अध्याय -2 आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्त (Fundamental principal of Ayurveda kriya Sharir)

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आयुर्वेद विश्व का प्राचीनतम चिकित्सा विज्ञान (Ayurveda is oldest medical science) है जिसके दो प्रमुख प्रयोजन या उद्देश्य (aims) हैं:- प्रथम तो स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को बनाया रखना (Prevention) और दुसरा रोगी के रोग का शमन (Cure) करना।

स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं आतुरस्य विकारप्रशमनं च। (च. सू. 30/26)

आयुर्वेद एक ऐसा सम्पूर्ण चिकित्सा विज्ञान है; जो रोगो से मुक्त करने के साथ-साथ रोग को उत्पन्न ही ना होने देने के ज्ञान से युक्त है।

आयु को बनाये रखने वाले विज्ञान को संक्षिप्त त्रिसूत्र के रूप में अर्थात हेतु (Couse), लिंग (Sign) एवं औषध (Treatment) के रूप में, सर्वप्रथम ब्रह्मा द्वारा दक्ष प्रजापति को दिया गया था।

ब्रह्मा के काल से लेकर आधुनिक काल तक यह विज्ञान विभिन्न ऋषि मुनियो एवं ज्ञानियों के सतत अन्वेषण से समृद्ध होता रहा है।

मत-मतान्तरों के खंडन-मंडन होने के बावजूद अपने-अपने मत को प्रदर्शित की स्वतंत्रता, इस आयुर्वेद विज्ञान की विशेषता रही है। ताकि किसी विषय के अन्तिम सत्य तक पहुचने के पहले उस विषय के प्रत्येक पहलु को जान लिया जाये। यही बिन्दु किसी विज्ञान के विकास का द्योतक है। अत: आयुर्वेद ‘आयु का विज्ञान’ है जिसमें सतत् अन्वेषण होता रहा है।

2.1 आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्त और उनकी चिकित्सा के क्षेत्र में उपयोगिता (Introduction to basic principles of Ayurveda and their significance) :

 प्रत्येक विज्ञान अपने अपने निश्चित सिद्धांतों पर आगे बढ़ता है। आयुर्वेद आयु का विज्ञान है अत: इसके सिद्धांतों की निश्चित पद्वतियाँ हैं। इन आयुर्वेद के सिद्धान्तों में से कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्न है –

(1) लोक पुरूष साम्य सिद्धान्त

(2) त्रिगुण सिद्धान्त

(3) पंचमहाभूत सिद्धान्त,

(4) त्रिदोष सिद्धांत,

(5) सप्त धातु सिद्धान्त,

(6) सामान्य विशेष सिद्धांत,

(7) रस पंचक सिद्धान्त

(8) स्रोतस सिद्धान्त

2.1 लोक पुरूष साम्य सिद्धान्त (Theory of similarity in environment and individual)

लोक-पुरूष साम्य सिद्धान्त एक सर्वतंत्र सिद्धान्त (Universal cunclusion) है अर्थात यह सिद्धान्त सभी आर्चायो को मान्य है। इस सिद्धान्त के अनुसार जितने भी मूर्तिमान भाव विशेष इस लोक (प्रकृति) में है, वे सब पुरूष (कर्म पुरूष) में भी होते है। जितने पुरूष (कर्म पुरूष) में है, वे सब लोक (प्रकृति) में भी होते है।

यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषा: तावन्त: पुरूषे, यावन्त: पुरूषे तावन्तो लोके। पुरूषोऽयं लोकसम्मित:।। (च. शा.4/13)

यह सिद्धान्त दार्शनिकों के पिण्ड ब्रह्माण्ड न्याय के समान ही है।

2.1.1 शरीर रचना के अनुसार लोक एवम पुरूष का साम्य (Anatomically similarity in Environment and Individual)

 ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे

अर्थात जैसा जैसा ब्रह्माण्ड में है वैसा-वैसा ही पिण्ड या पुरूष या शरीर में है यथा जिस प्रकार पुरूष पंचमहाभूतों से निर्मित है, उसी प्रकार यह संसार भी पंचमहाभूतों से निर्मित है।

इसलिए आचार्य चरक ने भी लोक एवं पुरूष में साम्यता बतलायी है।

आचार्य चरक के अनुसार इस लोक जितने मूर्तिमान द्रव्य हैं उतने ही पुरूष में पाए जाते हैं और जितने तत्वों से पुरूष का निर्माण हुआ, उन्हीं से जगत का भी निर्माण हुआ है।

इसी से लोक एवम  पुरूष में साम्यता का ज्ञान होता है।

चरक का कथन है कि – सम्पूर्ण लोक को अपने में और अपने में सम्पूर्ण लोक को मानने से सत्याबुद्धि उत्पन्न होती है इससे स्वविवेक जागृत होता है, जिसके द्वारा तम का नाश होकर वेदनाओं की पूर्ण शान्तिरूप सुख प्राप्त होता है और मनुष्य मानसिक शान्ति का अनुभव करता है। मानसिक व्याधियों से वह आक्रान्त नहीं होता तथा पूर्ण स्वस्थ रहता है।

