल्लादिभि: सह बाहुयुद्धादि:। अतिशब्दो व्यायामादिभिस्त्रिभि: सम्बध्यते। व्यवाय: स्त्रीसेवा। अभिघातो लगुडादिप्रहार:। लङ्घनं रवेण गर्ताद्युत्क्रमणम्। प्लवनम् उत्प्लुत्योत्प्लुत्य गमनम्। प्रतरणं नद्यादीनां बाहुभ्यां तरणम्। अतिचर्या अत्यटनं, सा च गजादिभि: पदात्यन्तै: प्रत्येकं सम्बध्यते। वल्लूरं शुष्कमांसम्। वरक: वरटीका कुधान्यविशेष:। उद्दालक: अरण्यकोद्रव:। नीवार: प्रसातिका, धान्यमध्ये रक्तशूको भवतिय ‘उलजीधान्यम्’ इति लोके। आढकी तुवरी। हरेणु: वर्तुलकलाय:। कलाय: त्रिपुटक:। निष्पावक: राजशिम्बि:। अनशनम् अल्पभोजनमुपवासश्च। विषमाशनं बह्वल्पाकालभोजनम्। अध्यशनं साजीर्णभोजनम्। वेगविघातो वेगावरोध:, स च वातमूत्रादिभि: प्रत्येकं सम्बध्यते। क्षवथु: छिक्का। बाष्पशब्देन रोदनजलं कथ्यते। आदिशब्दात् क्षुदादिवेगविघातादयो गृह्यन्ते। (सु.सू. 21/19 पर डल्हण टीका)
अत्यधिक मल्लयुद्ध, अति व्यायाम, अतिव्यवाय, अति अध्ययन, गिरना, अत्यधिक दोडऩा, अत्यधिक पीडन, गदा आदि से चोट, अत्यधिक लंघन, अत्यधिक तैरना, रात्री जागरण, अत्यधिक भार उठाना, गज-अश्व-रथ आदि की अत्यधिक सवारी करना, कटु-कषाय-तिक्त, रूक्ष, लघु, शीत द्रव्यों का अत्यधिक सेवन, शुष्क शाक का अत्यधिक सेवन, शुष्क मांस का सेवन, वरटीका जैसे कुधान्य का सतत प्रयोग, मटर, मसूर, हरेणु अदि का लगातार प्रयोग, सतत अनशन, विषमाशन और खाये हुये भोजन बिना पचे ही पुन: खाना अर्थात अर्जीण में भोजन करना, अधारणिय वैगों कौ धारण करने से विशेष रूप से वात का प्रकोप होता है।
स शीताभ्रप्रवातेषु घर्मान्ते च विशेषत:।
प्रत्यूषस्यपराöे तु जीर्णेऽन्ने च प्रकुप्यति । (सु.सू. 21/20)
वातस्य प्रकोपहेतुं पृथङ्निर्दिशन्नाह-स शीतेत्यादि। स: वायु:। शीते शीतकाले। अभ्रे मेघोपलक्षितकाले। प्रवाते प्रकृष्टवाते काले। घर्मान्ते वर्षाकाले। विशेषत: अतिशयेन। आर्तवं कालमुक्त्वाऽऽह्निकमाहप्रत्यूषस्यपराöे चेति। भुक्तापेक्षं कालमाहजीर्णेऽन्ने च प्रकुप्यतीति। (सु.सू. 21/ 20 पर डल्हण टीका)
यह वायु शीतलता समय मेें, जब बादल छाये हुये हो तब, जब अत्यधिक हवा चल रही हो तब, वर्षा ऋतु में, प्रात:संध्या और सायंसंध्या के समय तथा भोजन पच जाने पर प्रकुपित होती है।
पित्त प्रकोप के कारण (Cause of Pitta Prakopa)
क्रोधशोकभयायासोपवासविदग्धमैथुनोपगमनकट्वम्ललवणतीक्ष्णोष्णलघु विदाहितिलतैलपिण्याककुलत्थसर्षपातसीहरितकशाकगोधामत्स्याजाविक मांसदधितक्रकूर्चिकामस्तुसौवीरक सुराविकाराम्लफलकट्वरप्रभृतिभि: पित्तं प्रकोपमापद्यते । (सु.सू. 21/21)
