Assessment of Dosha Vrddhi Kshaya Lakshana

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क्षीण दोषों के लक्षण (Features of Dosha Kshaya) 

वाते पित्ते कफे चैव क्षीणे लक्षणमुच्यते। कर्मण: प्राकृताद्वानिर्वृद्धिर्वा विरोधिनाम्।।   (च. सू. 18/54)

क्षयलक्षणमाह. वाते इत्यादि। कर्मण: प्राकृतादिति वातादिप्रकृति कर्मत्वेनोक्तादुत्साहादे:।  हानि: अपचय:। वृद्धिर्वाऽपि विरोधिनामिति उक्तप्राकृतलक्षणविरोधिनां कर्मणां वृद्धि:; यथा वातक्षये उत्साहविरोधिनो विषादस्य वृद्धि:, पित्तक्षयेऽदर्शनापक्त्यादीनां, श्लेष्मक्षये रौक्ष्यादीनां वृद्धि:। इह प्राकृतकर्महानौ सत्यां नावश्यं विरोधिकर्मवृद्धिरत उक्तं- वृद्धिर्वेत्यादिय न ह्यवश्यमुत्साहहानावल्पमात्रायां सत्यां विषादो वर्धते, अलोभन्यूनत्वे वा मनाग्लोभो वर्धतेय किंवा, उत्साहाद्यभावेनाभावमुखेन ज्ञानार्थं कर्मण: प्राकृताद्धानि:इत्युक्तं, विषादादिवृद्ध्या तु विधिमुखेन ज्ञानार्थं वृद्धिर्वाऽपि विरोधिनाम्इत्युक्तम्। यदुच्यते- वृद्धिर्वाऽपि विरोधिनामिति विरोधिदोषाणां, यथा- पित्तवृद्धौ श्लेष्मक्षयो जायते, इत्येवमादिय तन्न, यतोऽन्यदोषवृद्धावन्यस्यावश्यं न ह्यपायो भवति, तथाहि सति पित्तवृद्धौ सत्यां सर्वदा श्लेष्मक्ष्य: स्यात्य न च दोषा: परस्परघातका इति प्रागेव प्रतिपादितंय प्रदेशान्तरेऽपि दोषाणां स्वलक्षणहानिरेव परं क्षयलक्षणं- क्षीणा जहति लिङ्गं स्वं’ (सू.अ.17) इत्यनेनोक्तम्।।

 वातक्षय के लक्षण (Features of Vata Kshaya)

वातक्षये मन्दचेष्टताऽल्पवाक्त्वमप्रहर्षो मूढसञ्ज्ञता च (सु. सू. 15/7)

मन्दचेष्टता, मन्दकायव्यापारता। अप्रहर्ष: अतुष्टि:। मूढसञ्ज्ञता नष्टसम्यग्ज्ञानता। चकारात् प्राकृतकर्महानिस्तद्विरोधिनश्च। श्लेष्मण: प्राकृतकर्मवृद्धिरिति चकार: समुच्चिनोति। (सु. सू. 15/7 पर डल्हण)

लिङ्गं क्षीणेऽनिलेऽङ्गस्य सादोऽल्पं भाषिते हितम्। संज्ञामोहस्तथा श्लेष्मवृद्ध्युक्तामयसम्भव:।। (अ. ह. सू. 11/15)

अनिले क्षीणे-स्वप्रमाणापचिते, वक्ष्यमाणानि लिङ्गानि। वायोस्तु सर्वक्षये देह एव न स्यात्, कस्य तल्लिङ्गं स्यात्। किं पुनस्तल्लिङ्गम्? इत्याह-अङ्गस्येत्यादि। अङ्गस्य साद:-क्रियास्वसामथ्र्यम्। ईहितं-चेष्टितम् कायिकं कर्म। भाषितं चेहितं च भाषितेहितम्। अल्पवचनाऽल्पचेष्टितत्वं च स्यात्। तथा, संज्ञामोह:.संविदोऽभाव:। तथा, श्लेष्मवृद्धौ य उक्ता:.अग्निसादप्रसेकादय:, तेषामामयानां सम्भवो भवति।

वात की क्षीणता के कारण शारीरिक चेष्टाओं में मन्दता, अंगसाद, भाषण में अल्पता, हर्ष, अप्लवृद्धि मन्द तथा सज्ञानाश तक हो सकता है। कफ वृद्धि के लक्षणों के समान  आलस्य गौरव आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।

क्षीण पित्त दोष के लक्षण (Features of Pitta Kshaya)