साम्यता के लिए जिन अवयवों को ध्यान में रखा जाता है उनकी संख्या पुरूष और लोक दोनों में असंख्यात होती है। यद्यपि सभी का परिगणन सम्भव नहीे है, तथापि प्रमुख साम्यता – सूचक अवयवों को निम्न तालिका एवं चित्र के द्वारा समझा जा सकता है।

लोक एवं पुरूष में समानता दर्शाने वाले उदाहरण

तालिका संख्या: 2.1 लोक एवं पुरूष में साम्य सूचक तालिका

क्र.स. लोक स्थित मूर्तिमान भावविशेष पुरूष में स्थित मूर्तिमान भावविशेष
1 पंचमहाभूतो एवं अव्यक्त से मिलकर बना -समुदित लोक पंचमहाभूतो एवं आत्मा से निर्मित षड धातु पुरूष – गर्भ
2 पृथिवी मूर्ति/आकार ()
3 जल क्लेद ()
4 तैजस शरीरिक उष्णता ()
5 वायु प्राण
6 आकाश छिद्रयुक्त अंग (सुड्ढिराणि)
7 ब्रह्ना अन्तरात्मा
8 ब्रह्नाविभूति अन्तरात्माविभूति (ऐश्वर्य)
9 ब्रह्नाविभूति प्रजापति आत्मा की विभूति मन
10 इन्द्र अंहकार
11 आदित्य (सूर्य) आदानकाल
12 रूद्र क्रोध
13 सोम प्रसन्नता
14 वसु (कुबेर) सुख
15 अश्विनी कुमार शरीर कान्ति
16 मरूत उत्साह
17 विश्वेदेव इन्द्रिया एवं इन्द्रियार्थ
18 तम मोह
19 ज्योति ज्ञान
20 सृष्टि का प्रारम्भ गर्भधान
21 कृतयुग बाल्यावस्था
22 त्रेतायुग यौवनवास्था
23 द्वापरयुग वृदावस्था
24 कलियुग रूग्णावस्था
25 युग का अन्त (प्रलय) मरणावस्था

इस प्रकार लोक में उपस्थित भाव – विशेषों के प्रतिनिधि द्रव्य शरीर में भी पाये जाने से लोक एवम पुरूष में उत्पति एवम कार्य की दृष्टि से साम्यता प्रतीत होती है।

2.1.2 क्रियाओ में लोक एवम पुरूष का साम्य (Physiologically similarity in Environment and Individual)

विसर्गादानविक्षेपै:  सोमसूर्यानिला यथा।

    धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा।। (सु.सु.21/8)

    अर्थात चन्द्र, सूर्य और वायु जिस प्रकार अपनी विसर्ग, आदान और विक्षेप क्रियाओं से जगत का धारण करते हैं। उसी प्रकार कफ पित्त और वात अपनी विसर्ग, आदान और विक्षेप क्रियाओं से प्राणी के शरीर का धारण करती है।

जो क्रियाऐ लोक (Enviroment) मे होती है वो पुरूष (Individual  or organism) में भी संपन्न होती है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में होने वाली सभी क्रियाओं को 3 समुहो में वर्गीकृत कर दिया गया है –

विसर्ग क्रिया – लोक में यह क्रिया चन्द्र द्वारा प्रेरित होती है एवं पुरूष में यह कफ दोष द्वारा प्रेरित होती है

आदान क्रिया – लोक में यह क्रिया सूर्य द्वारा प्रेरित होती है एवं पुरूष में यह पित्त दोष द्वारा प्रेरित होती है

विक्षेप क्रिया – लोक में यह क्रिया वायु द्वारा प्रेरित होती है एवं पुरूष में यह वात दोष द्वारा प्रेरित होती है

 2.1.3 आधुनिक दृष्टिकोण सें लोक एवम पुरूष साम्यता (Similarity between Lok/Environment and Purush/ Individual in modern aspect)

नव शरीर असंख्य कोशिकाओं (cells)से निर्मित है प्रत्येक कोशिका की रचना (Chemical lavel of organization) पर दृष्टि ड़ाले तो उसका निर्माण भी उन्ही तत्वों से होता है, जिनसे लोक (environment) निर्माण हुआ है। इस प्रकार इन्हे दो प्रकार के वातावरण- आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण (internal and external environment) माने जा सकते है। शरीर को आन्तरिक वातावरण (internal environment) तथा लोक को बाह्य वातावरण (external environment) को माना जा सकता है।

आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी मानव शरीर के रासायनिक संगठन में लोक एवं पुरूष की साम्यता दिखलाई है। जिन रासायनिक तत्वों से मानव शरीर निर्मित है वे ही रासायनिक तत्व लोक में भी पाए जाते हैं।