पित्तप्रकोपणानि दर्शयन्नाह- क्रोधशोकभयेत्यादि। आयास: शरीरपीडा। विदग्धं विदाह:,
स च शोथारागाहारादिकृत:। विदाहीति यदम्लोद्गारदाहतृष्णाप्रभृतीनुदीर्य कृच्छ्रात् पाकमुपगच्छति तद्विदाहि। हरितशाकमिति ‘कुठेरशिग्रुसुरससुमुखासुरिभूस्तृणा:। चुक्राकश्चुक्रिका चेति वर्गं हरितकं विदु:’-इति। दधि सस्नेहं गव्यं दधि। कूर्चिका विग्रथितं तक्रम्। मस्तु दधिमस्तु। सौवीरकं निस्तुषयवत्रिवृदादिकृतं सन्धानं धान्याम्लं वा। सुराविकारा: पैष्टिकादय:। अम्लफलानि आम्रातकादीनि। कट्वरमिति अस्नेहं दधि। अन्ये भाषन्ते- ‘सौवीराम्लमथात्यम्लं काञ्जिकं कट्वरं विदु:। अन्ये तु तदधोभागं तक्रं चात्यम्लताङ्गतम्।। सस्नेहं दधिजं तक्रमाहुरन्ये तु कट्वरम्’-इति। प्रभृतिशब्दाच्चुक्रादीनां ग्रहणम्। (सु.सू. 21/ 21 पर डल्हण टीका)
क्रोध, शोक, भय, अत्यधिक परीश्रम, उपवास, विदग्ध पदार्थो का सेवन, अत्यधिक मैथुन, अत्यधिक भ्रमण, कटु-अम्ल -लवण रस का अत्यधिक सेवन, तीक्ष्ण, उष्ण, लघु, विदाही, तिल तैल, खळी, कुलथी, सरसो का तैल, अलसी का तैल, हरे शाक, गोधा, मछली, बकरी, भेड का मांस, दही, म_ा, कुर्चिका, दही का पानी, कांजी, सुरा के अनेको भेद, खट्टे फल और कट्वर को अत्यधिक सेवन करने से पित्त प्रकोप होता है।
तदुष्णैरुष्णकाले च घनान्ते च विशेषत:।
मध्याह्ने चार्धरात्रे च जीर्यत्यन्ने च कुप्यति।। (सु.सू. 21/22)
पित्तप्रकोपस्य कालं दर्शयन्नाह- तदुष्णैरित्यादि। तदिति पित्तम्। उष्णैरिति उष्णत्वमत्र घर्मादिकृतम् उष्णकाले ग्रीष्मे। घनान्ते शरदि। आह्निकं पित्तप्रकोपस्य कालमाह- मध्याह्ने इत्यादि। भुक्तापेक्षं पित्तप्रकोपस्य कालमाह जीर्यत्यन्ने च कुप्यतीति। ‘पित्तप्रकोपणेषु मध्ये शोकभययोर्वातप्रकोपणयो: पाठोऽनार्ष:’ इति जैज्झट:; स चान्यैर्निबन्धकारैरनुपहृतत्वादस्माभिरपि गृहीता इति।। (सु.सू. 21/ 22 पर डल्हण टीका)
उष्ण द्रव्यों के सेवन से, उष्ण काल होने पर, शरद ऋतु में, दोपहर में, मध्यरात्रि में और पाचन काल में पित्त का प्रकोप होता है।
कफ प्रकोप के कारण (Cause of Kapha Prakopa)
दिवास्वप्नाव्यायामालस्य मधुराम्ल लवण शीत स्निग्ध गुरु पिच्छिलाभिष्यन्दिहायनक यवकनैषधेत्कट माष महामाष गोधूम तिल पिष्ट विकृति दधि दुग्ध कृशरा पायसेक्षुविकारानूपौदकमांस वसा बिसमृणाल कसेरुक शृङ्गाटक मधुरवल्लीफल समशनाध्यशनप्रभृतिभि: श्लेष्मा प्रकोपमापद्यते। (सु.सू. 21/23)