पित्तक्षये मन्दोष्माग्निता निष्प्रभत्वं च (सु. सू. 15/7)

एवं पित्तादिक्षयेष्वपि कारप्रयोजनं ज्ञेयम्। पित्तक्षय इत्यादि निष्प्रभता प्रभाहानि:। (सु. सू.15/7 पर डल्हण)

पित्ते मन्दोऽनल: शीत प्रभाहानि:          (अ.ह. स. 11/16)

लिङ्गं क्षीणे इत्यनुवर्तते। पित्ते क्षीणे लिङ्गमेतत्। अग्निर्मन्द: शीतं कान्तिहानिश्च स्यात्।

शरीर में पित्त की क्रिया में क्षय होने से शरीरिक उष्मा में कमी हो जाती है, जिससे  शीतलता का अनुभव होने लगता है। अग्नि के मन्द होने के कारण आहार पाचन में विकृति हो जाती है। शारीरिक प्रभा में कमी आ जाती है।

 क्षीण कफ दोष के लक्षण (Features of Kapha Kshaya)

श्लेष्मक्षये रूक्षताऽन्तर्दाह आमाशयेतरश्लेष्माशयशून्यता, सन्धिशैथिल्यं  (तृष्णा, दौर्बल्यं प्रजागरणं) च ।। (सु. सू.15/7)

श्लेष्मक्षय इत्यादि आमाशयो यत्राशितादि पच्यते, इतराशया उर:कण्ठशिर:सन्धय इति, श्लेष्माशयशून्यतेति कृते सति आमाशयो लब्ध:, यदामाशयस्य पृथगुपादानं तद्विशेषेण शून्यताख्यापनार्थम्। केचिच्छिर:शब्दं सूत्रे पठन्ति, शिरसोऽपि सर्वेन्द्रियाधिष्ठानत्वेन प्राधान्यात् पृथगभिधानम् ।। (सु. सू.15/7 पर डल्हण)

…. …            ..        ..        ..        कफे भ्रम:।

श्लेष्माशयानां शून्यत्वं हृद्द्रव: श्लथसन्धिता।। (अ. ह. सू. 11/16)

कफे क्षीणे भ्रमो भवति। तथा, श्लेष्माशयानां शून्यत्वं भवति। श्लेष्माशया:.उर:शिर:सन्ध्याद्या:। तथा, हृद्द्रावादय: स्यु:। हृद्द्रव:-हृदि कम्प इत्यर्थ:।।

शरीर में कफ की क्रिया में क्षय होने से शरीर में रूक्षता बढ जाती है। अन्र्तदाह होता है। आमाशय के अतिरिक्त अन्य श्लेष्मा के आशयों में शून्यता, ह्दय में दीनता, सन्धियों में शिथिलता, भ्रम, दुर्बलता, प्यास अधिक एवं नींद कम हो जाती है।

 

वृद्ध वात – पित्त- कफ के लक्षण: (Features of Dosha Vriddhi)

दोषप्रकृतिवैशेम्यं नियतं वृद्धिलक्षणम्। दोषाणां प्रकृतिर्हानिर्वृद्धिश्चैवं परीक्ष्यते।। (च. सू. 18/55)

वृद्धिलक्षणमाह- दोषेत्यादि। प्रकृति: स्वभाव:, तस्य वैशेष्यमाधिक्यंय श्लेष्मण: स्नेहशैत्यमाधुर्यादिर्या प्रकृतिस्तस्या अतिस्निग्धातिशैत्यातिमाधुर्यादिवैशेष्यं वृद्धिलक्षणम्। नियतमिति प्रतिनियतं, यद्यस्य प्रकृतिलक्षणं तद्वृद्धं सप्तस्यैव वृद्धिलक्षणमित्यर्थ:; अन्ये तु निश्चितमित्याहु:।।

अर्थात दोषों के प्राकृतिक कार्यो में अधिकता होना, दोषों की वृद्धि के लक्षण हैं। यदि शरीर के प्राकृतिक कर्म सम्यक प्रकार से सम्पादित हो रहे हैं तो दोषों की समावस्था है। इस प्रकार दोषों के सम, वृद्धि एवं क्षय की परीक्षा की जाती है।

 वातदोष वृद्धि के लक्षण (Features of Vata Vruddhi)

वातवृद्धौ वाक्पारुष्यं काश्र्य काष्णर्यं गात्रस्फुरणमुष्णकामिता निद्रानाशोऽल्पबलत्वं गाढवर्चस्त्वं च। (सु. सू. 15/14)