जैसे कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन एवं नाइट्रोजन वातावरण के मुख्य तत्व है, ऐसे ही ये चारो तत्व जीव के शरीर की आधार इकाई ‘कोशिका’ को निर्मित करने वाले प्रोटीन, वसा व कार्बोहाइड्रेट आदि के मुख्य घटक है। इसके अतिरिक्त लोह, ताम्र आदि धातुऐं वातावरण एवं शरीर दोनो में घटक द्रव्यों के रूप में पायी जाती है। इन तत्वो की न्यूनता होने पर शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते है, जैसे – लोह तत्व की कमी से पांडु रोग उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार हम यह कह सकते है कि तत्वों के अनुपात में भले ही अन्तर हो, किन्तु लोक व पुरूष में पाये जाने वाले तत्वों में बहुत हद तक समानता है।

2.2 त्रिगुण सिद्धान्त (Theory of Triguna)

त्रिगुण का अर्थ मूल प्रकृति के तीन महागुणो से है ये महागुण निम्न है:-

  1. सत्त्व:-सत्त्व आत्मा के ज्ञान गुण का प्रकाशक है जिससे कर्म पुरूष में चैतन्य की प्राप्ति होती है, अत: सत्त्व की दोष मूलक संज्ञा नहीं है।
  2. रज:-रजो गुण प्रवृति और गतिमूलक है।
  3. तम:-तम गुण नियामक होने से अन्य गुणों का अवरोध करता है।

इनमें से केवल ‘रज’ एवम ‘तम’ को ही ‘मानस दोष’ संज्ञा दी गई है। सत्त्व को शुद्ध होने के कारण दोष नही कहते है।

सत्त्वं रजस्तमश्चेति त्रय: प्रोक्ता महागुणा:।। (अ.स.सू. 1/29)

मन: शुद्धं सत्वम्। रज: तमसी दोषौ तस्योपप्लवावविद्यासम्भूतौ (अ.स.सू. 1/31 पर इन्दु)

सत्त्वरजस्तमासि द्रव्याणि न तु गुणा:।। (अ.हृ.सू. 1)

सत्त्व, रज एवं तम यद्यपि द्रव्य हैं, फिर भी इन्हे गुण कहते है, इसका कारण यह है कि ये रस्सी के तीन गुणों की तरह आपस में मिलकर पुरूष के लिए बन्धन का कार्य करते हैं।

सृष्टि के निर्माण पुर्व (अव्यक्त अवस्था) में त्रिगुण साम्यावस्था में रहते है तथा इनकी असाम्यावस्था ही सृष्टि निर्माण (व्यक्त अवस्थां) का कारण है। सृष्टि के निर्माण के दोरान ये पंचभूतों का निर्माण करते है। ये त्रिगुण शरीर, आत्मा एवं मन इन तीनो को परस्पर आबद्ध किये रहते है।

तालिका संख्या: 2.2    सत्व,       रज एवं तम के विशेष गुण

सत्व रज तम
बौद्धिक प्रेरक एवं क्रियाबीज जडात्मक
प्रकाशक, ज्ञान शक्ति युक्त, आनन्दरूप, बुद्धिमूलक एवं लघु भाव गतिपरक, संयोगकारक, द्वेषात्मक, क्रियाशील भाव आवरक-कारक, प्रकृतिनियामक, विषादात्मक, गुरू भाव

2.3 पंचमहाभूतसिद्धान्त  (Theory of Panchmahabhoot)

यह एक सार्वत्रिक सिद्धान्त है। पंचमहाभूत सिद्धान्त के बारे मे जानने के पहले भूत एवं महाभूत क्या है? यह जानना अधिक उचित होगा।

   2.3.1 भूत (Bhoot)

‘भू सत्तायाम’ धातु में  ‘क्त’ प्रत्यय लगाने  पर भूत शब्द निष्पन्न होता है।

‘भू +क्त’= भूत:

भूत का अर्थ ‘‘अस्तित्व‘‘ होता है  अर्थात जिसकी सत्ता हो, जो अस्तित्व  में हो या जो विद्यमान हो वो भूत है।  महर्षि चरक ने भूतों को ‘सुसूक्ष्म’ तथा  ‘इन्द्रियातीत’ अर्थात इन्द्रियों से परे कहा है।

ये ‘भूत’ जिन्हे तन्मात्राये भी कहते है इनकी संख्या पांच (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) होती  है। ये किसी से उत्पन्न नहीे होते, बल्कि महाभूतों के उत्पति या निर्माण के कारण होते हैं, इसी कारण से ये पंचमहाभूतों के ‘कारण द्रव्य’ कहलाते हैं किन्तु पंचभूत (तन्मात्राये) स्वयं किसी द्रव्य से उत्पन्न नहीे होते, अत:  ये नित्य होते है। पंचभूत से पंचमहाभूतों की उत्पति होती है, अत: पंचभूत कारण द्रव्य हुआ। ‘भूत’ में जब महतत्व या स्थूलत्व आ जाता है, तब इसे ही महाभूत कहते है।

         2.3.2 पंचमहाभूतों का नाम

  1. आकाश
  2. वायु
  3. अग्नि
  4. जल
  5. पृथ्वी

सर्वं द्रव्यं हि पंचमहाभूतात्मकम्।

पंचमहाभूत सिद्धान्तानुसार संसार के समस्त द्रव्य पंचमहाभूतात्मक हैं अर्थात संसार का प्रत्येक द्रव्य पंचमहाभूतो से बना हुआ है।