कफप्रकोपणानि निर्दिशन्नाह- दिवास्वप्नाव्यायामेत्यादि। अभिष्यन्दि दोषधातुमल स्रोतसामतिशय क्लेदप्राप्तिजननम्। हायनको घोटकपुच्छ:, स च शालिविशेष:। यवक: शूकधान्यविशेष:, तस्य च यवाकारास्तण्डुला:। नैषध: ‘कोरक’ इत्याख्यायते, स च धान्यविशेष:। इत्कट: खग्गली। पिष्टं तण्डुलपिष्टम्। कृशरा तिलतण्डुलमाषै: कृता यवागू:। पायस: क्षीरसिद्धास्तण्डुला:। बिसं पद्ममूलं ‘बिसाण्ड’ इति लोके। मृणालं पद्ममूलात् स्थूल: प्ररोहाङ्कुर:। शृङ्गाटकं जलमध्ये त्रिकण्टकम्। मधुरवल्लीफलमिति मधुरफलं तालनारिकेलादि; वल्लीफलम् अलाबूप्रभृति, अन्ये कूष्माण्डकादीनि। (सु.सू. 21/ 23 पर डल्हण टीका)
दिन में शयन करने से, व्यायाम नही करने से, आलस्य करने से, मधुर, अम्ल, लवण, शीत, स्निग्ध, गुरू, पिच्छिल, अभिष्यन्दि भोजन करने से और हायनक (घेटकपुच्छ), यवक (शूकधान्य विशेष), नैषध (कोरक), इत्कट (खग्गली), माष, महामाष, गेहु, तिल, पिष्ट की विकृति, दूध, दही, कृशरा, पायस, इक्षु के विकार, आनुप, ओदक मांस, वसा, बिसमृणाल, कशेरूक, श्रंगाटक, तालफल नारीकेल आदि मधुर फल, अलाबु आदि वल्ली फल के अतिसेवन से, समाशन, अध्यशन अतिअशन करने पर कफ प्रकुपित होता हैं।
स शीतै: शीतकाले च वसन्ते च विशेषत:।
पूर्वाöे च प्रदोषे च भुक्तमात्रे प्रकुप्यति।। (सु.सू. 21/24)
कफस्य कोपकालविशेषं निर्दिशन्नाह- स शीतैरित्यादि। शीतै: शीतलद्रव्यै:। पूर्वाöे प्रथमप्रहरे। प्रदोषे रजनीमुखे। (सु.सू. 21/ 24 पर डल्हण टीका)
शीतल खाने से, शीतकाल में, बसन्त ऋतु में, दिन एवं रात्रि के प्रथम प्रहर और खाना खाते ही कफ बढता है।
दोषो के संचय, प्रकोप एवं शमन के कारण –
आचार्य वाग्भट ने वात संचय, प्रकोप एवं शमन के जो कारण बताये है, वो निम्न है-
उष्णेन युक्ता रूक्षाद्या वायो: कुर्वन्ति सञ्चयम्।।
शीतेन कोपमुष्णेन शमं स्निग्धादयो गुणा:। (अ. हृ. सू. 12/19)
उष्णेन गुणेन विरुद्धेनोपहिता रूक्षादय:-प्रथमाध्यायोक्ता: (श्लो.11) षड्वातगुणा:, वायोश्चयं कुर्वन्ति, न कोपमुष्णस्य विरुद्धत्वात्। त एव च रूक्षादय: शीतगुणोपहितास्तत्सदृशत्वाद्वायो: कोपं कुर्वन्ति। उष्णेन युक्ता: स्निग्धादयो गुणा वायो: शमं कुर्वन्ति, विपरीतत्वात्। (अ.हृ.सू. 12/19 सर्वाङ्गसुन्दरी व्याख्या)
आचार्य वाग्भट ने पित्त संचय, प्रकोप एवं शमन के जो कारण बताये है वो निम्न है-
शीतेन युक्तास्तीक्ष्णाद्याश्चयं पित्तस्य कुर्वते ।
उष्णेन कोपं, मन्दाद्या: शमं शीतोपसंहिता:। (अ. हृ. सू. 12/18)
एवं पित्तस्य शीतेन गुणेन युक्तास्तीक्ष्णादयो गुणाश्चयं कुर्वन्ति। त एव तीक्ष्णादयो गुणा उष्णेन सहिता: कोपं कुर्वन्ति। मन्दादयो गुणा: शीतगुणयुक्ता: शमं कुर्वन्ति, विपरीतत्वात्। (अ. हृ. सू. 12/18 पर सर्वाङ्गसुन्दरी व्याख्या)
आचार्य वाग्भट ने कफ संचय, प्रकोप एवं शमन के जो कारण बताये है वो निम्न है –