अत ऊध्र्वमित्यादि। गाढवर्चस्त्वं चेति चकारोऽयं वातस्य प्रकृतिकर्मणोऽतिशयत्वं समुच्चिनोति, एवं पित्तकफरसादिष्वपि चकारप्रयोजनम्। वाक्पारुष्यं वचनकार्कश्यं, केचिद्वाक्पारुष्यं न पठन्ति। काश्र्यं मांसक्षय:। काष्णर््यं कृष्णत्वं शरीरे। अल्पबलत्वम् उत्साहहानि:। (सु. सू.15/14 पर डल्हण)

काश्र्यकाष्णर्यकामित्व कंपानाहशकृद्ग्रहान्। बलनिद्रेन्दियभ्रंशप्रलापभ्रमदीनता:।।         (अ.ह.सू. 11/16)

वृद्ध: पुनर्वायु: काश्र्यादीन् करोति। बलादीनां भ्रंशेन सम्बन्ध:। बलस्य प्राणोपघातो भ्रंश:। निद्रायास्तु नाशो भ्रंश:।

वात वृद्धि की अवस्था में भाषण में कर्कशता, शरीर में कृशर्ता व श्यामता (कालापन) अंगों में स्फुरण उष्ण आहार विहर की इच्छा निद्रा एवम् बल का नाश। इन्द्रियों में क्षीणता, प्रलाप, भ्रम, दीनता आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।

 

पित्तदोष वृद्धि के लक्षण (Features of Pitta Vruddhi)

पित्तवृद्धौ पीतावभासता संताप: शीत कामित्वमल्पनिद्र्रता मूच्र्छा बलहानिरिन्द्रिय दौर्बल्यं पीत विण्मूत्र नेत्रत्वं च।। (सु. सू. 15/14)

पित्तवृद्धावित्यादि। अल्पनिद्रता किञ्चित् स्निग्धत्वात् पित्तस्य। मूच्र्छा सर्वेन्द्रियशक्तेस्तिरस्कार:। बलहानिरिह ओजोहानि:, सन्तापात्तत्क्षयोपपत्ते:। (सु. सू.15/14 पर डल्हण)

पीत विण्मूत्र नेत्रत्वकक्षूत्वृऽदाहा अल्पनिद्रता पित्तम्।     (अ.ह.सू. 11/7)

पीतस्य विडादिभिस्त्वगन्तै: सम्बन्ध:, तत: क्षुदादिभिद्र्वन्द्व:, ततस्तलप्रत्यय:। पित्तं वृद्धं पीतविण्मूत्रादीन् करोति।

पित्त में शरीर की वृद्धि हो जाने पर वर्ण पीला हो जाता है, शरीर में उष्णता बढ़ जाती है, इन्द्रियों में दुर्बलता, तृष्णा मूच्र्छा तथा मल-मूत्र में पीलापन ये लक्षण प्रकट होते हैं।

कफदोष वृद्धि के लक्षण (Features of Kapha Vruddhi)

श्लेष्मवृद्धौ शोक्ल्यं शैत्यं स्थैर्यं गोरवमवसादस्तन्द्रा निद्रा सन्धयस्थिविश्लेषश्च।। (सु. सू.  15/14)

श्लेष्मवृद्धावित्यादि। शौक्ल्यशैत्ये त्वगादीनाम्। स्थैर्यं गात्राणां स्तम्भ:। अवसाद: चित्तदेहयोग्र्लानि:। तन्द्रा निद्राभेद:। सन्धिविश्लेष: अत्यन्तवृद्धेन विष (घ)टनम्। सन्ध्यस्थिश्लिष्टताइति केचित् पठन्ति, व्याख्यानयन्ति च- कफोपचितत्वात् सुष्ठु सङ्घट्टनं सन्ध्यस्थ्नोर्भवतिइति। अध्यस्थिश्लिष्टताइति क्वचित् पाठ:।।(सु. सू.15/14 पर डल्हण)

शरीर में कफ के कार्यों में वृद्धि होने से शरीर का तापमान कम हो जाता है जिससे शीतता का अनुभव होता है। स्थिरता, गुरूता, ग्लानि, तन्द्रा, अधिक निद्रा संन्धि एवं अस्थियों में शिथिलता, मन्दाग्नि, मुख से लार का अधिक उत्पन्न होना, नेत्र में अधिक श्वेतता, श्वास तथा कास की शिकायत होने लगती है।

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