 तालिका संख्या: 1.3 – भूत एवं पंचमहाभूत मे विभेदात्मक तालिका

क्र.स. भूत (तन्मात्रा) पंचमहाभूत
1 नित्य अनित्य
2 कारण द्रव्य कार्य द्रव्य
3 सुसूक्ष्म एवं इन्द्रियातीत अपेक्षाकृत महत/स्थूल

 

          2.3.3 त्रिगुणो, त्रिदोषों एवं पंचमहाभूतों में सम्बन्ध (Relation between Trigun, Tridosha and Panchmahabhoot)

संसार के समस्त द्रव्य पंचमहाभूतात्मक हैं इसी तरह वात, पित्त और कफ भी पॉचभौतिक हैं और त्रिगुण इन पंचमहाभूतों के सत्तात्मक कारण है। ये त्रिगुण मूलप्रकृति के महागुण है, जो सृष्टि उत्पति-क्रम में पहले पंचमहाभूतों तथा तत्पश्चात त्रिदोष में आते हैं।

तत्र सत्त्वबहुलमाकाशं रजोबहूलो वायु:। सत्त्वरजोबहुलोऽग्नि: सत्त्वतमोबहुला आप: तमो बहुला पृथिवी।। (सु. शा. – 1/ 20)

अर्थात आकाश महाभूत में सत्त्व गुण का, वायु महाभूत में रजो गुण का, अग्नि महाभूत में सत्त्व एवम रजो गुण का, जल महाभूत में सत्त्व एवम तमो गुण का एवं पृथ्वी महाभूत में तमो गुण का आधिक्य रहता है।

वातादि दोषों पर भी इन त्रिगुणों का प्रभाव पड़ता है यही कारण है कि वात दोष में रजो गुण की, पित्त दोष में सत्त्व गुण की तथा कफ दोष में तम गुण की प्रधानता पायी जाती है।

इन प्राधान्य का ही परिणाम  है कि वात में रजो गुणों की क्रियाशीलता, पित्त दोष में सत्त्वगुण की ज्ञानमूलकता या बौद्धिकता तथा श्लेष्मा में तमो गुण की स्थिरता या जड़ता का भाव इनके कर्मों में देखा जाता है।

इस तरह यह देखा जाता है कि सत्त्व के द्वारा पित्त के प्रभावित होने पर स्वस्थ पुरूष में धी, धृति और स्मृति आदि बौधिक/बुद्धयात्मक कर्म प्रबल रूप में विद्यमान रहते है।

रजो गुण के द्वारा वात के प्रभावित होने पर उत्साह, वाणी, गति, चेष्टा, प्राण शक्ति, आदि प्रेरणात्मक कर्म देखे जाते हैं ।

इसी प्रकार तमो गुण के द्वारा श्लेष्मा शरीेर में स्थिरता, द्धढ़ता गम्भीरता, धैर्य आदि विशेषताए उत्पन्न होती है।

तालिका संख्या: 2.4 – त्रिदोष एवं पंचमहाभूत संबन्ध

त्रिदोष प्रधान महाभूत
वात दोष आकाश एवं वायु
पित्त दोष तेज
कफ दोष जल एवं पृथ्वी

 

तालिका संख्या: 2.5 – पंचमहाभूत एवं त्रिगुण संबन्ध

पंचमहाभूत प्रधान त्रिगुण
आकाश सत्व
वायु रज
तेज सत्व एवं रज
जल सत्व एवं तम
पृथ्वी तम

 

तालिका संख्या: 2.6    – त्रिदोष एवं त्रिगुण संबन्ध

त्रिदोष प्रधान त्रिगुण
वात दोष रज गुण प्रधान
पित्त दोष सत्त्व गुण प्रधान
कफ दोष तम गुण प्रधान

2.4 स्रोतस सिद्धान्त (Theory of Srotas)

स्रोतस सिद्धान्त एक चिकित्सोपयोगी सिद्धान्त है जिसमें व्याधियो का स्रोतसो के आधार पर वर्गीकरण कर चिकित्सा हेतु मूल अंगो को बताया गया है। इस सिद्धान्त से यह ज्ञात होता है कि किस स्रोतस की व्याधि में कोनसे अंगो की चिकित्सा मुख्य रूप से की जाये। आचार्यों द्वारा स्रोतसो के वर्णन में कुछ भिन्नता है, जिसका कारण चिकित्सा भेद अर्थात काय चिकित्सा एवं शल्य चिकित्सा में अपनाये जाने वाली विधियो के अनुरूप है।

          2.4.1 स्रोतस शब्द की निरूक्ति एवं परिभाषा (Etymology & Definition of term ‘Srotas’)

चरक संहिता में महर्षि आत्रेय ने शरीर में रसादि पोषक धातुओं का स्रवण तथा अभिवहन करने वाले मार्गो को स्रोतस कहा हैं।  इसके अतिरिक्त शरीर में जितने मूर्तिमान भाव विशेष है, उतने ही प्रकार के स्रोतस भी है। शरीर में किसी भी भाव की उत्पत्ति, वृद्धि तथा क्षय स्रोतों के बिना सम्भव नही है। जिन रचनाओं में से स्रवण की क्रिया होती है, उन्हे स्रोतस कहा जाता है –