शीतेन युक्ता: स्निग्धाद्या: कुर्वते श्लेष्मणश्चयम्।
उष्णेन कोपं, तेनैव गुणा रूक्षादय: शमम्। (अ. हृ. सू. 12 /21-22)
शीतगुणोपहिता: स्निग्धादय: कफस्य चयं कुर्वते। उष्णेन युक्तास्त एव स्निग्धादय: कफस्य कोपं कुर्वते। तेनैव.उष्णेन, युक्ता रूक्षादय: कफस्य च शमं कुर्वन्ति। कफस्य हि शीतगुणेन सदृशेनापि स्निग्धादिगुणयुक्तेन स्त्यानत्वाच्चय: स्यात्। विपरीतेनोष्णेन विलयनात् कोप:। स एवोष्णो यदा रूक्षादियुक्तो भवति तदा विपरीतत्वात् शमो भवति। (अ. हृ. सू. 12/ 20-21 पर सर्वाङ्गसुन्दरी व्याख्या)
8.1.3 प्रसर अवस्था (Stage of Prasara)
यह तृतीय क्रियाकाल है। प्रकुपित हुए वात आदि दोष रस, रक्त वाहनियों के द्वारा प्रसारित होकर उघ्र्व (ऊपर), अधो (नीचे), त्रियक (बाएं -दाएं) गति करते हुए कोष्ठ, शाखा या मर्मास्थियों में पहुंचकर यह वात, पित्त, कफ पृथक संसर्ग या सन्निपात भेद से प्रसर करते हैं ।
अत ऊध्र्वं प्रसरं वक्ष्याम:. तेषामेभिरातङ्कविशेषै: प्रकुपितानां किण्वोदकपिष्टसमवाय इवोद्रिक्तानां प्रसरो भवति। तेषां वायुर्गतिमत्त्वात् प्रसरणहेतु: सत्यप्यचैतन्ये । स हि रजोभूयिष्ठ:य रजश्च प्रवर्तकं सर्वभावानाम्। यथा- महानुदकसञ्चयोऽतिवृद्ध: सेतुमवदार्यापरेणोदकेन व्यामिश्र:, सर्वत: प्रधावति, एवं दोषा: कदाचिदेकशो द्विश: समस्ता: शोणितसहिता वाऽनेकधा प्रसरन्ति तद्यथा- वात:, पित्तं, श्लेष्मा, शोणितं, वातपित्ते, वातश्लेष्माणौ, पित्तश्लेष्माणौ, वातशोणिते, पित्तशोणिते, श्लेष्मशोणिते, वातपित्तशोणितानि, वातश्लेष्मशोणितानि, पित्तश्लेष्मशोणितानि, वातपित्तकफा:, वातपित्तकफशोणितानीतिय एवं पञ्चदशधा प्रसरन्ति (सु.सू. 21/28)
अत ऊध्र्वं प्रकोपविशेषमेव प्रसराख्यं दर्शयन्नाह- अत ऊध्र्वमित्यादि। तेषां वातपित्तश्लेष्मणाम् एभिरातङ्कविशेषै: प्रकुपितानामिति पूर्वोक्तैर्बलवद्विग्रहादिभि:, कोष्ठतोदसञ्चरणादिभिर्वा। कथं ते प्रसरन्तीत्यत आह- किण्वोदकपिष्टेत्यादि। अन्योन्यगुणानुप्रवेशाद्यथा किण्वोदकपिष्टानामुद्रेक:, एवं दुष्टिहेतूनां समवाये वातादीनामुद्रेको भवतिय किण्वं सुराबीजं, पिष्टं तण्डुलपिष्टं, समवाय: संयोग:। कुतो दोषाणां मध्ये वायुरेव प्रसरणहेतुरित्याह- तेषां वायुर्गतिमत्त्वादित्यादि। स हि रजोभूयिष्ठ इति स: वायु:,हि यस्मादर्थे, रजोभूयिष्ठ: रजोबहुलो वायु: (शा. अ. 1) इत्युक्तत्वात्। सर्वभावानां सर्वपदार्थानाम्। एतेन वायोर्गतिमत्त्वे हेतुरुक्त:। प्रसरस्य पुनर्दृष्टान्तमाह- यथा महानुदकसञ्चयोऽतिप्रवृद्ध इत्यादि। सेतुमवदार्येति पालीं भित्त्वा। तमेव संयोगिनां संयोगसङ्ख्यया दर्शयन्नाह- तद्यथा- वात:, पित्तमित्यादि।। (सु.सू. 21/28 पर डल्हण व्याख्या)
वात दोष के अतिरिक्त सभी दोष एवं धातु और मल पंगु होते हैं। वात दोष की क्रिया से उनमें गति उत्पन्न होती है और वात दोष में गति की प्रेरणा रजो गुण देती है। इसका कारण यह है कि वात दोष में रजो गुण की प्रधानता होती है। दोषों की प्रसर अवस्था में वात आदि दोषों के निम्न लक्षण पाए जाते हैं:-
एवं प्रकुपितानां प्रसरतां वायोर्विमार्गगमनाटोपौ, ओषचोषपरिदाहधूमायनानि पित्तस्य, अरोचकाविपाकाङ्गसादाश्छर्दिश्चेति श्लेष्मणो लिङ्गानि भवन्तिय तत्र तृतीय: क्रियाकाल: ।। (सु.सू. 21/ 32)
तेषां प्रसरणलिङ्गानि दर्शयन्नाह- एवं प्रकुपितानामित्यादि। प्रसरप्रस्तावेऽत्र प्रकुपितानामिति यत् कृतं तत् प्रकोपविशेष एव प्रसर इति ज्ञापनार्थम्। प्रकोपप्रसरयोश्च को भेद-उच्यते- स्त्यानस्य सर्पिष: क्वाथ्यमानस्य प्रथमं सञ्चलनमात्रमेव प्रकोप:, तस्यैव चातिक्वाथ्यमानस्य फेनमण्डलेनोत्सर्पता देशान्तरसरणमिव प्रसर:। वायोर्विमार्गगमनेत्यादि। विमार्गगमनाटोपौ वायो:य वायो:य प्रकृतवायुमार्गादन्यो विमार्ग:, आटोपो रुजापूर्वक उदरक्षोभ:। ओषादीनि पित्तस्यय ओष एकदेशिको दाह:, चोष: चूष्यत इव वेदनाविशेष:, धूमायनं धूमोद्वमनमिव। केचिदोषचोषौ न पठन्ति, ‘दाहो धूमायनं पित्तस्य’ इति च पठन्ति। अरोचकादय: कफस्यय अङ्गसाद: अङ्गग्लानि:। अविपाकाङ्गसादौ केचिन्न पठन्ति, ‘अरोचकश्छर्दिश्च’ इत्येतदेव च पठन्ति। तत्र प्रसरं यावद्दोषाणामेव हेतुलिङ्गचिकित्सा, तदनन्तरं व्याधेरिति ।। (सु.सू. 21/ 32 पर डल्हण व्याख्या)
प्रसरित वात दोष के कारण उघ्र्व अथवा त्रियक गमन करती है तथा आटोप अर्थात गुडग़ुहाट सहित विद्यमान होता है।
पित्त के कारण शरीर में उष्णता, चुसने जैसी वेदना दाह तथा धूम के समान उद्गार उत्पन्न होते है।
प्रसारित कफ दोष के कारण अरुची, अजीर्ण, अंगसाद, आयास या थकावट इत्यादि लक्षण उत्पन्न होते हैं।
‘पित्तं पगुं कफ: पगुं पङगवो मल धातव:।
वायुनां यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेद्यवत।।’
8.1.4 स्थान संश्रय अवस्था (Stage of Sthansanshraya):
यदि प्रसारित दोषों को समूचित उपचार के द्वारा प्राकृतिक अवस्था में नही लाया जाये तो स्थानसंश्रय नामक चतुर्थ क्रिया काल उत्पन्न होने लगता है।