स्त्रवणात् स्रोतांसि।। (च.सू. 30/12)

स्रोतांसि खलु परिणाममापथमानानां धातुनामभिवाहीनि भवन्त्यनाथैन।। (च.चि. 5/3)

परिणाममापथमनाना अर्थात् पूर्व रसादिरूपता को त्याग कर उतरोत्तर रक्तादिरूपता में बदलते हुये परिवर्तनशील धातुओं का अभिवहन करने वाले मार्ग या रचना विशेष स्रोत है। स्रोतस परिणाम प्राप्त धातुओं को वहन कर अन्यत्र ले जाने वाले होते है।

स्रोतांसि सिरा धमन्यो रसायन्यो रसवाहिन्यो नाड्य: पन्थानो मार्गा: शरीरच्छिद्राणि संवृतासंवृतानि स्थानान्याशया निकेताश्चेति शरीरधात्ववकाशानां लक्ष्यालक्ष्याणां नामानि भवन्ति।। (च वि. 5 /9)

सुश्रुत संहिता में स्रोतसो को आकाशीय रचनायें कहा गया है, जो अपने मूल स्वरूप आकाशमय शरीरस्थ किसी हृदय आदि आशय या अंग विशेष में प्रारम्भ होकर शरीर मे प्रसृत हो तथा जिनके माध्यम से द्रव्य का अभिवहन हो, उन्हे स्रोतस नाम से सम्बोधित किया गया है।

मूलात् खादन्तरं देहे प्रसृतं त्वभिवाहियत्।

स्रोतस्तदिति विज्ञेयं सिरा धमनी वर्जितम्।।’’ (सु.शा.6/25)

उक्त पद से आचार्य सुश्रुत ने सिरा, धमनी वर्जितम् से सिरा और धमनी से पृथक् भी इनका अस्तित्व प्रतिपादित किया है। यह सुश्रुताचार्य का अपना विशिष्ट मत है, जबकि चरकाचार्य ने ऐसा पृथकत्व नहीं बताया है।

आयुर्वेद शास्त्र में शरीर के धारण पोषण एवं स्वस्थ रखने में जो महत्व दोष, धातु एवं मलों का है, वही स्रोतों का भी है । शरीरान्तर्गत समस्त दोषो, धातुओं, मलों आदि का अभिवहन स्रोतो द्वारा ही होता है। प्राकृत अवस्था में स्रोतों के माध्यम से रसवहन प्रक्रिया द्वारा शरीर के सभी धातुओं की दुष्टि होती है। शरीर के त्याज्य पदार्थ स्रोतों द्वारा ही निष्कासित किए जाते है।

        शरीर में प्रत्येक द्रव्य की उत्पत्ति और विनाश स्रोतों के द्वारा ही सम्पन्न होता है और अभिवहन करने वाले द्रव्य के समान गुणधर्म होने के कारण जब तक ये प्राकृत अवस्था में रहते है, शरीर स्वस्थ रहता है और जब स्रोतों में विकृति उत्पन्न हो जाती है तो शरीर भी व्याधिग्रस्त हो जाता है।

……………तानि दुष्टानि रोगाय विशुद्धानि सुखाय च । (अ.हृ.शा. 3/42)

स्रोतस शब्द की निष्पत्ति ‘सु स्रवणे’ धातु से होती है । इसका अर्थ है –

–   निरसन (Exudation)    –   निश्च्याव (Oozing)

–   पावन (Filtration) –   अतिवेधन (Permeation)

          2.4.2 स्रोतों की संख्या एवं भेद (Number and Type of Srotas)

चरक एवं सुश्रुत में मान्य स्रोतो की संख्या भिन्न भिन्न है तथा चरक कुछ स्थानो पर स्रोतोस को असंख्य भी मानते है यथा चरक विमान स्थान मे लिखते है कि –

     यावन्त: पुरूषे मूर्तिमन्तो भावविशेषा: तावन्त एवास्मिन् स्रोतसां प्रकार विशेषा:।।’ (च.वि.5/3)

अर्थात् पुरूषों में जितने मूर्ति वाले भाव है उतने ही इस पुरूष में स्रोतो के भेद है।

किन्तु व्यवहार रूप में मूल और प्रकोप लक्षणों द्वारा चरक में 13 स्रोतस माने गये है, तथा गर्भ प्रकरण में आर्तववह स्रोतस एवं उन्माद प्रकरण में मनोवह स्रोतस को भी मानते है। चरक में निम्न 13 स्रोत स्पष्ट रूप से माने गये है-

1.प्राणवह स्रोतस           2. अन्नवह स्रोतस

  1. उदकवह स्रोतस 4. रसवह स्रोतस
  2. रूधिरवह स्रोतस 6. मांसवह स्रोतस
  3. मेदोवह स्रोतस 8. अस्थिवह स्रोतस
  4. मज्जावह स्रोतस 10. शुक्रवह स्रोतस
  5. मूत्रवह स्रोतस 12. पुरीषवह स्रोतस
  6. स्वेदवह स्रोतस