प्रकूपित वातादि दोष अनुधावन करते हुए जव शरीर के किसी स्थान विशेष या अवययों में पहुंचते हैं तो दुष्यो (धातुओं उपधातुओं एवं मलों) को समूर्छित कर अर्थात विकृति उत्पन्न करता है, इसे ही स्थान संश्रय अवस्था कहते हैं। इस स्थान संश्रय अवस्था को ही पूर्व रुप के नाम से भी जाना जाता है। दोष दुष्य समूर्छित होने के कारण इस अवस्था में दोष विशेष के लक्षणों का पृथक-2 अभास ना होकर सम्मलित रूप से रोग के अव्यक्त लक्षण प्रकट होते हैं ।
जैसे:- उदर में संश्रित हुआ दोष गुल्म, अन्तर्विद्रधि, अनाह, विसुचिका, अतिसार आदि रोगों को उत्पन्न करते हैं। वस्ति में संश्रित दोष प्रमेह, मूत्राष्मरी, मूत्रापघात, मूत्रद्यात, मूत्रकछ्र, आदि रोग उत्पन्न होते है।
इसी प्रकार गुदा में अर्श, भगन्दर आदि, पैरों में श्लीपद, वातकंटक आदि तथा संर्वाग में दोषो का संश्रय होने पर वात व्याधि ज्वर, पाण्डु, शोथ आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
कूपिताना दोषानां शरीरं परिद्यावताम ।
यत्र संग: स्ववैगुन्याद व्याधिज्ञत्रोपजाय ।।
तत्र वायोः पित्तस्थानगतस्य पित्तवत् प्रतीकारः, पित्तस्य च कफस्थानगतस्य कफवत्, कफस्य च वातस्थानगतस्य वातवत् ; एष क्रियाविभागः (सु.सू. 21/ 31)
8.1.5 व्यक्त अवस्था (Stage of Vykta):
यह पंचम क्रिया काल है जिसमें व्याधि के लक्षणएवम चिन्ह अधिक स्पष्ट तथा तीव्र स्वरूप के होते है जैसे ज्वर में सन्ताप, अतिसार (दस्त) में अति सरण (निकलना), कामला में त्वचा एवम श्लेष्मकला का अत्याधिक पीला होना तथा विसूचिका रोग में उदर में तीव्र वेदना होना आदि ।
आचार्य डल्हण के अनुसार:- ‘व्याधे प्रव्यक्त: । ’
माधव निदान के अनुसार:- ‘तदैव व्यक्तां यातं रूप इव्यभिधियते।’
अत ऊर्ध्वं व्याधेर्दर्शनं वक्ष्यामः- शोफार्बुदग्रन्थिविद्रधिविसर्पप्रभृतीनां प्रव्यक्तलक्षणता ज्वरातीसारप्रभृतीनां च । तत्र पञ्चमः क्रियाकालः ।। (सु.सू. 21/ 34)
व्याधेः प्रव्यक्तं रूपं व्यक्तिः, तां दर्शयन्नाह- अत ऊर्ध्वमित्यादि| व्याधेर्दर्शनं व्याध्युपलब्धिः, शोफादीनां ज्वरादीनां च प्रव्यक्तलक्षणता व्यक्तिः; प्रव्यक्तलक्षणता च व्याधिजातिलक्षणकथनं; तद्यथा- शोफार्बुदादीनां त्वङ्मांसस्थानस्य दोषस्य सङ्घातता, तथा सन्तापलक्षणो ज्वरः, सरणलक्षणोऽतीसारः, पूरणलक्षणमुदरमिति| अत्र व्याधेः प्रत्यनीकैव चिकित्सा ।। (सु.सू. 21/ 34 पर डल्हण व्याख्या)
8.1.6 भेद अवस्था
यदि वैकृत अवस्था में दोषों की व्यक्ता अवस्था में रोगी की समूचित चिकित्सा ना की जाये तों ‘भेद’ नामक छठा क्रिया काल उत्पन्न होता है इस अवस्था में रोग विषेष रूप से दीर्घकालानुबन्धि या जीर्ण (chronic) हो जाता है। जैसे शोथ, विद्रधी आदि विकृत होकर व्रण का रूप ले लेते हैं तथा ज्वर, अतिसार, शोथ आदि रोग चिंरस्थाई एवम जीर्ण हो जाते हैं । इसके बाद यह रोग आसाध्य श्रेणी में पंहुच जाते हैं ।
अत उध्र्वमेतेषामवदीर्णानां व्रणभावमापन्नानां षष्ठ: क्रियाकालज्वरातिसारप्रभृतिनां च दीर्घकालानुबन्ध:। तत्राप्रतिक्रियामाणेऽसाध्यतामुपयान्ति ।। (सु.सू. 21/35)
व्यक्तिमभिधाय भेदं कथयन्नाह- अत ऊध्र्वमित्यादि। एतेषां शोफादीनामित्यर्थ:। अवदीर्णानां विदरणङ्गतानां भिन्नानामित्यर्थ: अवदीर्णत्वं च शोफादीनां विशेषलक्षणं, तच्च भेद:। व्रणभावमापन्नानामिति यत एव विदीर्णा अत एव व्रणत्वं गता इत्यर्थ:। ज्वरातीसारप्रभृतीनां च दीर्घकालानुबन्ध इति यथा व्यक्तिप्रस्तावे ज्वरादीनां सन्तापसरणपूरणादिकं सामान्यलक्षणमुक्तं, तथाऽत्र भेदप्रस्तावाद्विशेषलक्षणं दीर्घकालानुबन्धो ज्वरादिजातिषु भेद इति ज्ञातव्य:। केचिदत्र ‘दीर्घकालानुबन्धो न प्रतिव्याधिजातिषु सम्भवतीति वातादिलक्षणभेदाद्भिन्नत्वं भेद:’ इत्याचक्षते, यथा- अष्टानां ज्वराणामित्यादि। अत्र पक्षे दीर्घकालानुबन्ध इति स्वरूपकथनम्, एतेन सञ्चयादिष्वप्रतीकाराद्दीर्घकालानुबन्धोऽसाध्यता च भवतीत्युक्तम्। पूर्वासु गतिष्वप्रतीकारेऽपि प्रतीकारावसरोऽस्त्येव, अत्र तूत्तरगत्यभावात् पश्चात् प्रतीकाराशा नास्त्येवेति दर्शयन्नाह- तत्राप्रतिक्रियमाण इत्यादि। तत्रेति भेदे इत्यर्थ:।।(सु.सू. 21/35 पर डल्हण व्याख्या)
8.2 क्रिया काल का महत्व (Importance of Kriya Kaal)
क्रिया काल रोग की विभिन्न अवस्थाओं (stages of diseases) वर्गीकरण है। क्रिया कालों का नामकरण दोष वृद्धि के लक्षणों के आधार पर किया गया है। इसमें प्रारम्भ में ही चिकित्सा करने पर तृतीय क्रिया काल नही आता है और प्रकुपित दोषों का शमन हो जाता है। वृद्ध दोषों की उपेक्षा करने से रोग की असाध्यता या दु:चिकित्सियता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। सामान्यत: जैसे जैसे क्रिया काल में वृद्धि होती है वेसे-वेसे रोग शक्तिशाली होता जाता है।
आत्ययिक स्थिति का निर्धारण- रोग के अत्यधिक बढ जाने पर रोगी गम्भीर अवस्था में आ जाता है अत: क्रिया काल से रोगी एवे रोग दोनो की स्थिति का निर्धारण हो जाता है।
औषध मात्रा का निर्धारण- जैसे जैसे रोग की उपेक्षा होकर अगले क्रिया काल की ओर जाता है वैसे-वैसे रोग में लगने वाली औषध की मात्रा भी परीवर्तीत होती जाती है।
चिकित्सा में लगने वाले समय का निर्धारण – जैसे जैसे रोग की उपेक्षा होकर अगले क्रिया काल की ओर जाता है वैसे-वैसे रोग ठीक होने में लगने वाला समय भी बढता जाता है।
आचार्य सुश्रुत के अनुसार जो इन क्रियाकाल को जानता है, वो ही चिकित्सक बन सकता है