                   2.4.2.1 चरकोक्त 13 स्रोतसो का विस्तृत वर्णन (Description of 13 Srotas useful in medicine)

आचार्य चरक ने स्रोतो को असंख्येय मानते हुये भी प्रधानरूप से जो 13 स्रोतस् माने हैं, उनका विस्तृत वर्णन यथा-

                       2.4.2.1.1   प्राणवह स्रोतस् (Pranavaha Srotas)

प्राण को वहन करने वाला प्राणवह स्रोतस् है, इसके मूल हृदय एवं महास्रोतस् होते हैं, यथा-

तत्र प्राणवहानां स्रोतसां हृदयमूलं महास्रोतसश्च । (च.वि.5/7)

                        2.4.2.1.2   अन्नवह स्रोतस (Annavaha Srotas)

अन्न अर्थात् आहार को वहन करने वाले स्रोतस् को अन्नवह स्रोतस् कहते है। इसके मूल आमाशय तथा वामपार्श्व हैं, यथा-

अन्नवहानां स्रोतसां आमाशयमूलं वामं च पार्श्वम् (च.वि.5/7)

इस प्रकार अन्नवह स्रोतस् है, जिसमें विभिन्न अन्नों से बनाये गये आहार को ग्रहण करने एवं वहन करने का कार्य होता है।

                     2.4.2.1.3   उदकवह स्रोतस (Udak-vaha Srotas)

शरीर में जल को वहन करने वाले स्रोतस् को उदकवह स्रोतस् कहते हैं।

उदकवहानां स्रोतसां तालुमूलं क्लोम च।   (च.वि.5/7)

उदकवह स्रोत के मूल तालु और क्लोम हैं।

                      2.4.2.1.4 रसवह स्रोतस (Rasa-vaha Srotas)

रस को सर्वशरीर में वहन कराने वाले स्रोतस् को रसवह स्रोतस् कहते हैं।

रसवहानां स्रोतसां हृदयं मूलं दश  च धमन्य:। (च.वि.5/7)

रसवह स्रोतस् का मूल हृदय एवं दश धमनियॉं हैं।

                     2.4.2.1.5 रक्तवह स्रोतस (Rakta-vaha Srotas)

शोणित स्रोतसां यकृन्मूलं प्लीहा च ।(च.वि.5/7)

आचार्य चरक ने रक्तवह स्रोतस् का मूल यकृत एवं प्लीहा बताया है।

                     2.4.2.1. 6 मांसवह स्रोतस् (Mansa-vaha Srotas)

मांसवहानां च स्रोतसां स्नायुमूलं त्वक् च।          (च.वि.5/7)

मांसवह स्रोतस् का मूल स्नायु एवं त्वचा बताये हैं।

                     2.4.2.1. 7 मेदवह स्रोतस् (Meda-vaha Srotas)

सर्वशरीर में मेद को वहन करने वाले स्रोतस् को मेदवह स्रोतस् कहते हैं, यथा-

मेदवहानां स्रोतसां वृक्कौ मूलं वपावहनं च।          (च.वि.5/7)

मेदोवह स्रोतस् का मूल वृक्क एवं वपावहन है।

                     2.4.2.1.8   अस्थिवह स्रोतस् (Asthivaha Srotas)

अस्थिवहानां स्रोतसां मेदो मूलं जघनं च ।          (च.वि.5/7)

आचार्य चरक ने अस्थिवह स्रोतस् का मूल मेद एवं जघन बताया है।

                     2.4.2.1.9   मज्जावह स्रोतस् (Majjavaha Srotas)

मज्जावह स्रोतस् मज्जा का वहन करते हैं, यथा-

मज्जावहानां स्रोतसां अस्थीनिमूलं सन्धयश्च ।     (च.वि.5/7)

मज्जावह स्रोतस् का मूल अस्थि और सन्धियॉं हैं।

                     2.4.2.1.10 शुक्रवह स्रोतस् (Shukra-vaha Srotas)

आचार्य चरक ने शुक्र को वहन कराने वाले स्रोतस् के मूल वृषण एवं शेफ बताये हैं, यथा-

शुक्रवहानां स्रोतसां वृषणौ मूलं शेफश्च ।           (च.वि.5/7)

शुक्रवह स्रोतस् के समकक्ष पुरूष प्रजनन तंत्र को (Male reproductive system) को माना जा सकता है जो वृषण, शिश्न, प्रोस्टेट ग्रंथी, बल्बोयुरीथ्रल ग्रंथी, शुक्राशय आदि संरचनाओं से बना होता है।

                     2.4.2.1.11 मूत्रवह स्रोतस् (Mutra-vaha Srotas)

मूत्र को वहन करने वाले स्रोतस् का नाम मूत्रवह स्रोतस् है।

मूत्रवहानां स्रोतसां बस्तिर्मूलं वंक्षणौ च।             (च.वि.5/7)

    मूत्रवह स्रोतस् के मूल बस्ति एवं वंक्षण है।

                     2.4.2.1.12 पुरीषवह स्रोतस् (Purish-vah Srotas)

पुरीषवहानां स्रोतसां पक्वाशयो मूलं स्थूलगुदं च।     (च.वि.5/7)

पुरीषवह स्रोतस् का मूल -पक्वाशय एवं स्थूलगुद है। पुरीषवह स्रोतस् में पुरीष अर्थात feces (stool) का वहन होता है।

                     2.4.2.1.13 स्वेदवह स्रोतस् (Swedavah Srotas)          

स्वेदवहानां स्रोतसां मेदो मूलं लोमकूपाश्च।           (च.वि.5/8)

स्वेदवह स्रोतस् का मूल मेद एवं लोमकूप है।

2.4.2.2 आचार्य सुश्रुतानुसार स्रोतसों के भेद (Description of 11 pairs of Srotas useful in surgery)

आचार्य सुश्रुत ने स्रोतसों को 2 भागों में विभक्त किया है –

  1. बहिर्मुख स्रोतस (External openings)
  2. अन्तर्मुख स्रोतस  (Internal openings)

     2.4.2.2.1 बहिर्मुख स्रोतस (External openings)

श्रवण नयन वदन घ्राण गुदमेढऊाणि नव स्त्रोतांसि नराणां बहिर्मुखानि।

एतान्येव स्त्रीणां अपराणि च त्रीणि द्वे स्तनयो: अघस्तात् रक्तवहंच।। (सु.शा.5)

शरीर के बाह्य छिद्रो को सुश्रुत द्वारा बहिर्मुख स्रोतस की संज्ञा प्रदान की गई है। ये पुरूषों में 9 तथा स्त्रियों में 12 (3 अतिरिक्त) पाये जाते है।

ये 9 छिद्र निम्न होते है – कर्ण (External openings of ear), नेत्र (Eyes), मुख (Oral cavity), नाक (Nostrils), मलद्वार (Anus), एवं मूत्रद्वार (Urethra)।

स्त्रियों में 3 अतिरिक्त छिद्र निम्न होते है – 1 योनी एवं 2 स्तन्यवह स्रोतस के छिद्र ।

     2.4.2.2.2 अन्तर्मुख स्रोतस (Internal channels)

शल्यतंत्र में 11 स्रोतस माने गये है तथा इनकी संख्या 2-2 मानी है, इस प्रकार कुल 22 स्रोतस हो जाते है। इन 11 स्रोतो को ही अन्तर्मुख स्रोतस एवं योगवाही स्रोतस कहा गया है। शल्य तन्त्रोक्त स्रोतसो में सन्निकृष्ट अवयव को स्रोतस का मूल कहा गया है।

  1. प्राणवह स्रोतस 2.  अन्नवह स्रोतस
  2. उदकवह स्रोतस 4.  रसवह स्रोतस
  3. रक्तवह स्रोतस 6.  मांसवह स्रोतस
  4. मेदवह स्रोतस 8.  मूत्रवह स्रोतस
  5. पुरीषवह स्रोतस 10. शुक्रवह स्रोतस
  6. आर्तवह स्रोतस

यहा विशेष बात यह है कि आचार्य सुश्रुत अस्थिवह, मज्जावह और स्वेदवह स्रोतस् को नही मानते है।

               2.4.2.2.2.1. प्राणवह स्रोतस (Pranvaha Srotas)

तत्र प्राणवहे द्वे, तयोर्मूलं हृदयं रसवाहिन्यश्च धमन्य:, तत्र विद्धस्याक्रोशनविनमन मोहनभ्रमणवेपनानि मरणं वा भवति (सु.शा.9/12)

प्राण को वहन करने वाला प्राणवह स्रोतस् है, इसके मूल हृदय एवं रसवाहि धमनिया होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है –

आक्रोश, विनमन (झुकना), मोह, भ्रम, वेपन, मरण

               2.4.2.2.2.2 अन्नवह स्रोतस (Anna-vaha Srotas)

अन्नवहे द्वे, तयोर्मूलमामाशयोऽन्नवाहिन्यश्च धमन्य:; तत्र विद्धस्याध्मानं शूलोऽन्नद्वेषश्छर्दि: पिपासाऽऽन्ध्यं मरणं च; (सु.शा.9/12)

अन्न को वहन करने वाला अन्नवह स्रोतस् है, इसके मूल आमाशय एवं अन्नवाहि धमनिया होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है –

आध्मान (infutance), शूल (Pain) अन्नद्वेष (Anorexia), छर्दि (Vometing), पिपासा (Thirst), अन्धता (Blindnesss) एवं मरण (Death)

              2.4.2.2.2.3 उदकवह स्रोतस (Udak-vaha Srotas)

उदकवहे द्वे, तयोर्मूलं तालु क्लोम च, तत्र विद्धस्य पिपासा सद्योमरणं च:

(सु.शा.9/12)

उदक अर्थात जल को वहन करने वाला उदकवह स्रोतस् है, इसके मूल तालु एवं क्लोम होते हैं, और आचार्य सुश्रूत ने इनके विद्ध होने के निम्न दो लक्षण बताये है – पिपासा एवं सद्यो मरण (Death)

               2.4.2.2.2.4 रसवह स्रोतस (Rasa-vaha Srotas)

रसवहे द्वे, तयोर्मूलं हृदयं रसवाहिन्या धमन्य:, तत्र विद्धस्य शोष:प्राणवह विद्धवच्च मरणं तल्लिङ्गानि च (सु.शा.9/12)

रस को वहन करने वाला रसवह स्रोतस् है, इसके मूल हृदय एवं रसवाहि धमनिया होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है –

शोष, प्राणवह स्रोतस के विद्ध समान लक्षण एवं मरण  (Death) होने के  लक्षण

               2.4.2.2.2.5 रक्तवह स्रोतस (Rakta-vaha Srotas)

रक्तवहे द्वे, तयोर्मूलं यकृत्प्लीहानौ रक्तवाहिन्यश्च धमन्य:, तत्र विद्धस्य श्यावाङ्गता ज्वरो दाह: पाण्डुता शोणितागमनं रक्तनेत्रता च। (सु.शा.9/12)

रक्त को वहन करने वाला रक्तवह स्रोतस् है, इसके मूल यकृत-प्लीहा एवं रक्तवाहि धमनिया होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है-

अंगों का श्याव होना, ज्वर, दाह, पाण्डुता, रक्त प्रवृत्ति एवं नेत्रों का लाल होना

                2.4.2.2.2.6 मांसवह स्रोतस् (Mansa-vaha Srotas)

मांसवहे द्वे, तयोर्मूलं स्नायुुत्वचं रक्तवहाश्च धमन्य:, तत्र विद्धस्य श्वयथुुर्मांसशोष: सिराग्रन्थयो मरणं च। (सु.शा.9/12)

मांस को वहन करने वाला मांसवह स्रोतस् है, इसके मूल स्नायु-त्वचा एवं रक्तवाहि धमनिया होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है-

श्वयथु मांस शोष, सिरा ग्रन्थी एवं मरण  ()

                2.4.2.2.2.7 मेदवह स्रोतस् (Meda-vaha Srotas)

मेदोवहे द्वे, तयोर्मूलंकटी वृक्कौ च, तत्र विद्धस्य स्वेदागमनं स्निग्धाङ्गता तालुशोष: स्थूलशोफता पिपासा च। (सु.शा.9/12)   

मेद को वहन करने वाला मेदवह स्रोतस् है, इसके मूल कटी एवं वृक्क होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है-

पसीना आना, अंगों का स्निग्ध, तालु शोष स्थूल शोफ एवं प्यास

               2.4.2.2.2.8 मूत्रवह स्रोतस् (Mutra-vaha Srotas)

मूत्रवहे द्वे, तयोर्मूलं बस्तिर्मेढ्रं च, तत्र विद्धस्यानद्धबस्तिता मूत्रनिरोध: स्तब्धमेढ्रता च; (सु.शा.9/12)

मूत्र को वहन करने वाला मूत्रवह स्रोतस् है, इसके मूल बस्ति एवं मेढ्र होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है-

मूत्र निरोध एवं मेढ्र में स्तब्धता 

               2.4.2.2.2.9 पुरीषवह स्रोतस् (Purish-vah Srotas)

पुरीषवहे द्वे, तयोर्मूलं पक्वाशयो गुदं च, तत्र विद्धस्यानाहो दुर्गन्धता ग्रथितान्त्रता च (सु.शा.9/12)

पुरीष को वहन करने वाला पुरीषवह स्रोतस् है, इसके मूल पक्वाशय एवं गुद होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है-  अनाह, दुर्गन्ध, आन्त्र में मल की गाठे बन जाना

               2.4.2.2.2.10 शुक्रवह स्रोतस् (Shukra-vaha Srotas)

शुक्रवहे द्वे, तयोर्मूलं स्तनौ वृषणौ च, तत्र विद्धस्य क्लीबता चिरात् प्रसेको रक्तशुक्रता च।                 (सु.शा.9/12)

शुक्र को वहन करने वाला शुक्रवह स्रोतस् है, इसके मूल स्तन एवं वृषण होते हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है-

क्लेब्य, देर से शुक्र प्रवृत्ति एवं शुक्र के साथ रक्त आना

               2.4.2.2.2.11 आर्तववह स्रोतस् (Artavavaha Srotas)

आर्तवहे द्वे, तयोर्मूलं गर्भाशय आर्तववाहिन्यश्च धमन्य:, तत्र विद्धाया वन्ध्यात्वं मैथुनासहिष्णुत्वमार्तवनाशश्च (सु.शा.9/12)

आर्तव को वहन करने वाला आर्तववह स्रोतस् है, इसके मूल गर्भाशय एवं आर्तववाहि धमनीयॉ होती हैं, और इनके विद्ध होने के निम्न लक्षण है-

  1. बन्ध्यता (Infertility)
  2. मैथुन असहिष्णुता (sex intolerance)
  3. आर्तव का नाश (Amenorrhea)

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